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Lakh Ki Churiyon Ki Kahani: आखिर क्यों शुरू हुई जयपुर में लाख से चूड़ियाँ बनाने की शुरुआत, जयपुर की प्रसिद्ध लाख की चूड़ियों की कहानी
Lac Bangles History: लाख की चूड़ियां हाथ से बनाई जाती हैं और इनकी सबसे खास बात है– इनका निर्माण लाख नामक प्राकृतिक राल से किया जाना।
Lakh Ki Churiyon Ki Kahani (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
Lakh Ki Churiyan Banane Ki Shuruat Kab Hui: चूड़ियां, भारतीय गहनों की परंपरा में सबसे पुरानी और महत्वपूर्ण वस्तुओं में से एक हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के समय की खोजें बताती हैं कि चूड़ियों का चलन हजारों साल पुराना है। मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिली "नृत्य करती युवती" (डांसिंग गर्ल) की कांस्य मूर्ति, जिसकी आयु लगभग 2700–2100 ईसा पूर्व मानी जाती है, उसके हाथों में चूड़ियां स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं।
इतिहास में चूड़ियां विभिन्न सामग्रियों से बनाई जाती रही हैं- टेराकोटा, सीप, लकड़ी, कांच और धातु। हड़प्पा, मौर्य काल से लेकर आधुनिक समय तक चूड़ियां भारतीय महिलाओं की पहचान, सौंदर्य और सामाजिक स्थिति का प्रतीक रही हैं।
मनिहारों का रास्ता– जयपुर की चूड़ी गली
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
जयपुर की तंग गलियों में छिपा एक अनोखा संसार है – त्रिपोलिया बाज़ार में स्थित ‘मनिहारों का रास्ता’, जो पारंपरिक लाख की चूड़ियों (Traditional Lac Bangles) के लिए प्रसिद्ध है। यह गली आज भी अपने पुराने रंग-रूप में है, जहां मनिहार समुदाय (Manihar Community) के लोग पीढ़ियों से इस कला को जीवित रखे हुए हैं।
यह चूड़ियां हाथ से बनाई जाती हैं और इनकी सबसे खास बात है– इनका निर्माण लाख नामक प्राकृतिक राल से किया जाना। जयपुर के राजघराने ने इस कला को संरक्षण दिया, जिससे यह परंपरा आज तक जीवित रह पाई है। आज भी यह चूड़ियां जयपुर की समृद्ध हस्तशिल्प परंपरा का प्रतीक मानी जाती हैं।
लाख और उसका इतिहास (Lac Ka Itihas)
लाख एक प्राकृतिक राल (Resin) होती है, जो केरिया लक्का नामक कीटों से प्राप्त होती है। ये कीट आमतौर पर ढ़ाक, कुसुम और बेर जैसे पेड़ों पर रहते हैं और उनसे रस लेकर लाख का निर्माण करते हैं। इस लाख को साफ़ किया जाता है, गर्म करके गूंथा जाता है और फिर उसमें रंग मिलाकर चूड़ियों का रूप दिया जाता है। यह प्रक्रिया पूरी तरह हस्तनिर्मित (Handmade) होती है, जिसमें पारंपरिक तकनीकों का उपयोग होता है।
लाख का प्राचीन महत्व (Ancient Importance Of Lac)
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
भारत में लाख का प्रयोग केवल चूड़ियों तक सीमित नहीं रहा। इसका उपयोग भोजन, फ़र्नीचर, कॉस्मेटिक और आयुर्वेदिक औषधियों में भी होता रहा है। लाख का उल्लेख वेदों, महाभारत और शिव पुराण जैसे ग्रंथों में भी मिलता है। अथर्ववेद में लाख के कीट, उनके वास और उपयोगिता का विस्तार से उल्लेख है। "लक्ष तरु" या "लाख वृक्ष" के नाम से इसे प्राचीन वैदिक साहित्य में जाना जाता है।
जयपुर की लाख की चूड़ियां न केवल एक सुंदर आभूषण हैं, बल्कि हस्तशिल्प, परंपरा और इतिहास की जीवंत मिसाल हैं। मनिहारों का रास्ता आज भी उस पारंपरिक कला को संजोए हुए है, जिसने जयपुर को दुनियाभर में पहचान दिलाई है।
इन चूड़ियों को पहनना केवल एक श्रृंगार नहीं, बल्कि हज़ारों साल पुरानी विरासत को जीवित रखना है। यदि आप जयपुर जाएं, तो त्रिपोलिया बाज़ार की इस गली में जाकर इस कला को नज़दीक से जरूर देखें और भारतीय परंपरा के इस अद्भुत रंग को महसूस करें।
लाखशागृह: महाभारत की एक चौंकाने वाली कथा
महाभारत की एक अत्यंत रोचक और प्रसिद्ध कथा में बताया गया है कि कौरवों के राजा दुर्योधन ने एक विशेष योजना के तहत एक महल का निर्माण करवाया था, जिसमें पांडवों को जलाकर मार डालने का षड्यंत्र था। इस महल को "लाखशागृह" कहा गया क्योंकि यह लाख से बनाया गया था— जो कि अत्यधिक ज्वलनशील पदार्थ है।
दुर्योधन के आदेश पर एक कुशल वास्तुकार ने लाख का महल बनाया ताकि उसमें आग लगने पर कोई बच न सके। किंतु पांडवों को इस चाल की भनक पहले ही लग चुकी थी। उन्होंने एक गुप्त सुरंग के माध्यम से महल से बाहर निकलने का मार्ग बना लिया और इस प्रकार उस घातक षड्यंत्र से बच निकले।
