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मेजर आदित्य के खिलाफ प्राथमिकी पर 30 जुलाई को अंतिम सुनवाई
नई दिल्ली : जम्मू एवं कश्मीर सरकार ने सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि मेजर आदित्य कुमार से जुड़े शोपियां मामले में जांच न्यायसंगत है और उनके पिता प्राथमिकी के खिलाफ याचिका दाखिल नहीं कर सकते। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए.एम.खानविलकर व न्यायमूर्ति डी.वाई.चंद्रचूड़ की खंडपीठ ने कहा कि वह मामले में अंतिम बहस पर 30 जुलाई को सुनवाई करेगी।
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लेफ्टिनेंट कर्नल कर्मवीर सिंह सेवारत अधिकारी व मेजर आदित्य कुमार के पिता है। कर्मवीर सिंह ने प्राथमिकी को रद्द करने की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया है। इसी मुद्दे पर एक जनहित याचिका भी दाखिल की गई है।
जम्मू एवं कश्मीर के तरफ से पेश होते वकील ने याचिका का विरोध किया। वकील ने कहा कि पिता इस संदर्भ में याचिका नहीं दाखिल कर सकते है और आपराधिक मामलों में जनहित याचिका नहीं दाखिल की जा सकती है।
वकील ने कहा कि मेजर के पिता के पास अदालत में याचिका दाखिल करने के लिए कोई बिंदु नहीं है। उन्होंने कहा, "आइए इस मामले पर बहस करें। मैं कानून के उस बिंदु पर बहस करने के लिए तैयार हूं कि क्या सशस्त्र बलों को पूरी तरह से प्रतिरक्षा है।"
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वकील ने कहा, "राज्य को जांच की(मेजर आदित्य के खिलाफ मामले)शक्ति प्राप्त है..एक बार प्राथमिकी दर्ज होने पर पुलिस को जांच से कैसे रोका जा सकता है।"
वकील ने कहा कि जांच पर अनिश्चित समय तक रोक नहीं रह सकती।
शोपियां जिले में पथराव करने वाली भीड़ को सेना द्वारा तितर-बितर करने के दौरान तीन लोगों की मौत के बाद प्राथमिकी दर्ज होने के बाद शीर्ष अदालत ने पुलिस को 5 मार्च को मामले में जांच करने से रोक दिया था।
सुनवाई के दौरान जम्मू एवं कश्मीर सरकार चाहती है कि सभी राज्य जिनमें अफस्पा लागू है, उन्हें मामले में एक पार्टी बनाया जाए। इसे खंडपीठ ने ठुकरा दिया।
असम, नगालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय में अफस्पा कानून लागू है।
केंद्र सरकार ने इससे पहले तर्क दिया था कि सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम (अफस्पा) के धारा 7 के तहत राज्य सरकार कि तंग इलाके में सेवा दे रहे सेनाकर्मियों के महज शिकायत पर मामला नहीं दर्ज कर सकती है। इसके लिए केंद्र की अनुमति लेना जरूरी है।
अपने हलफनामे में जम्मू एवं कश्मीर सरकार ने जांच को रोकने के फैसल का विरोध किया और कहा था कि अगर जांच सं™ोय अपराधों में नहीं की गई तो यह पीड़ितों के अधिकारों के संभावित उल्लंघन के अलावा, संवैधानिक प्रावधानों का गंभीर उल्लंघन होगा।
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