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लालू राज का सबसे खौफनाक मंजर! गोलियों की बारिश, गले कटे 40 लोग’... बिहार के सबसे बड़े नरसंहार की दहला देने वाली सच्चाई
Bara Massacre Bihar: इसी उथल-पुथल, जातीय टकराव और सामाजिक हिंसा के बीच हुआ था एक ऐसा नरसंहार, जिसने बिहार ही नहीं, पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। यह था गया जिले के बारा गांव का ‘बारा नरसंहार’। आज भी जब उस गांव का नाम लिया जाता है, तो बूढ़ों की आंखें भर आती हैं और बच्चों की रूह कांप उठती है।
बारा नरसंहार: 1990 का दशक... जब भारत में उदारीकरण की लहर चल रही थी, देश नई आर्थिक दिशा में कदम बढ़ा रहा था। दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में लोग मल्टीनेशनल कंपनियों के विज्ञापनों से अपनी किस्मत बदलने के सपने देख रहे थे। लेकिन उसी दौर में एक राज्य ऐसा था, जहां सपनों के नहीं, बल्कि गोलियों की आवाज गूंज रही थी। वहां बंदूकें बोलती थीं, बारूद की गंध बस जाती थी हवाओं में। वह राज्य था बिहार।
यह वह दौर था, जब लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे। 'भूरा बाल साफ करो' जैसे नारों के साथ जातीय राजनीति अपने चरम पर थी। अपराधियों, नक्सलियों और राजनीतिक संरक्षकों का ऐसा गठजोड़ तैयार हो चुका था कि बिहार की सड़कों पर खून बहाना आम बात हो गई थी। कानून व्यवस्था ठहाके लगाकर हंस रही थी और आम आदमी अपने घर से निकलते समय यह सोचता था कि लौट पाएगा या नहीं। इसी उथल-पुथल, जातीय टकराव और सामाजिक हिंसा के बीच हुआ था एक ऐसा नरसंहार, जिसने बिहार ही नहीं, पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। यह था गया जिले के बारा गांव का ‘बारा नरसंहार’। आज भी जब उस गांव का नाम लिया जाता है, तो बूढ़ों की आंखें भर आती हैं और बच्चों की रूह कांप उठती है।
जब बारा गांव बना मौत का मैदान
12 फरवरी 1992... रात का वक्त... हर ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। गांव के लोग अपने-अपने घरों में चैन की नींद सो रहे थे। लेकिन किसी को नहीं पता था कि यह नींद उनकी आखिरी नींद बनने वाली है। रात करीब 9 बजे भाकपा माओवादी (माले) के सैकड़ों नक्सली गांव के चारों ओर से घेरा डालकर घुस आए। हवा में बारूद की गंध घुल चुकी थी और गोलियों की गूंज ने गांव को दहला दिया। नक्सलियों ने किसी जल्दबाजी में नहीं बल्कि बेहद सुनियोजित तरीके से हमला किया था। टारगेट साफ था — भूमिहार जाति। एक-एक कर घरों से बाहर निकाला गया। किसी के हाथ बंधे, किसी के पांव। बच्चों के सिर पर बंदूक, औरतों की चीखें... लेकिन नक्सलियों की आंखों में जरा सा भी रहम नहीं था। गांव के बधार में ले जाकर 40 लोगों को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। गला रेत कर हत्या... आधुनिक भारत के इतिहास में ऐसी क्रूरता की कल्पना भी नहीं की गई थी।
चार घंटे तक चलता रहा मौत का तांडव
