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Gandhi Jayanti 2025: सूट-बूट से धोती तक, जब ‘मोहनदास’ से ‘महात्मा’ बने गांधी
Gandhi Jayanti 2025: जानें कैसे सूट-बूट से धोती तक का सफर गांधी को ‘मोहनदास’ से ‘महात्मा’ बना गया और उनके पहनावे ने स्वराज का प्रतीक रचा।
Gandhi Jayanti 2025 (Image Credit-Social Media)
Gandhi Jayanti 2025: 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल'... गुलामी की जकड़न से सिर्फ अहिंसा के बलपर स्वराज के स्वप्न को हकीकत में बदलने वाले महात्मा गांधी का जीवन केवल राजनीति तक सीमित नहीं था, बल्कि उनकी पूरी जीवनशैली में एक गहरा संदेश छिपा था। वे जितने बड़े नेता थे, उतने ही बड़े विचारक और प्रयोगकर्ता भी। उन्होंने जो कहा, वही किया और जो जिया, वही देश के सामने रखा। यही वजह है कि आज भी जब हम उन्हें याद करते हैं, तो उनके आंदोलनों, विचारों और भाषणों से प्रेरित होने के साथ-साथ उनका पहनावा उनकी धोती, चश्मा, लाठी और खादी हमारे मन में स्वराज पर अभिमान करने की भावना जाग्रत कर जाता है। महान कवि मैथिलीशरण गुप्त ने उन्हें संबोधित करते हुए लिखा था कि,
'हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु, हे कोटि रूप, हे कोटि नाम!
तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि, हे कोटि मूर्ति, तुमको प्रणाम।'
इन पंक्तियों में गांधी को एक विराट स्वरूप के रूप में देखा गया है। इस विराट छवि के निर्माण में उनका पहनावा एक शक्तिशाली प्रतीक बनकर उभरा। सूट-बूट से लेकर केवल एक साधारण धोती तक का सफर वास्तव में गांधी के भीतर के उस बदलाव का परिचायक था, जिसने उन्हें मोहनदास से महात्मा बना दिया।
गुजराती सादगी से इंग्लैंड की चमक दमक तक
गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ। पारंपरिक गुजराती परिवार के होने के कारण उनका बचपन का पहनावा भी उसी परंपरा के अनुरूप था। सफेद पायजामा, काला कॉलर वाला कुर्ता और सिर पर टोपी। यह उस समय के साधारण बच्चों का सामान्य पहनावा था। लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े हुए और शिक्षा की तलाश में इंग्लैंड पहुंचे, उनका पहनावा भी बदल गया। इंग्लैंड पहुंचकर उन्होंने सूट, टाई, चमकदार जूते और टॉप हैट पहनना शुरू किया। अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में उन्होंने लिखा है कि उस समय वे कपड़ों को लेकर अत्यधिक सजग रहते थे और अंग्रेज़ी समाज में फिट होने की कोशिश करते थे। यह उनकी युवावस्था का वह दौर था, जब कपड़े उनके लिए एक सामाजिक पहचान और आत्मविश्वास का माध्यम थे।
दक्षिण अफ्रीका से हुई आत्मचेतना की शुरुआत
वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद गांधीजी दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। यहां वे वकीलों की तरह ही परिधान धारण करते थे। लेकिन यहीं से उनके भीतर आत्मचेतना की शुरुआत हुई। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे दमन और अपमान ने उन्हें गहराई से झकझोर दिया। उन्हें महसूस हुआ कि पश्चिमी परिधान पहन लेने से उनकी जनता की समस्याएं दूर नहीं होंगी। कपड़े केवल सजावट नहीं हैं, वे एक संदेश हैं। इसीलिए उन्होंने साधारण पहनावे की ओर रुख किया और विदेशी कपड़ों का त्याग करना शुरू कर दिया। यह गांधीजी के जीवन का पहला बड़ा मोड़ था, जिसने आगे चलकर उनके वेशभूषा और जीवनशैली को पूरी तरह से बदल दिया।
चंपारण का सत्याग्रह और एक गरीब महिला की सच्चाई
1917 में चंपारण सत्याग्रह ने गांधीजी के जीवन को निर्णायक रूप से बदल दिया। यह केवल एक आंदोलन नहीं था, बल्कि उनके पहनावे के परिवर्तन की ठोस पृष्ठभूमि भी बना। गौनाहा प्रखंड के भितिहरवा गांव में उन्होंने आश्रम और विद्यालय की स्थापना की। उनकी अनुपस्थिति में कस्तूरबा गांधी गांव-गांव जाकर महिलाओं को स्वच्छता और आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाती थीं।
इसी दौरान एक गरीब महिला से कस्तूरबा की मुलाक़ात हुई, जिसके पास केवल एक मैली और फटी साड़ी थी। जब कस्तूरबा ने उससे साफ-सफाई की बात की तो महिला ने कहा कि 'मेरे पास दूसरी साड़ी ही नहीं है, मैं क्या बदलूं?'
