Bharat Ki Mithai: क्या! भारत की ये मिठाई भारत की नहीं है, जलेबी से लेकर कुल्फी सब है कहीं और की, आइए जानते हैं

What Indian sweets are not Indian: क्या आप जानते हैं कि हमारी रोज़मर्रा की कई मिठाइयाँ असल में विदेशों से भारत आई हैं?

Akshita Pidiha
Written By Akshita Pidiha
Published on: 18 April 2025 11:55 AM IST
Bharat Ki Mithai: क्या! भारत की ये मिठाई भारत की नहीं है, जलेबी से लेकर कुल्फी सब है कहीं और की, आइए जानते हैं
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Bharat Ki Mithai (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Bharat Ki Mithai: हम भारतीय जब बीमार पड़ते हैं, तो सबसे पहले फल याद आते हैं। लेकिन जब बात ख़ुशी की होती है—चाहे छोटी हो या बड़ी— तो ज़ुबान पर एक ही चीज़ आती है: मिठाई।क्योंकि हमारे यहां मिठाई सिर्फ़ स्वाद नहीं, एक भावना है। कोई परीक्षा पास करे, शादी तय हो जाए या त्योहार दस्तक दे दे— हर ख़ुशी का पहला कदम मिठाई से ही शुरू होता है। वो एक रसगुल्ला, एक लड्डू, एक बर्फी… हर गिले-शिकवे को पिघला देती है, रिश्तों में मिठास घोल देती है और माहौल को मीठा बना देती है।

हर मिठाई में एक कहानी छिपी है। अक्सर हम इन रंग-बिरंगी मिठाइयों को खाते हैं, सराहते हैं और गर्व से कहते हैं— "ये तो हमारी परंपरा है!" मगर ज़रा ठहरिए… क्या आप जानते हैं कि हमारी रोज़मर्रा की कई मिठाइयाँ असल में विदेशों से भारत आई हैं? जी हाँ! भारत की सड़कों, दुकानों और घरों में जो मिठाइयाँ सजी हुई हैं, उनमें से कई की जड़ें हमारी ज़मीन से नहीं, बल्कि ईरान, तुर्की और मध्य एशिया की मिट्टी से जुड़ी हैं।

सल्तनत काल से भारत में दस्तक

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

जलेबी (Jalebi) सबसे पहले 13वीं और 14वीं शताब्दी के बीच भारत आई थी, जब फ़ारसी व्यापारी और दरबारी सल्तनत काल में उत्तर भारत पहुंचे। तुर्क लेखक मोहम्मद बिन हसन (Mohamad bin Hasan) की 13वीं शताब्दी की रचनाओं में जलेबी और उसकी कई रेसिपियों का उल्लेख मिलता है। उस दौर में जलेबी को ‘जौलबिया’ कहा जाता था। आज भी दुनिया के कई देशों में इसे इसी नाम के मिलते-जुलते रूपों में जाना जाता है। उत्तरी अफ़्रीका में इसे ‘ज़्लाबिया’ कहा जाता है, तो फ्रांस में भी यह उसी नाम से प्रसिद्ध है।

भारतीय ग्रंथों में भी जलेबी का ज़िक्र

सन 1450 में जैन धर्म की एक पुरानी रचना ‘कर्णप कथा’ में जलेबी का वर्णन मिलता है।

सन 1600 में संस्कृत में लिखी गई पुस्तक ‘गुण्यगुणाबोधिनी’ में भी जलेबी का उल्लेख किया गया है।

सत्रहवीं शताब्दी में रचित पाकशास्त्र ग्रंथ ‘भोजन कौतुहल’, जिसके लेखक रघुनाथ थे, उसमें भी जलेबी को विस्तार से वर्णित किया गया है।

जलेबी का सफ़र: फ़ारस से भारत तक

इन सभी साक्ष्यों से यह साफ़ है कि जलेबी कम-से-कम 500 वर्षों से अधिक समय से भारत का हिस्सा रही है, और अब तो यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन चुकी है।

