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17 साल पहले रोक सकते थे कोरोना, बड़ी लापरवाही से दुनिया हुई तबाह
सवाल उठता है कि जिस कोरोना फैमिली के वायरस के बारे में वैज्ञानिको को पहले से जानकारी थी, उस पुराने वायरस की वैक्सीन क्यों नहीं बन सकी?
लखनऊ: कोरोना वायरस से निपटने के लिए लगभग 40 देशों के सैकड़ों वैज्ञानिक कोविड -19 की वैक्सीन तैयार करने में जुटे हुए हैं। अभी तक किसी भी देश को कारगर वैक्सीन बनाने में सफलता नहीं मिली है, हालाँकि कई देशों में वैक्सीन का ह्यूमन ट्रायल शुरू हो चुका है। इन सब के बीच एक तरह की खबरे भी है कि सालों पहले ही एक वायरस का पता चल चुका था, लेकिन तब भी अब तक इसके इलाज को लेकर एक भी वैक्सीन नहीं बन पाई।ऐसे में सवाल उठता है कि जिस कोरोना फैमिली के वायरस के बारे में वैज्ञानिको को पहले से जानकारी थी, उस पुराने वायरस की वैक्सीन क्यों नहीं बन सकी?
कोरोना फैमिली के एक वायरस SARS-CoV-1 ने 2003 में किया था अटैक
दरअसल, कोरोना के ही एक वायरस से साल 2003 में सार्स महामारी फैली थी। इस वायरस का नाम था SARS-CoV-1। उस समय भी पहला मामला चीन में ही सामने आया था। जानकारी के मुताबिक, सार्स वायरस की चपेट में आकर कम से कम 774 लोगों की मौत हुई थी, वहीं 8 हजार से अधिक संक्रमित हो गए थे। ये ताज्जुब की बात है कि आज 17 साल बाद भी SARS-CoV-1 के लिए कोई वैक्सीन तैयार नहीं की जा सकी।
सार्स की वैक्सीन का नहीं हो सका कोई प्रोजेक्ट पूरा
वैज्ञानिकों ने तब भी सार्स वायरस के लिए वैक्सीन बनाने का काम शुरू किया। शोध किये गए लेकिन कोई भी प्रोजेक्ट या स्टडी अपने अंजाम तक नहीं पहुंचा।
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आर्थिक मदद के अभाव में नहीं हो सका शोध
इस बारे में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वेगलोस कॉलेज ऑफ फिजिशियंस एंड सर्जन्स में माइक्रोबायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी के प्रोफेसर विंसेंट रकानिएलो ने बताया कि साल 2003 में ही सार्स महामारी थम गई, इसलिए ज्यादातर कंपनियों ने कहा कि वे इस वायरस की वैक्सीन बनाना नहीं चाहते, क्योंकि इसका मार्केट नहीं है। हालाँकि कुछ यूनिवर्सिटीज में इसे लेकर प्रयोग किये गए और सार्स की वैक्सीन तैयार करने का प्रयास किया लेकिन आर्थिक सहयोग के अभाव में प्रोजेक्ट अपने अंजाम तक नहीं पहुंचे।
17 सालों में नहीं बन सकी कोरोना की वैक्सीन
उन्होंने बताया कि उस समय ही अगर चमगादड़ों में मिलने वाले कोरोना वायरस की वैक्सीन को तैयार कर ली जाती तो कोरोना फैमेली के अन्य वायरसों से भी बचा जा सकता था। लेकिन कंपनियों और सरकारों ने तब इसमें रूचि नहीं दिखाई और आर्थिक मदद न मिलने से रिसर्च अधूरा रह गया। इतना ही नहीं अमेरिका की प्रमुख स्वास्थ्य संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के पास भी सीमित बजट था, ऐसे में वे भी इस तरह के मौलिक रिसर्च की मदद करना नहीं चाहता था।
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