पैतृक गांव ‘चकिया’ में संजोई जाएगी केदारनाथ सिंह की स्मृतियां

Charu Khare
Published on: 20 March 2018 6:07 PM IST
पैतृक गांव ‘चकिया’ में संजोई जाएगी केदारनाथ सिंह की स्मृतियां
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बलिया: हिंदी साहित्य का सूर्य, जिसने समकालीन कविताओं और आलोचनाओं को एक नया आयाम दिया, वह सोमवार को दिल्ली में अस्त हो गया। जी हां। हम बात कर रहे हैं, हिंदी जगत के पराकाष्ठ कवि डॉ. केदारनाथ सिंह की, जिनका जाना सभी की आँखों को नाम कर गया।

एक ओर जहां केदारनाथ के यूं चले जाने से पूरा देश शोकागुल है तो, वहीँ दूसरी ओर इनके पैतृक गांव बलिया में सब चकित। केदारनाथ सिंह न सिर्फ साहित्य जगत की बल्कि अपने गाँव की भी प्रतिष्ठा का प्रतीक हुआ करते थे। शायद यही वजह है कि, अब यहाँ के जिलाधिकारी भवानी सिंह खगारौत ने उनकी मौत को अपूरणीय क्षति बताते हुए कहा कि, बेशक ही जिला प्रशासन डॉ केदारनाथ सिंह की स्मृतियों को सहेजकर उसे अक्षुण्य बनाने की पहल करेगा।

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित केदारनाथ सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के बैरिया तहसील के चकिया गांव में हुआ था। कल देर शाम जब डॉ सिंह की मौत की खबर समाचार माध्यमों से गांववालों तक पहुंची, तब पूरा गाँव सोने की तैयारी कर रहा था, लेकिन उनकी मौत की खबर ने मानो जैसे सबकी नींद उड़ा दी।

गांववालों की रात जैसे-तैसे बीती, लेकिन सुबह होते ही पूरा गाँव उनकी बातों को याद करते हुए किस्से-कहानियां सुनाने लगा। इन्हीं में एक पच्चीस वर्षीय रमाशंकर तिवारी जोंकि उनके बचपन के मित्र है वह बताते हैं कि, डॉक्टर केदारनाथ सिंह को गांव से गहरा लगाव था। वे अक्सर गांव आते थे। उन्होंने गांव की बेनाम नदी को, अपने गाँव आने को, गांव की भैंस को, सूखी धरती पर चोंच मारते सारस को,अपनी कविताओं मे पिरोकर उन्हे राष्ट्रीय ख्याति दिलाई ।

वे बताते है कि जब केदारनाथ सिंह ने कविता लिखना शुरू किया तब माझी का पुल काफी मशहूर था।केदारनाथ ने माझी के पुल को अपनी कविता के धागे मे पिरोया।तिवारी जी कहते हैं कि जिस माझी ने 'माझी के पुल' को अपनी कविता की नाव मे सवार कर सात समुदंर पार पहुंचाया आज वही माझी अपनी नाव लेकर दुनिया के पार चला गया।

तिवारी जी ने बताया कि केदारनाथ सिंह ने एक बार बताया था कि माझी का पुल उनकी ऐसी कविता है जो दुनिया की सबसे अधिक भाषाओं मे अनुवाद की गयी है। इससे जुड़ी एक घटना वह और बताते थे। एक जर्मन शोध छात्रा ने उनकी कविता माझी का पुल को जर्मन भाषा मे अनुवाद के लिए चुना था। उन्होंने उससे पूछा था कि अनुवाद के लिए उसने 'माझी का पुल 'कविता का ही चुनाव क्यों किया? जर्मन शोध छात्रा का जबाब था कि माझी का पुल कविता की गहराई ज्यादा है, इसलिए उसने इसका चुनाव किया। गांव मे डाक्टर केदारनाथ सिंह जब भी आते थे अपने साथ के लोगो से हंसी-मजाक बहुत करते थे।

उनके भतीजे शैलेश सिंह बताते हैं कि वह जब भी गांव आते थे कहते थे कि गांव आने पर उनका बचपन याद आता है।इसीलिए वह जब भी बनारस या आस-पास आते है गांव उन्हे अपनी ओर खींच लाता है ।

शैलेश कहते है कि जब तक गांव की नदी, गांव की भैंस, माझी का पुल रहेगा डॉक्टर केदारनाथ सिंह अपनी कविता 'गांव आने पर' की छांव मे बैठे अपने गांव मे नजर आते रहेंगे, नजर आते रहेंगे । साहित्यकार केदारनाथ सिंह के भतीजे शैलेश कुमार सिंह बताते है कि चाचा जी अंतिम बार अभी पिछले 20 नवम्बर को गांव आये थे और 28 नवम्बर तक गांव में ही रहे। वे वर्ष में दो से तीन बार गांव आते थे। जनवरी में जब दिल्ली में ज्यादा ठंड पड़ती थी , उस समय वे अपनी बेटी के पास कोलकता चले जाते थे।

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