‘भीख नहीं, हिस्सेदारी..’, कुर्मी रैली में नीतीश का वो भाषण जिसने उनके और लालू के बीच ला दी थी बड़ी खाईं

12 फरवरी 1994 को पटना के गांधी मैदान में आयोजित कुर्मी चेतना रैली ने बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव लाया। इस रैली ने नीतीश कुमार को एक मजबूत नेता के रूप में प्रस्तुत किया और लालू यादव के साथ उनके राजनीतिक मतभेदों को उजागर किया। ओबीसी अधिकारों की बात करते हुए, नीतीश ने बिहार में नए राजनीतिक समीकरणों की शुरुआत की।

Shivam Srivastava
Published on: 14 Oct 2025 4:10 PM IST (Updated on: 14 Oct 2025 4:10 PM IST)
‘भीख नहीं, हिस्सेदारी..’,  कुर्मी रैली में नीतीश का वो भाषण जिसने उनके और लालू के बीच ला दी थी बड़ी खाईं
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12 फरवरी 1994 को पटना के गांधी मैदान में आयोजित कुर्मी चेतना रैली बिहार की राजनीति में एक ऐतिहासिक और निर्णायक मोड़ साबित हुई। इस रैली ने राज्य के राजनीति के तापमान को बदल दिया और बिहार के दो प्रमुख नेताओं लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के बीच के राजनीतिक संबंधों को हमेशा के लिए प्रभावित किया। रैली का मंच एक ऐसा स्थान बन गया, जहां नीतीश कुमार ने अपनी आवाज बुलंद की और 'भीख नहीं, हिस्सेदारी चाहिए' जैसे शक्तिशाली शब्दों के साथ न केवल कुर्मी समुदाय, बल्कि राज्य के समग्र पिछड़ी जातियों के अधिकारों की वकालत की।

यह घटना केवल एक रैली का आयोजन नहीं थी, बल्कि इसने नीतीश कुमार को एक नए राजनीतिक रूप में प्रस्तुत किया और उनके नेतृत्व में बिहार में एक नए संघर्ष की शुरुआत की। कुर्मी चेतना रैली ने उस समय की राजनीतिक परिपाटी को चुनौती दी, जहां एक ओर लालू प्रसाद यादव यादवों के वोट बैंक को मजबूत करने में जुटे थे, वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार ने ओबीसी के अन्य समुदायों के अधिकारों की बात की। इस रैली ने साफ कर दिया कि बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में अब एक नया समीकरण बन रहा था, जहां नीतीश कुमार अपनी पहचान एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित कर रहे थे, जो जातिवाद से परे, राज्य के सभी पिछड़ी जातियों के लिए आवाज उठाने का दम रखते थे।

कुर्मी चेतना रैली की यह ऐतिहासिक घटना न सिर्फ एक बड़ी राजनीतिक उठान का प्रतीक बनी, बल्कि यह इस बात का भी संकेत थी कि अब बिहार में राजनीति के पुराने चेहरे और समीकरण बदलने वाले थे।

रैली के आयोजक सतीश कुमार सिंह थे, जिन्होंने पूरे बिहार में कुर्मी समुदाय को लामबंद किया था। यह रैली मुख्य रूप से ओबीसी आरक्षण में 'कोटा विदिन कोटा' (Quota within Quota) के सिद्धांत को लागू करने की मांग के लिए आयोजित की गई थी। कुर्मी समुदाय, जो इस समय यादवों के बढ़ते प्रभाव से परेशान था, चाहता था कि ओबीसी में उनके लिए भी एक विशिष्ट कोटा दिया जाए। इस रैली ने नीतीश कुमार को एक नए राजनीतिक रूप में प्रस्तुत किया और लालू यादव के खिलाफ एक मजबूत विकल्प के रूप में उभारा।

रैली के दिन नीतीश कुमार को एक दुविधा का सामना करना पड़ा। वह पहले से ही लालू यादव के नेतृत्व वाली जनता दल में एक अहम स्थान रखते थे, लेकिन लालू के यादवों के पक्ष में लगातार फैसले लेने और अन्य ओबीसी समुदायों के हक की अनदेखी करने के कारण उनका मन धीरे-धीरे असंतुष्ट हो चुका था। नीतीश के लिए यह कठिन समय था, क्योंकि अगर वह सरकार का समर्थन करते, तो उन्हें जनता के विरोध का सामना करना पड़ता, और यदि उन्होंने सरकार के खिलाफ बोलने का निर्णय लिया, तो उनका राजनीतिक भविष्य संकट में पड़ सकता था।