क़ुल्फ़ी की शुरुआत: मुग़ल दरबार से

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

क़ुल्फ़ी— जिसे आज भारत की पारंपरिक आइसक्रीम माना जाता है— वास्तव में इसकी शुरुआत मुग़ल सल्तनत के दौर में हुई थी। इसका उल्लेख सोलहवीं शताब्दी में तीसरे मुग़ल सम्राट अकबर के शासनकाल में लिखे गए प्रसिद्ध ग्रंथ "आईन-ए-अकबरी" (लेखक: अबुल फ़ज़ल) में मिलता है।'क़ुलाफ़ी' से बनी 'क़ुल्फ़ी'आईन-ए-अकबरी में इस मिठाई का नाम ‘क़ुलाफ़ी’ बताया गया है, जो फ़ारसी शब्द है और इसका अर्थ होता है – "ढका हुआ बर्तन"। अकबर के रसोइये भारतीय तरीक़ों से प्रेरित थे, लेकिन उसमें फ़ारसी अंदाज़ भी झलकता था।वे उबले दूध, केसर, और सूखे मेवों के मिश्रण को तांबे या पीतल के बर्तनों में डालते और फिर इसे बर्फ़ में जमाने के लिए रखते थे। उस समय बर्फ़ हिमालय की चोटियों से लाया जाता था और उसे ठंडा बनाए रखने के लिए शोरा (sal ammoniac) का इस्तेमाल किया जाता था।

मुग़लई स्वाद, देसी तरीक़ा

क़ुल्फ़ी की तरह ही कई अन्य मिठाइयाँ— जैसे सेवइयां, बर्फ़ी और क़लाक़ंद— भी इसी काल में तैयार की गईं। ये मिठाइयाँ फ़ारसी और तुर्क व्यंजनों से प्रेरित थीं, लेकिन उन्हें बनाने की शैली और सामग्री भारतीय थीं। इसीलिए इन मिठाइयों में एक अद्भुत देसी-विदेशी संगम देखने को मिलता है।

गुलाब जामुन: फ़ारसी जड़ों से उभरी भारतीय मिठाई

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

‘गुल’, ‘आब’ और ‘जामुन’ का मेल- गुलाब जामुन भारत की सबसे लोकप्रिय मिठाइयों में से एक है। इसके नाम के पीछे भी एक रोचक कहानी है। फ़ारसी में ‘गुलाब’ दो अर्थों में प्रयोग होता है: एक अर्थ है ‘गोल’, और दूसरा है ‘गुलाब का फूल’। ‘गुल’ यानी फूल और ‘आब’ यानी पानी—मिलकर ‘गुलाब’ बना। ‘जामुन’ शब्द भारत में उपयोग में आया क्योंकि मिठाई का रंग और आकार जामुन के फल जैसा होता है।

मूल स्रोत: 'लुकमत-अल-क़ादी'

गुलाब जामुन की जड़ें मशहूर फ़ारसी मिठाई ‘लुकमत-अल-क़ादी’ में मिलती हैं। यह मिठाई कभी मैदे से बनाई जाती थी और उसमें शहद का प्रयोग होता था। यही मिठाई बाद में भारत में आई और यहाँ के स्वाद और शैली के अनुसार ढल गई।

भारत में प्रवेश: सल्तनत काल का उपहार

मशहूर खानपान इतिहासकार माइकल क्रोनडल अपनी किताब "The Donut: History, Recipes and Lore from Boston to Berlin" (2014) में लिखते हैं कि यह मिठाई सल्तनत काल में भारत आई थी। उनका यह तर्क इस बात से भी पुष्ट होता है कि ईरान की ‘बामिये’ और तुर्की की ‘तुलुम्बा’ मिठाइयाँ बनाने की प्रक्रिया में गुलाब जामुन से काफ़ी मिलती-जुलती हैं।

हलवे की उत्पत्ति: अरब से शुरुआत

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

दि ऑक्सफोर्ड कम्पैनियन टू फ़ूड (1999) के अनुसार, हलवे का मूल स्त्रोत वर्तमान सऊदी अरब को माना जाता है। आरंभ में इसे ‘हल्व’ कहा जाता था। सातवीं शताब्दी में, खजूर और दूध को मिलाकर एक पकवान तैयार किया जाता था— जिसे हलवे का प्रारंभिक रूप माना गया है।