जब कस्तूरबा ने यह बात गांधीजी को बताई, तो वे अवाक रह गए। उन्होंने तुरंत कहा कि 'मेरी धोती उस महिला को दे दो।' उस क्षण ने उनके भीतर यह भाव गहराई से जगा दिया कि जब जनता आधे-अधूरे कपड़ों में जी रही है, तब वे कैसे भरे-पूरे वस्त्र पहन सकते हैं।
मदुरै का ऐतिहासिक दिन जब लिया धोती का संकल्प
22 सितंबर 1921 को गांधीजी ने मदुरै में सार्वजनिक रूप से अपना नया वेश अपनाया। उन्होंने नाई से सिर मुंडवाया और केवल एक साधारण धोती पहनना शुरू कर दिया। आधी धोती वे कमर में बांधते और आधी को कंधे पर ओढ़ लेते। उन्होंने स्पष्ट कहा कि 'स्वराज हमें अभी तक नहीं मिला है। यह मेरा शोक का प्रतीक है।' यह निर्णय स्वराज से जुड़े शोक का प्रतीकात्मक नहीं था, बल्कि वास्तविकता के प्रति उनकी संवेदनशीलता का भी प्रमाण था। उन्होंने जनता से कहा कि'अगर गरीब लोग खादी नहीं खरीद सकते, तो मैं भी अपनी ज़रूरतें घटाऊंगा और उन्हीं की तरह जीवन जिऊंगा।' यही वह क्षण था, जब गांधी का पहनावा जनता से गहरे जुड़ गया और वे अपने लोगों के बीच ‘महात्मा’ बनकर खड़े हुए।
अंग्रेज़ों के सामने साधारण गांधी
1931 का राउंड टेबल कॉन्फ़्रेंस गांधीजी के पहनावे से जुड़े इतिहास में एक अनोखी घटना है। जब वे लंदन पहुंचे, तो उन्होंने वही साधारण धोती पहन रखी थी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने उन्हें 'अर्धनंगा फ़कीर' कहकर तिरस्कार किया।
लेकिन गांधी के लिए यह कोई अपमान नहीं था। बल्कि यह उनकी रणनीति थी। भारतीयों को अंग्रेजी पोशाकों के साथ देखने के आदी हो चुके इंग्लैंड के लोगों ने पहली बार देखा कि भारत का एक नेता बिना पश्चिमी वस्त्रों के, मात्र साधारण धोती में उनके सम्राट जॉर्ज पंचम से मिलने आया है। यह दृश्य मनोवैज्ञानिक रूप से इतना प्रभावशाली था कि अंग्रेज़ नेताओं का आत्मविश्वास डगमगा गया।
खादी, गांधी टोपी बनी स्वदेशी अपनाओं का संदेश
गांधी का धोती पहनना केवल गरीबी का प्रतीक नहीं था। यह स्वदेशी और आत्मनिर्भरता का संदेश था। उन्होंने कहा कि 'चाहे कम कपड़ा पहनो, लेकिन स्वदेशी पहनो।' खादी के चरखे ने धीरे-धीरे स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक बना दिया। सफेद खादी की गांधी टोपी राष्ट्रीय गौरव और स्वराज्य की आकांक्षा का प्रतीक बन गई।
गांधी ने कभी-कभी सोला टोपी भी पहनी, जो धूप से बचाव का सस्ता और उपयोगी साधन था। लेकिन उनकी पहचान हमेशा खादी की धोती और गांधी टोपी से जुड़ी रही।
धोती और लंगोटी को लेकर गांधी जी की धार्मिक और सामाजिक चिंता
धोती और लंगोटी को लेकर गांधीजी को आशंका थी कि कहीं यह अन्य समुदायों को नागवार न गुज़रे। लेकिन खिलाफत आंदोलन की बी अम्मा (आबादी बानो बेगम) ने उन्हें आश्वस्त किया कि इसमें कोई समस्या नहीं होगी और हुआ भी ठीक वही। इसके बाद गांधीजी निश्चिंत होकर इस पहनावे को जीवनभर के लिए अपना लिया।
गांधी और उनकी लाठी बनी उनके संघर्ष की साथी
गांधी के पहनावे के साथ-साथ उनकी लाठी भी उनकी पहचान का हिस्सा बनी। 1930 के दांडी मार्च के समय काका कालेलकर ने उन्हें एक बांस की लाठी दी। 240 मील लंबे इस ऐतिहासिक मार्च में वही लाठी उनका साथी रही। यह लाठी केवल सहारा नहीं थी, बल्कि संघर्ष का प्रतीक थी। आज यह नई दिल्ली के राजघाट स्थित राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय में सुरक्षित है।