यह कोई अचानक हुआ हमला नहीं था, बल्कि जातीय नफरत और सामाजिक विद्वेष की एक सुनियोजित साजिश थी। रात 1:30 बजे तक पूरा गांव चीखता रहा, तड़पता रहा। 32 लोग तो उसी समय मौत की आगोश में समा गए। बाकी बचे कुछ लोगों ने अस्पताल में दम तोड़ा। गांव की गलियां खून से लथपथ थीं। रात भर शव पड़े रहे। अगले दिन सुबह जब मीडिया पहुंचा तो कैमरों में सिर्फ मौत ही कैद हुई। वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि वह मंजर देख कर पुलिस वाले तक कांप रहे थे। यह वही दौर था जब बिहार पुलिस या तो लाचार थी या मिलीभगत में शामिल थी। सरकार बेबस थी। लालू यादव सत्ता में थे, लेकिन उनका पूरा ध्यान सोशल इंजीनियरिंग और जातीय समीकरण साधने पर था। प्रशासन पंगु था और इंसाफ का कोई नामोनिशान नहीं।
टाडा कोर्ट और इंसाफ की लड़ाई
बारा नरसंहार का मामला टाडा कोर्ट में पहुंचा। 13 लोगों को दोषी करार दिया गया, जिनमें किरानी यादव उर्फ सूर्यदेव यादव मुख्य आरोपी बना। 2001 में फैसला आया और कई अभियुक्तों को उम्रकैद और फांसी की सजा मिली। लेकिन इंसाफ की इस लड़ाई में सच्चाई को जितना मिलना चाहिए था, उतना कभी मिला ही नहीं। बिहार की राजनीति ने इस घटना को भी जातियों के चश्मे से देखा। भूमिहारों का गुस्सा बढ़ा, तो दलितों और पिछड़ों के बीच नक्सलियों के प्रति सहानुभूति भी देखने को मिली। लालू यादव की सरकार पर आरोप लगे कि उन्होंने नक्सलियों पर सख्ती करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्योंकि वह अपने वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहते थे। चार अभियुक्तों की फांसी बाद में राष्ट्रपति द्वारा उम्रकैद में बदल दी गई। 15 साल बाद मुख्य आरोपी गिरफ्तार हुआ। मामला इतना लंबा खिंचा कि पीड़ित परिवारों की उम्मीदें भी धीरे-धीरे दम तोड़ती चली गईं।
नरसंहार का स्मारक और गांव की तन्हाई
आज बारा गांव में उस भयावह रात की याद में एक स्मारक है। शिलापट्ट पर उन 40 लोगों के नाम दर्ज हैं, जो जातीय राजनीति की बलि चढ़ गए। वह शिलापट्ट हर गुजरते वक्त के साथ इंसाफ का एक अधूरा सवाल बनकर खड़ा है। गांव में आज भी जब रात होती है तो बुजुर्गों की आंखों में वह रात तैर जाती है। जवान पीढ़ी इस त्रासदी को सुनकर बड़ी हुई है। लेकिन सवाल वहीं का वहीं है क्या बिहार को उसका इंसाफ मिला?
लालू युग की काली सच्चाई
बारा नरसंहार सिर्फ एक गांव की घटना नहीं थी, बल्कि वह लालू यादव के दौर की उस काली सच्चाई का आईना था जिसमें बिहार जातीय हिंसा का गढ़ बन चुका था। 1990 के दशक में एक के बाद एक नरसंहार — लक्ष्मणपुर बाथे, शंकर बिगहा, बथानी टोला... ये सिर्फ नाम नहीं, बल्कि उस दौर की चीखें थीं। लालू यादव के ‘सोशल जस्टिस’ के नारे तले कानून व्यवस्था की लाशें बिछती गईं। पुलिस या तो वोट बैंक के गणित में उलझी रही या फिर आंख मूंद कर बैठ गई। जातीय सेना बनती रहीं, नक्सलवाद फलता-फूलता रहा, और बिहार बदनाम होता रहा। बारा नरसंहार इस पूरे दौर की सबसे वीभत्स तस्वीर थी। और आज, जब हम 2025 में बैठकर उस घटना को याद करते हैं, तो यह सवाल अब भी गूंजता है — क्या बिहार ने उस दौर से सबक लिया? क्या राजनीति कभी इंसाफ से बड़ी हो सकती है?