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Importance of Smile: जब हंसी मुस्कुराहट ऐब हो जाये
Importance of Smiling and Laughing: काफी विचारने पर नतीजा यह निकला है कि हंसना मुस्कुराना अब अच्छे, स्वाभाविक और नैसर्गिक इमोशन में शुमार नहीं रहे। ये पागलपन, धोखा, मंदबुद्धि, हल्केपन की निशानी हो गए हैं।
Importance of Smiling and Laughing
Importance of Smiling and Laughing: कुछ ऐसे वाकये होते हैं जिसके चलते कुछ न कुछ सोचने पर मजबूर होना पड़ता है, अपने इर्दगिर्द इंसानी बर्ताव और इमोशन को ध्यान से देखना पड़ता है कि आखिर हो क्या रहा है। दरअसल, कुछ ऐसे वाकयों से ताल्लुक पड़ा जो हंसी मजाक से जुड़े थे। वाकये ऐसे, जो अलग अलग परिस्थितियों में अनजानों से मुस्करा कर, हंस कर रूबरू होने के थे।
यूँ देखें तो ये भला कौन सी बात है? इसमें चर्चा करने लायक तो कुछ नहीं लगता। वाकये बेहद मामूली भले रहे हों लेकिन उन्होंने एक नया नज़रिया पेश कर दिया। वजह यह रही कि बेसाख्ता मुस्कुराहट और मज़ाकिया अंदाज़ में लोगों, खास कर अनजानों का रिएक्शन हैरान करने वाला मालूम पड़ा। लोगों का हैरान होना, बुरा मानना कि कोई अनजान व्यक्ति उनसे हंस कर, मुस्कुरा कर क्यों ही पेश आ रहा है? उनके मन आशंकित जरूर रहे होंगे कि कुछ तो गड़बड़ है, इस हंसी मुस्कुराहट के पीछे कोई खराब मंशा, कोई स्कैम, कुछ तो खतरे वाली बात है। कोई बिलावजह यूँ ही हंस मुस्करा कर देख रहा है - बात कर रहा है, ये कैसे मुमकिन है? ये बिल्कुल असमान्य है। समझ से परे है। हां, कोई तने हुए चेहरे, तल्ख अंदाज़ से पेश आये तो वो नॉर्मल लगता है।
खैर, सोचने पर मजबूर होना पड़ा है। काफी विचारने पर नतीजा यह निकला है कि हंसना मुस्कुराना अब अच्छे, स्वाभाविक और नैसर्गिक इमोशन में शुमार नहीं रहे। ये पागलपन, धोखा, मंदबुद्धि, हल्केपन की निशानी हो गए हैं। असली इमोशन तो गुस्सा, तनाव, गम्भीरता, विकृति में हैं। यही वजह है कि आज आप अपने इर्दगिर्द कहीं देखिए, चेहरों को ऑब्जर्व करिए, बॉडी लैंग्वेज पहचानिए - यही नजर आएगा।
अपने घर में ही झांकिए। कहीं कहकहे बचे हैं अब? हंसी मजाक के लिए कोई स्थान है कहीं? याद करिए, आप के घर में पति पत्नी, बच्चों, के बीच कब खुल कर हंसी के फव्वारे छूटे थे? तय है, चाह कर भी याद न आएगा। हंसी ठठ्ठे की बैठकी कब हुई थी, दिमाग पर जोर डालेंगे तब भी याद न आएगा। घरवालों को छोड़िए, अपने को ही देखिए। कितना हंसते हैं आप? कितना मजाक करते हैं और कितना बर्दाश्त कर पाते हैं?
जरा अपनी कॉलोनी का चक्कर लगाइए। किसी फ्लैट, किसी घर से हंसी की आवाजें सुनाई देती हैं? लड़ाई- झगड़े, कलेश की ध्वनियां खूब गूंजती होंगी पर हंसी लापता होगी। दफ्तर को देखिए। कहीं हंसी मजाक का स्पेस रह गया है? लोग आपस में बात नहीं करते, हंसी तो दूर की बात हो गई है। सब मशीनों में मशीन की तरह डूबे दिखेंगे, चेहरों पर मुस्कुराहट रास्ता भूल चुकी है। सफर पर निकालिए। बस, ट्रेन में कहीं भी चिल्लपों - शोर तो खूब सुनाई देगा लेकिन अट्टहास, खिलखिलाहट नदारद होगा।
पार्कों में टहल आईये। चंद लोग लाफ्टर एक्सरसाइज करते जरूर मिलेंगे, मशीनी हंसी हंसते हुए। वहां लाफ्टर मजे की चीज नहीं, बस दवा रह गई है। क्योंकि वेंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार, प्रतिदिन 10 से 15 मिनट की हँसी से लगभग 40 कैलोरी बर्न की जा सकती है।हँसी तनाव हार्मोन कोर्टिसोल को कम करती है, जिससे मानसिक तनाव में राहत मिलती है।प्रतिरक्षा कोशिकाओं तथा संक्रमण से लड़ने वाले एंटीबॉडीज़ की संख्या बढ़ाती है। हँसी रक्त वाहिकाओं के कार्य में सुधार करती है। रक्त प्रवाह को बढ़ाती है। हृदय रोगों का जोखिम कम होता है। हँसी मस्तिष्क में एंडोर्फिन्स और डोपामिन जैसे ‘फील-गुड’ रसायनों का स्राव बढ़ाती है, जिससे मूड में सुधार होता है।हँसी लोगों को एक-दूसरे के करीब लाती है, आपसी समझ बढ़ाती है और सामाजिक बंधनों को मजबूत करती है।अनुसंधानों से पता चला है कि जब हम किसी को हँसते हुए देखते हैं, तो हमारा मस्तिष्क भी हँसी के लिए तैयार हो जाता है, जिससे हम भी हँसने लगते हैं। हँसी और इसके प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन ‘जेलोटोलॉजी’ कहलाता है।
