खरीदकर जालौन आती बहुएं, 16 साल बाद भी मौजूं है आउटलुक की ये रिपोर्ट

मैं जस का तस अपने नये पाठकों को पुनर्पाठ के लिए परोस रहा हूं। हालांकि हो सकता है उस गांव में सब कुछ बदल गया हो। इसी उम्मीद से मैंने खबर भी की थी। जल्द ही एक बार उस गांव में पत्रकार बनकर जाने की कोशिश करूंगा। इस खबर का श्रेय निराला त्रिपाठी और संजय सिंह को जाता है।

राम केवी
Published on: 8 March 2020 9:40 PM IST
खरीदकर जालौन आती बहुएं, 16 साल बाद भी मौजूं है आउटलुक की ये रिपोर्ट
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आज सुबह आउटलुक के दिनों के मेरे सहयात्री और छायाकार निराला त्रिपाठी का फोन आया। बात तो उन्होंने महिला दिवस से शुरू की। फिर वह मेरी सोलह साल पुरानी रिपोर्ट खरीदकर जालौन आती बहुएं पर आकर ठिठक गए। काफी बात हुई। उन्होंने आज इस रिपोर्ट को फिर प्रकाशित करने का आदेश दिया है। उनका हर आग्रह मेरे लिए आदेश है। यह रिपोर्ट आज इसलिए भी जरूरी लगती है, क्योंकि अमूमन कई बार हम पत्रकारों को किसी खबर को कवर करने के लिए उस खबर या घटना पर जाना होता है। कुछ सूत्र तलाशने होते हैं। अगर घटना, खबर विपरीत परिस्थितियों वाली न हो तो काम कुछ सुगम हो जाता है। घटना स्थल पर लोगों और चश्मदीद से बात करने पर खबर की तह में पहुंचना थोड़ा आसान हो जाता है। बुंदेलखंड हरदम से वहां फैली गरीबी, डकैत, पानी जैसी कई सामाजिक समस्याओं से देश, दुनिया के अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में सुर्खियां बटोरता रहा है। आउटलुक साप्ताहिक में आने के बाद बुंदेलखंड से मेरा कुछ खास ही लगाव हो गया। वजह वहां परमार्थ नाम से स्वयंसेवी संगठन चलाने वाले संजय सिंह रहे। मैं आमतौर पर स्वयंसेवी संगठनों को अच्छा नहीं मानता रहा हूं। वजह बेवजह नहीं है। कई तथ्य और प्रमाण हैं। पर संजय ने मेरे इस मिथ को तोड़ा। उन्होंने बुंदेलखंड पर कई खबरें करने का मौका दिया। जून-जुलाई, २००४ के आस-पास एक ऐसी सामाजिक समस्या की खबर हाथ लगी, जिसका विवरण नीचे है। इस खबर को करना थोड़ा चुनौतीपूर्ण था। हालांकि संजय के पास खबर को लिखे जाने तक के लिए सारे दस्तावेज और लोगों के बयान थे। पर एक पत्रकार होने के नाते मेरे लिए गांव में खबर करने के लिए जाना जरूरी था। मैं बतौर पत्रकार नहीं जा सकता था। नतीजतन, मैंने पहचान छिपाई। मैं स्वयंसेवी संगठन का सदस्य बनकर गया। पता नहीं मैंने कोई गलती की या नहीं। उस खबर को, उस समय की खबर को, मैं जस का तस अपने नये पाठकों को पुनर्पाठ के लिए परोस रहा हूं। हालांकि हो सकता है उस गांव में सब कुछ बदल गया हो। इसी उम्मीद से मैंने खबर भी की थी। जल्द ही एक बार उस गांव में पत्रकार बनकर जाने की कोशिश करूंगा। इस खबर का श्रेय निराला त्रिपाठी और संजय सिंह को जाता है।

खरीदकर जालौन आती बहुएं

योगेश मिश्र

अपनी जेब में पैसे लेकर नागपुर पहुंचने वाले कारोबारियों का आना-जाना बरसों से होता रहा है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि दो साल पहले तक ऐसे सभी कारोबारियों की नजर मशहूर संतरों पर होती थी, जिन्हें वे देश के दूसरे हिस्सों में ले जाया करते थे। जबकि आजकल इन कारोबारियों में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की भी है जिनकी दिलचस्पी संतरों में नहीं, नागपुर की लड़कियों में है। इन्हें वे मात्र पांच-दस हजार रुपये के खर्च पर बहू बनाकर भेज देते हैं। पिछले पांच सालों से उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के लिए नागपुर देश की सबसे बड़ी दुल्हन मंडी में तब्दील हो गया है।