हलवे का विकास: खजूर से गेहूं तक

नौवीं सदी तक हलवे की रचना में बदलाव हुआ और इसमें गेहूं का आटा, खजूर या अंगूर की चाशनी और चाशनी को मिलाकर धीमी आंच पर पकाया जाने लगा।

प्रसिद्ध फारसी पाक ग्रंथ ‘किताब-अल-ताबिख़’ (सन 1226) में हलवे और उसके विभिन्न प्रकारों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। यह दर्शाता है कि हलवा फ़ारसी और अरब क्षेत्रों में एक समृद्ध और विविधता से भरी मिठाई थी।

भारत में हलवा: सुलतान और संतों का स्वाद

भारत में हलवे की मौजूदगी का सबसे पहला ऐतिहासिक प्रमाण चौदहवीं शताब्दी में मशहूर यात्री इब्न बतूता के यात्रा-वृत्तांत से मिलता है। जब वे दिल्ली में सुलतान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के दरबार में शामिल हुए, तो उन्होंने उल्लेख किया कि दावतों में कई प्रकार के हलवे परोसे जाते थे।

दिलचस्प बात यह है कि हलवा सिर्फ़ मिठाई के तौर पर नहीं, बल्कि शरबत के बाद, खाने के बीच में, और गोश्त-रोटी के साथ भी परोसा जाता था। यह दर्शाता है कि हलवा एक महत्वपूर्ण राजसी व्यंजन बन चुका था।

दक्षिण भारत में हलवा: केसरी भात का इतिहास

भारत में हलवे के प्रसार की एक और ऐतिहासिक कड़ी चालुक्य शासक सोमेश्वर तृतीय के शासनकाल में लिखित ग्रंथ ‘मानासोल्लास’ में मिलती है। इसमें ‘शाल्ली-अन्न’ नामक व्यंजन का उल्लेख है, जो आज दक्षिण भारत में ‘केसरी भात’ या ‘केसरी हलवा’ के रूप में प्रसिद्ध है। यह रूप भारत के भीतर हलवे के अनुकूलन और स्थानीयता का प्रतीक है—जहां पारसी, मुग़ल और देसी परंपराएं मिलकर एक नया स्वाद गढ़ती हैं।

शीर बिरिंज: फ़िरनी का फ़ारसी पूर्वज

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

दि ऑक्सफोर्ड कम्पैनियन टू फ़ूड (1999) के अनुसार, फ़िरनी की उत्पत्ति फ़ारसी व्यंजन ‘शीर बिरिंज’ से हुई है।

‘शीर’ का अर्थ होता है दूध और ‘बिरिंज’ का मतलब चावल। यह व्यंजन इतना लोकप्रिय था कि इसे ‘जन्नत का खाना’ कहा जाता था।आज भी यह व्यंजन अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, और मध्य एशिया में अत्यंत प्रिय है और वहीं से यह भारत में आया।

शीर खुरमा और फ़िरनी: ईद की मिठास

ऐसा माना जाता है कि फ़िरनी के साथ ही एक और मशहूर डिश ‘शीर खुरमा’ भी भारत में आया, जो आज ईद के त्योहार की खास पहचान बन चुका है। इन दोनों व्यंजनों में दूध, सूखे मेवे, और चावल का मेल भारतीय पाकशैली में अद्भुत रूप से घुल-मिल गया है।

मुहालाबिया: सातवीं शताब्दी की पाक परंपरा का विकास

कुछ ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, फ़िरनी का एक रूप ‘मुहालाबिया’ नामक डिश से आया, जो सातवीं शताब्दी में फ़ारस में तैयार की जाती थी।शुरुआती दौर में इसमें मांस या अंडों का इस्तेमाल होता था, लेकिन समय के साथ यह डिश मीठे चावल और दूध पर आधारित बनने लगी। आज भी ईरान और तुर्की में यह व्यंजन बेहद लोकप्रिय है।