पर इसे नियमित करने की जगह दवा की तरह हम कृत्रिमतौर से इसे ले रहे हैं। दवा मजबूरी में ही कोई लेता है। बरबस और स्वेच्छा से हंसी बची कहाँ है? टीवी, यूट्यूब पर स्टैंडअप कॉमेडी है जहां हंसी भी मशीन वाली है। ऐसी हँसियां हैं जहां आंसू तो हैं लेकिन आंखों में पानी नहीं है। हंसी है लेकिन जबरिया, प्लास्टिक सरीखी, जो सिर्फ होठों पर है, दिल में नहीं।
कहाँ से कहाँ आ गए हैं हम? बसों ट्रेनों में कोई चुटकुलों की किताबें नहीं बेचता। अब ऐसी किताबें रहीं भी नहीं हैं। हास्य - व्यंग्य के कोई नये रचनाकार हैं कोई जिनके नाम आप याद करें? सब गुजरे जमाने वाले ही याद आएंगे।
यार दोस्तों के बीच या परिवार की बैठकियों में चुटकियों, चुटकुलों की जगह नहीं रही है। याद भी कहाँ किसको है? तफरीबाजी, चुहलबाजी, ये शब्द डिक्शनरियाँ भी भूलने लगी हैं।
पहली अप्रैल आती है और चली जाती है। अप्रैल फूल भी रस्मी रह गया है। लोग भी भूल चुके हैं। बच्चों तक में इसकी जगह नहीं रही। याद करिए, पहले ये भी एक दिन होता था, जब बेवकूफी में भी मज़ा था। अप्रैल फूल भी एक इवेंट था। अब वो अकेला दिन भी खो गया।
होली भी आती है गुजर जाती है। कभी होली के टाइटल एक स्पेशल आइटम होते थे। दफ्तरों से लेकर स्कूल, कालेजों और मंडलियों में टाइटल खूब पिरो पिरो के गढ़े जाते थे। टाइटल देना भी एक आर्ट था। बजट जैसी गोपनीयता में काम होता था और खुलासा होता होली वाले दिन। ऐसे ऐसे तंज और बाण होते जिनकी चुभन भी गुदगुदी देती थी। टाइटल लिखने वाले तो सबसे नुकीला टाइटल अपने आप को ही देते थे।
अब तो इन सबकी न पूछ है न स्वीकार्यता। टाइटल जैसी कोई चीज होती है, बहुतों को तो अब पता भी न होगा। बेहतर ही है कि नहीं पता, नहीं तो आज के ज़माने में कितने ही केस दर्ज हो जाते, खून खच्चर हो जाते।
याद करिए, किसी जमाने में फिल्में कॉमेडियन के बूते पर चलती थीं। बड़े बड़े हीरो महमूद जैसे कॉमेडियन के सामने बौने हो जाते थे। अब न कॉमेडी फिल्में रहीं न कॉमेडियन जैसी कोई चीज। हंसाना घाटे का धंधा हो गया है जो कोई करना नहीं चाहता।
सच्चाई है कि हंसी - मजाक - तफरी, विलुप्त इमोशन होते जा रहे हैं। जहां लोगों में मिलने जुलने तक में विरक्ति हो गई है, वहां हंसी मजाक की कौन कहे। जब रिश्ते ही टूटने की कगार पर हर वक्त तने रहते हैं तब तफरी की सोचे भी तो कैसे? तनाव हर चेहरे पर झलकता है, मुस्कानें मशीनी और व्यावसायिक हो गईं हैं। मजाक सीरियसली दिल पर लिए जाने लगे हैं। हंसी विद्रूप और कटाक्ष का जरिया बन गई है।
शायद हमारी जिंदगी खुद एक कॉमेडी बन गई है या हमने खुद इसे ऐसी बना कर ओढ़ रखी है कि जिसमें दूसरी किस्म की कॉमेडी की जगह नहीं रही? क्या है इसकी वजह? पैसा कमाने की धुन? रिश्तों में घुन? समाज में बसी हिंसा? प्रदूषित वातावरण? कोरोना? वैक्सीन? बीमारियां? सामाजिक हालात? कुछ तो होगा। या सब कुछ होगा।
बड़ी बात ये भी है कि खोई हुई हंसी, बिसरा हुआ मजाक और लापता कॉमेडी पर ध्यान ही नहीं जा रहा। ये गैर जरूरी हो गए हैं। क्या लगता है आपको, कोई इन्हें मिस कर रहा है? क्या आप इसे मिस करते हैं? अगर नहीं करते तो दिल में झांकिए और तलाशिये कि सब कहां खो गया है। सोचिए कि हँसना मुस्कुराना अब ऐब में क्यों गिना जाने लगा है।
( लेखक पत्रकार हैं ।)