हालांकि, उनके मित्र विजय कृष्ण ने उन्हें मोटिवेट किया और रैली में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। जैसे-जैसे रैली में भीड़ बढ़ी, नीतीश कुमार ने मंच पर आने का फैसला किया। पहले तो वह सरकार का पक्ष लेने का प्रयास करते हैं, लेकिन जब उनकी बातों पर भीड़ का प्रतिरोध बढ़ने लगा, तो उन्होंने अपना रुख बदल लिया और जोर से कहा, "भीख नहीं, हिस्सेदारी चाहिए।" इस शब्दों ने न केवल उस दिन की रैली का माहौल बदल दिया, बल्कि यह नीतीश कुमार के लिए एक नए राजनीतिक युग की शुरुआत थी। उन्होंने न केवल ओबीसी आरक्षण को लेकर सरकार की नीतियों की आलोचना की, बल्कि बिहार की खराब कानून व्यवस्था और प्रशासन के मुद्दे पर भी सवाल उठाए। इस भाषण ने उन्हें कुर्मी समुदाय का नायक बना दिया और उनकी पहचान एक महत्वपूर्ण नेता के रूप में स्थापित कर दी।

इस घटना के बाद, नीतीश कुमार के मन में अब जनता दल के भीतर अपनी स्थिति को लेकर गंभीर संदेह और असंतोष था। वह महसूस करने लगे थे कि पार्टी में उनका महत्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा था और लालू यादव के व्यक्तिगत प्रभाव से उनकी भूमिका सीमित होती जा रही थी। इसके बाद, नीतीश ने पार्टी छोड़ने का निर्णय लिया। अप्रैल 1994 में, उन्होंने दिल्ली में आयोजित जनता दल के संसदीय बोर्ड की बैठक में लालू यादव के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बयान दिया। जब जॉर्ज फर्नांडिस ने उन्हें समझौते का प्रस्ताव दिया, तो नीतीश कुमार ने इसे ठुकरा दिया। इसके बाद, जॉर्ज फर्नांडिस ने अपने 12 सांसदों के साथ जनता दल जॉर्ज नाम से एक नई पार्टी का गठन किया, और कुछ ही महीनों में इसे समता पार्टी में बदल दिया।

समता पार्टी का गठन बिहार में नई राजनीतिक संभावनाओं को जन्म देने वाला था। लालू यादव के खिलाफ नीतीश कुमार के नेतृत्व में यह पार्टी ओबीसी राजनीति में एक महत्वपूर्ण ताकत बन गई। हालांकि, बिहार में लालू यादव की लोकप्रियता और उनका एमवाई समीकरण (मुसलमान और यादव) मजबूत था, फिर भी समता पार्टी ने कुर्मी और कोयरी जैसे अन्य ओबीसी समुदायों को अपनी ओर आकर्षित किया। यही कारण था कि 1995 के विधानसभा चुनावों में लालू यादव को बड़ी जीत मिली, लेकिन वह ओबीसी में गैर-यादव वोट, खासकर कुर्मी और कोयरी समुदायों, को खो बैठे थे। यह वोट अब नीतीश कुमार की ओर शिफ्ट हो गया था, जो भविष्य में राज्य की राजनीति में बड़े बदलावों का संकेत था।

नीतीश कुमार को बिहार में सत्ता पाने के लिए और लंबा इंतजार करना पड़ा। उन्हें 2005 में मुख्यमंत्री बनने तक कई चुनावों में हार का सामना करना पड़ा। लेकिन एक रणनीतिक नेता के रूप में नीतीश कुमार ने समय के साथ खुद को स्थापित किया और ओबीसी आरक्षण में अपनी मांग "कोटा विदिन कोटा" को लागू किया। उन्होंने अति पिछड़ों के लिए सबकोटा और दलितों के लिए महादलित सबकोटा लागू किया, जो कि बिहार की राजनीति में एक ऐतिहासिक कदम था। इस तरह से नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक यात्रा को एक नए मुकाम तक पहुंचाया।

इस तरह से कुर्मी चेतना रैली ने न केवल नीतीश कुमार को एक विकल्प के रूप में स्थापित किया, बल्कि यह बिहार की राजनीति में एक नई धारा की शुरुआत भी थी। इसने साबित कर दिया कि जाति की राजनीति में बदलाव की जरूरत थी, और नीतीश कुमार ने उस बदलाव की भूमिका निभाई।

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