जालौन जिले के बिनौरा, रिनिया, कुकरगांव, मंगराया, झरैला, गिद्ध की खोह, पचोखरा, हनुमंतपुरा, मिर्जापुर, टोहर, उमरी, जगम्मनपुर, धरमपुरा और खरैला सहित तकरीबन पचास ऐसे गांव हैं, जहां के बीस हजार से अधिक घर नागपुर और आस-पास के इलाकों से लाई गई दुल्हनों से गुलजार हो रहे हैं। जिले में खरीदकर दुल्हन लाने का चलन आज से दस साल पहले शुरू हुआ था। उस समय बिहार के दुमका इलाके से एक लडक़ी को लाकर दलित समुदाय के एक आदमी ने अपनी घरवाली बना लिया था। लेकिन आस-पास के इलाके में इसका विरोध इस कदर हुआ कि उस दौरान इस तरह के मामले और नहीं हुए। हालांकि पिछले चार-पांच सालों से इस तरह की शादी करने की हिम्मत दिखाने वाले तमाम युवा और अधेड़ सामने आने लगे हैं।

दिलचस्प यह है कि खरीदी हुई लड़कियों से विवाह करने का हौसला पैदा कराने में कई बिचौलिये लगे हुए हैं। ये उन लोगों को लक्ष्य बनाते हैं, जिनकी पहली पत्नी किसी कारण मर गई हो अथवा जिसका विवाह संभव नहीं हो पा रहा है। इन स्थितियों में विवाह के ख्वाहिशमंद लोगों की मुश्किलों को कुछ धन लेकर आसान बना देने वाले ये बिचौलिये लोगों को बाकायदा नागपुर अपने साथ ले जाते हैं। वहां ब्याह की रस्मों के साथ जीवनभर साथ निभाने के वादे के बीच जीवन संगीनी को विदा कर भेज दिया जाता है।

पांच वर्ष पहले जालौन जिले के रामपुरा गांव में इस तरह का पहला वाकया तब प्रकाश में आया जब विकलांग टिंकू को नागपुर ले जाकर बिचौलियों ने विवाह करा दिया। बिचौलियों ने उसे बताया कि वह केवल पांच हजार रुपये की व्यवस्था कर ले तो उसे मन पसंद दुल्हन मिल सकती है। टिंकू ने ले देकर पैसों का बंदोबस्त किया और बिचौलियों के साथ नागपुर जाकर २४ साल की लडक़ी को अपनी पत्नी बनाने में कामयाब हो गया। टिंकू अब एक बच्चे का पिता है। टिंकू की खुशियों ने कई और लोगों को अपना घर बसाने के लिए इन बिचौलियों की शरण में जाने को मजबूर किया। जिले की बीहड़ पट्टी के ज्यादातर गांव में लोगों के घर इन नागपुरी कन्याओं ने ही बसाए हैं।

जालौन का नाम सूबे के उन जिलों में शुमार है, जहां स्त्री-पुरुष अनुपात काफी कम है। जहां उत्तर प्रदेश में स्त्री-पुरुष अनुपात प्रति हजार ८८२ है, वहीं जालौन जनपद में यह केवल ८४२ है। लेकिन बीहड़ के इलाकों के आंकड़े बताते है कि इस इलाके में यह आंकड़ा ७६९ है, इसीलिए शादी के लिए लड़कियों का अभाव हो गया है। इस इलाके में गरीबी और भुखमरी इस कदर पसरी हुई है कि लोग अपनी बेटियों की शादी यहां करके उन्हें इस विभीषिका में झोकने को तैयार नहीं हैं। इसके साथ ही साथ, बीहड़ के आस-पास के गांव में डाकुओं का भय भी उन्हें यहां बेटी ब्याहने से रोकता है।

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जिला मुख्यालय से केवल ९ किमी दूर स्थित मिनौरा गांव के रमेश चंद्र राठौर ने आउटलुक साप्ताहिक को बताया, ‘‘यहां शादी करें तो सोने के जेवर ले जाने पड़ते हैं। नागपुर में तो सब चांदी का जेवर चढ़ाकर बहुरिया ले आते हैं।’’ मजदूरी करके परिवार चलाने वाले रमेश को गाहे-ब-गाहे अपने ससुराल वालों का खर्च भी उठाना पड़ता है। अपनी शादी के लिए पांच हजार रुपये बिचौलिये को देने और शादी का खर्च उठाने के लिए राठौर ने गांव के साहूकार से रुपये उधार लिए थे। इसकी भरपाई उसने मजदूरी करके की। इसी गांव के कुन्नू के चार बेटे हैं। तीन के नाम नंदू साहू, रमेश चंद्र और कमलेश हैं। इन सबका विवाह नागपुर में ही हुआ है। नंदू साहू ने बताया, ‘‘वीरेन नाम का बिचौलिया उसे नागपुर ले गया। उसे तो कुछ मिला नहीं, उल्टे उसे ही ससुराल में खर्च करना पड़ा।’’ नंदू की पत्नी वीनिता बताती हैं, ‘‘पिता मजदूरी करते हैं। वीरेन ने ही लडक़े के बारे में बताया था।’’ वीरेन का विवाह खुद भी नागपुर में हुआ है। उसने अपने छोटे भाई पप्पू का विवाह भी उधर ही करवाया है। रतन सिंह कुशवाहा के पास पैसे कुछ कम थे, लिहाजा उसे बिचौलिया नासिक से काफी दूर वर्धा ले गया। जहां वंदना से उसकी शादी हुई। रतन के मुताबिक, ‘‘जब भी ससुराल जाता हूं, तब कुछ न कुछ खर्च करना ही पड़ता है। छोटी साली की शादी है, तीन हजार रुपये देना पड़ा है।’’ मानसिंह कुशवाहा अभी एक हफ्ते पहले नागपुर से पत्नी ब्याह कर लाया है। वह बताता है कि इसमें दस हजार रुपये खर्च हो जाते हैं। पैसे की कमी के चलते मानसिंह शादी में अपने पिता को नहीं ले जा सका था।

