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Moral Story: दूसरों को दुख पहुँचाने वाला नहीं बन सकता साधक
Moral Story: साधक तभी होता है, जब अवगुण मिट जाते हैं। दूसरा उसके साथ वैर करे तो भी उसके ह्रदय में वैर नहीं होता, उलटे हँसी आती है, प्रसन्नता होती है। वह अनिष्ट-से-अनिष्ट चाहने वाले का भी बुरा नहीं चाहता।
Moral Story: जब तक मनुष्य में गुण-अवगुण दोनों रहते हैं, तब तक वह साधक नहीं होता। साधक तभी होता है, जब अवगुण मिट जाते हैं। दूसरा उसके साथ वैर करे तो भी उसके ह्रदय में वैर नहीं होता, उलटे हँसी आती है, प्रसन्नता होती है। वह अनिष्ट-से-अनिष्ट चाहने वाले का भी बुरा नहीं चाहता। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग – तीनों मार्गों में राग-द्वेष मिट जाते हैं। अत: साधक को देखते रह्ना चाहिये कि मेरे राग-द्वेष कम हो रहे हैं या नहीं। अगर कम हो रहे हैं तो समझे कि साधन ठीक चल रहा है।
साधक में तीन बातें रहनी चाहिये। वह किसी को बुरा मत समझे, किसी का बुरा मत चाहे और किसी का बुरा मत करे। इन तीन बातों का वह नियम ले ले तो उसका साधन बहुत तेज और बढ़िया होगा। इन तीन बातों को धारण करने से वह कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग – तीनों का अधिकारी बन जाता है। इसलिये मेरी साधकों से प्रार्थना है कि वे कम-से-कम इन तीन बातों को धारण कर लें। वे सब की सेवा करें, सब को सुख पहुँचायें। सुख भी न पहुँचा सकें तो कम-से-कम किसी को दुःख मत पहुँचायें। जो दूसरों को दुःख पहुँचाता है, वह साधन नहीं कर सकता।
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई |
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ||
( मानस. उतर, ४१/१ )
मनुष्य शरीर साधन करने के लिये मिला है। यह साधनयोनि है। इसलिये सच्चे साधक बनो। सच्चे सत्संगी बनो। योगारूढ़ हो जाओ। जीवन्मुक्त, तत्वज्ञ हो जाओ। भगवान् के प्रेमी हो जाओ। यह मौक़ा मनुष्यजन्म में ही है।
नर्क का द्वार है लोभ
एक बड़ा जमींदार था। उसके मन में आया कि अपनी कुछ जमीन गरीबों को बांटनी चाहिये। एक लोभी मनुष्य उसके पास पहुंचा और कहने लगा, “मुझे जमीन चाहिये।” जमींदार ने कहा, “ठीक बात है, सूर्योदय से चलना प्रारंभ करो। सूर्यास्त तक वहीं वापस लौटो। उस घेरे में जितनी भी जमीन आ जायगी, वह सब तुम्हारी होगी।”
प्रारंभ के स्थान पर निशान गाडकर वह आदमी चलने लगा। उसने सोचा कि बड़ा लम्बा घेरा लूंगा तब बहुत अधिक जमीन मिलेगी। वह दौड़ा बिना रुके, बिना विश्राम किये वह दौड़ता रहा। भोजन तो क्या उसने पानी तक नहीं पिया। अभी वह बिना मुड़े आगे ही बढ़ता जा रहा था। जब सूरज भगवान अस्ताचल की ओर झुके, तब वह घबराया। मैं तो बहुत दूर चला आया हूं, अब सूर्यास्त के पूर्व प्रारंभ के स्थान पर भला कैसे पहुंचूंगा ? वहां तक नहीं पहुंचूंगा तो घेरा अधूरा रह जायगा और मुझे कुछ भी नहीं मिलेगा। इस कल्पना मात्र से वह बहुत व्यथित हुआ। भूखा प्यासा होते हुए भी वह जी जान से दौड़ने लगा। वह हांफने लगा। उसके पैर लड़खड़ाने लगे। उधर सूर्यास्त हो रहा था, इधर इस आदमी के प्राण भी अस्त हो रहे थे। वह मूर्च्छित हुआ और शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। लोगों को जब पता चला तब वे वहां आ पहुंचे। उसे श्मशान में ले जाया गया। उसे गाड़ने के लिये केवल साढ़े तीन हाथ जगह पर्याप्त रही।
शिक्षा: हमें लालच नहीं करना चाहिए। जितना हमें प्राप्त है, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। लोभ-लालच के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए, इससे अनिष्ट ही होता है।
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