खीर– भारतीय परंपरा की मीठी विरासत

खीर का ज़िक्र भारत के कई प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में मिलता है, जहां इसे संस्कृत में ‘क्षीरिका’ कहा गया है। 'क्षीरिका' का शाब्दिक अर्थ है– वह मिठाई जो क्षीर यानी दूध से बनाई जाती है। खीर भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी मिठाइयों में गिनी जाती है, जिसे अक्सर चावल, दूध और चीनी के साथ पकाया जाता है।

समय के साथ खीर के स्वाद और सजावट में बदलाव आया। आज इसमें इलायची, केसर, चांदी का वर्क और गुलाबजल का उपयोग किया जाता है, जो इसे एक शाही स्वरूप देता है। दिलचस्प बात यह है कि इन तत्वों के इस्तेमाल से खीर पर फ़ारसी व्यंजन फ़िरनी का प्रभाव भी साफ़ झलकता है।

शाही टुकड़े– मिस्र से मुग़ल दरबार तक का सफर

शाही टुकड़े का उद्भव मिस्र से जुड़ा माना जाता है। एक लोककथा के अनुसार, ‘उम अली’ नामक एक मिस्री बावर्ची ने यह डिश बासी ब्रेड, मलाई, दूध, चीनी और मेवों को मिलाकर तैयार की थी। इस डिश का स्वाद इतना पसंद किया गया कि यह जल्द ही पूरे मध्य एशिया में प्रसिद्ध हो गई।एक अन्य मान्यता के अनुसार, तेरहवीं शताब्दी में एक रानी ने युद्ध में विजय के उपलक्ष्य में इस व्यंजन को विशेष रूप से बनवाया था। भारत में शाही टुकड़े के आगमन का स्पष्ट प्रमाण नहीं है, लेकिन यह माना जाता है कि यह व्यंजन मुग़ल बादशाह बाबर के साथ भारत पहुंचा।

ब्रिटिश काल में भी शाही टुकड़ा लोकप्रिय रहा। ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय मिठाइयों में खास दिलचस्पी थी, और उनके स्वादानुसार भी इस डिश को ढाला गया।

सत्रहवीं शताब्दी में मुग़ल दरबार के ख़ानसामाओं ने मिस्र की इस डिश को भारतीय स्वाद के अनुसार नया रूप दिया। उन्होंने फ़ारसी, तुर्क और भारतीय पाक शैली का मेल कर इसे और अधिक समृद्ध बनाया। इसी वजह से इसे ‘शाही टुकड़ा’ कहा गया।

यह डिश बनाई जाती है– बासी ब्रेड या रोटी को घी में सेंककर। उस पर इलायची, गुलाबजल, केसर और मेवे छिड़के जाते हैं। फिर उसे गाढ़े दूध में डुबोया जाता है और अंत में चांदी या सोने के वर्क़ से सजाया जाता है। जब यह डिश हैदराबाद पहुंची, तो इसका नया नाम ‘डबल का मीठा’ हो गया।

फालूदा और जिगरठंडा– भारतीय मिठास में विदेशी रंग

भारत में कई अन्य प्रसिद्ध मीठे पेय और डिशें भी हैं, जैसे –

तमिलनाडु का जिगरठंडा

देश के कई हिस्सों में लोकप्रिय फालूदा- इन व्यंजनों की जड़ें भी मध्य एशिया और ईरान से जुड़ी हुई मानी जाती हैं। ये डिशें व्यापारिक मार्गों से भारत पहुंचीं और धीरे-धीरे भारतीय रसोई का अभिन्न हिस्सा बन गईं।

भारत में मिठाइयों की सांस्कृतिक यात्रा

भारत की मिठाइयों में केवल स्वाद नहीं बल्कि इतिहास, संस्कृति और सभ्यताओं का मिश्रण है। अरब, फ़ारस, तुर्क और मिस्र से आए स्वादों ने भारतीय मिठाइयों को एक नई पहचान दी। तो अब जब भी आप खीर, फ़िरनी या शाही टुकड़े का स्वाद लें, तो समझिए कि आप केवल एक मिठाई नहीं खा रहे, बल्कि सदियों पुरानी एक मीठी कहानी का हिस्सा बन रहे हैं।

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