मध्य प्रदेश के बैतूल इलाके से पैसा देकर जालौन के बड़ा गांव में विवाह कर लाई गई कोरी जाति के किशन लाल की पत्नी कांती कहती है, ‘‘वहां इतनी गरीबी है कि आदमी-औरत दोनों काम करते हैं। लेकिन यहां मुझे खेतों में काम नहीं करना पड़ता। मेरे पति पीडब्ल्यूडी में कच्ची नौकरी पर हैं। मैं बहुत सुखी हूं।’’ बड़ा गांव के ही रोकश और राजन अहिरवार भी अपनी पत्नी नागपुर से ले आये हैं। बेबी और गिरिजा की गरीबी ने इन्हें दलित से शादी करने को मजबूर किया। बेबी तेली जाति की हैं। गिरिजा खुद को लोहार जाति की बताती है। गिरिजा ने बातचीत में कहा, ‘‘वहां हमारी सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी।’’ मंगरावां गांव के रामदास यादव की बीवी पिछले साल गुजर गई थी। और डेढ़ माह पहले वह नागपुर से अपने लिए नई नवेली जीवन संगिनी माधुरी को ले आया है। विवाह के इस नये चलन ने भले ही कई लोगों को खुशियों का मौका मयस्सर करा दिया हो, लेकिन कई लोग नई नवेली दुल्हन के सपनों के चलते ठगे भी गये हैं। पिछले साल जगम्मनपुर का एक व्यक्ति जब नागपुर से अपनी नई नवेली दुल्हन को विदा कराकर अपने गांव पहुंचा तो दुल्हन पचास साल की बुढिय़ा निकली। इसी तरह रामपुर में एक दुल्हन शादी के चार दिन बाद ही घर का सारा सामान लेकर रफूचक्कर हो गई। इन दिक्कतों के अलावा सामाजिक मान्यता का सवाल अभी इस तरह के विवाह करने वालों के सामने यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा हुआ है।

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मिर्जापुर गांव के रामकुमार बुधौलिया और सुनील बुधौलिया इसी सवाल को हल करने में पिछले छह साल से लगे हुए हैं। लेकिन हर बार सामाजिक मान्यता की गुत्थी सुलझने की जगह और उलझती जा रही है। रामकुमार और उनके भाई ने नागपुर जाकर विवाह किया। रामकुमार की पत्नी केशकांती है और उसकी सगी बहन रमा का विवाह सुनील से हुआ है। बुधौलिया ब्राह्मïण माने जाते हैं और उनका कहना है कि उनकी पत्नियां भी उपाध्याय हैं। लेकिन गांव वाले मानने को तैयार नहीं हैं। शादियों को सामाजिक मान्यता देने के लिए इस इलाके में बहुभोज का चलन है। जब तक यह नहीं होता है तब तक दूल्हा-दुल्हन को मिलने नहीं दिया जाता है। बुधौलिया बंधु काफी कोशिश कर रहे हैं कि बहुभोज हो जाए लेकिन गांव वालों ने बहिष्कार कर रखा है।

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मिर्जापुर से सटे अमरखेड़ा गांव में भाजपा के विधायक की बेटी की शादी थी। पंडितों ने यह फरमान जारी किया कि अगर बुधौलिया बंधु को बुलाया गया तो वह बहिष्कार करेंगे। नागपुर से खरीदकर लड़किया लाने के लिए सावन का महीना सबसे महत्वपूर्ण होता है। इस समय नागपुर और आस-पास के इलाके में बड़ा मेला लगता है। बिचौलिया वर पक्ष को लेकर वहां जाता है और वहां पर लडक़ी देख कर दोनों के हाथ पीले करा दिया जाता है। इन दिनों झरौला गांव के आठ लोग नागपुर गए हुए हैं। गांव के सामाजिक संरचना के ठेकेदारों के लिए भले ही इस तरह के विवाह चिंता का सबब हों लेकिन जिला प्रशासन इसे गलत नहीं मानता।

राम केवी

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