गांधी और उनका चश्मा बना दूरदृष्टि का प्रतीक
गांधीजी की साधारण धोती, उनकी लाठी और खादी की टोपी जितनी प्रसिद्ध है, उतना ही मशहूर उनका गोल फ्रेम वाला चश्मा भी है। उनकी यह ऐनक केवल नज़र सुधारने का साधन नहीं थी, बल्कि उनके व्यक्तित्व और विचारधारा की स्थाई पहचान बन चुकी थी।
गांधीजी ने पहली बार चश्मा उस समय लगाना शुरू किया जब वे वकालत की पढ़ाई के दौरान इंग्लैंड में थे। धीरे-धीरे उम्र और लंबे समय तक पढ़ाई-लिखाई के कारण उनकी नज़र पर असर पड़ा और उन्हें चश्मे की ज़रूरत महसूस हुई। लेकिन उनकी ऐनक कभी भव्य या कीमती नहीं रही। हमेशा साधारण धातु की बनी गोल फ्रेम वाली ऐनक ही उनका हिस्सा रही।
लोग कहते हैं कि गांधीजी का यह चश्मा केवल आंखों की रोशनी को सुधारता ही नहीं था, बल्कि यह उनकी 'दूरदृष्टि' का प्रतीक भी था। वे जिस स्पष्टता और गहराई से भविष्य देख पाते थे भारत की स्वतंत्रता, सामाजिक सुधार और आत्मनिर्भरता की राह इन सबका प्रतीक उनकी ऐनक बन गई। गांधीजी का यह चश्मा आज भी उनकी अमर पहचान का हिस्सा है। इसे कई संग्रहालयों और ऐतिहासिक धरोहर स्थलों पर सुरक्षित रखा गया है। कुछ साल पहले गांधीजी का एक असली चश्मा इंग्लैंड की नीलामी में सामने आया, जिसकी कीमत करोड़ों रुपये तक पहुंचीं। इससे यह साफ है कि दुनिया भर के लोग इस चश्मे को केवल धातु और शीशे का टुकड़ा नहीं मानते, बल्कि गांधीजी के आदर्शों और उनकी दृष्टि का प्रतीक मानते हैं।
चश्मा बना ‘स्वच्छ भारत’ की पहचान
गांधीजी के चश्मे को आज़ादी के दशकों बाद भी भारत सरकार ने एक नए प्रतीक में बदल दिया। जब 2014 में स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया, तो उसके लोगो में गांधीजी के चश्मे की आकृति को ही प्रतीक बनाया गया। इसका संदेश स्पष्ट था कि गांधी की दृष्टि से ही स्वच्छ और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण होगा।
गांधी का पहनावा केवल कपड़े नहीं, विचार हैं
गांधी का सूट से धोती तक का सफर केवल एक परिधान का परिवर्तन नहीं था। यह उनके दर्शन और रणनीति का हिस्सा था। उन्होंने कपड़ों को सामाजिक और राजनीतिक संवाद का माध्यम बना दिया। जब वे साधारण धोती पहनकर जनता के बीच आते, तो लोग उनसे तुरंत जुड़ जाते। उन्हें लगता कि उनका नेता भी उन्हीं की तरह जी रहा है। यही जुड़ाव गांधी को महात्मा बनाता है। गांधीजी का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उन्होंने सिखाया कि कपड़े केवल तन ढकने का साधन नहीं हैं, बल्कि वे समाज और राष्ट्र को दिशा देने का माध्यम भी बन सकते हैं। सूट-बूट से धोती तक का उनका सफर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का गहरा प्रतीक था, एक संदेश कि स्वराज केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता और सामाजिक समानता भी है। आज जब हम फैशन और ब्रांड्स की दुनिया में जी रहे हैं, गांधी की धोती हमें याद दिलाती है कि असली ताकत सादगी, आत्मनिर्भरता और अपने समाज से जुड़ाव में है।
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