शिव-पार्वती और लाख की चूड़ियों की पौराणिक कथा
हिंदू पुराणों में लाख की चूड़ियों का एक सुंदर पौराणिक संदर्भ भी मिलता है। लोककथाओं के अनुसार, शिव और पार्वती के विवाह के समय, पार्वती के लिए चूड़ियां बनाने के उद्देश्य से एक विशेष समुदाय की रचना की गई थी, जिसे लखेड़ा कहा गया।
कहते हैं कि विवाह के अवसर पर शिव ने पार्वती को लाख की बनी चूड़ियां उपहार स्वरूप दीं, और तभी से यह परंपरा शुरू हुई कि विवाहित महिलाएं विशेष रूप से लाख की चूड़ियां पहनें, जो प्रेम, सौभाग्य और वैवाहिक जीवन की समृद्धि का प्रतीक मानी जाती हैं।
पुरुषों और महिलाओं का समृद्ध योगदान
कुछ हस्तकलाएं ऐसी होती हैं जो केवल पुरुषों या केवल महिलाओं के लिए होती हैं, परंतु लाख की चूड़ियां बनाने की कला में दोनों का योगदान अनिवार्य है। जहाँ पुरुष छोटी भट्ठी और भाड़ में लाख पिघलाकर इस कला को जन्म देते हैं, वहीं महिलाएं इसे सजाती हैं, बेचती हैं और दुकान चलाती हैं। जयपुर के "मनिहारों का रास्ता" में आप दुकानों के नाम भी मनिहारिनों के नाम पर देख सकते हैं, जो इस क्षेत्र की परंपरा को दर्शाते हैं।
लाख की चूड़ियां बनाने की प्रक्रिया
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
मनिहारों का रास्ता में प्रवेश करते ही आपको पुरानी दुकानों की एक श्रृंखला नजर आएगी, जिनमें लाख की चूड़ियों की गंध बसी होती है। कुछ दुकानों के काउंटर पर पुरुषों को लाख पिघलाकर रंगीन चूड़ियां बनाते देखा जा सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में सदियों पुरानी तकनीक का ही प्रयोग होता है; यहां मशीन की कोई जगह नहीं है, बल्कि पारंपरिक औज़ारों और हुनर का इस्तेमाल होता है।
1. लाख का संकलन
प्रकृतिक स्रोत: चूड़ियां बनाने की प्रक्रिया पेड़ों से लाख एकत्र करने से शुरू होती है।
उत्पादन: भारत में विश्व में लाख का उत्पादन सबसे अधिक होता है, जो वैश्विक जरूरत का लगभग 60-70 प्रतिशत प्रदान करता है। झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश इस उत्पादन में अग्रणी हैं।
कीट और राल: केरिया लक्का नामक कीट गहरे लाल रंग का राल उत्पन्न करता है, जिसे लाख कहा जाता है। यह राल पेड़ों की शाखाओं पर बनता है और बाद में खुरचकर निकाला जाता है।
प्रारंभिक उत्पाद: लंबी डंडियों से लाख निकाला जाता है, जिसके बाद इसे कई प्रक्रियाओं से गुज़रने के बाद शलक लाख या चपड़ा कहा जाने वाला रूप मिलता है।
2. चपड़ी का निर्माण
चपड़ी या टिकली: दस्तकारों को छोटी सपाट डिस्क के रूप में चपड़ी मिलती है, जो मूल रूप से दो रंगों में होती है – गहरा लाल-भूरा और नारंगी।
मुलायम बनाने का मिश्रण: चपड़ी को मुलायम करने के लिए बर्जा नामक राल मिलाया जाता है, और पत्थर पाउडर (गिया पाउडर) भी जोड़ा जाता है। पुराने दिनों में इस पाउडर के स्थान पर रेत का भी उपयोग किया जाता था।
3. मिश्रण तैयार करना
गर्म करना: सबसे पहले, दस्तकार चपड़ी, राल और बर्जा को एक बड़ी कढ़ाई में गर्म करते हैं। मिश्रण में थोड़ी आर्द्रता के लिए पानी भी मिलाया जाता है।
पिघलाव प्रक्रिया: इस मिश्रण को गर्म किया जाता है जब तक कि यह लाख का मोटा गोला न बन जाए, और फिर इसमें गिया पाउडर मिलाया जाता है।
4. घूंथना और रोल बनाना
घूंथना: जब मोटा मिश्रण तैयार हो जाता है, तो इसे चूल्हे से निकालकर अच्छी तरह से गूंधा जाता है।
रोल तैयार करना: गूंधे गए मिश्रण से लम्बे-लम्बे रोल बनाए जाते हैं।
हत्थी के साथ लपेटना: इन रोलों को लकड़ी के डंडे (जिन्हें हत्थी कहा जाता है) पर लपेटा जाता है, जिससे चूड़ियों का निर्माण होता है।
इस पूरी प्रक्रिया में पारंपरिक तकनीक और पुरानी कारीगरी अपनी जगह कायम रखते हैं, और यह स्पष्ट है कि लाख की चूड़ियों का निर्माण आज भी हाथों से ही होता है। यह कला न केवल एक सौंदर्यपूर्ण वस्तु का निर्माण करती है, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर और पीढ़ियों से चले आ रहे हुनर की जीवंत मिसाल भी पेश करती है।
पर्यटकों के लिए आकर्षण: जयपुर की हस्तकलात्मक विरासत
जयपुर की लाख की चूड़ियाँ कला और शिल्प जगत में एक अलग पहचान रखती हैं। हर वर्ष इस शहर में आने वाले सैलानी और हस्तशिल्प प्रेमी इन चूड़ियों की विशिष्टता से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। दस्तकार बताते हैं कि इन चूड़ियों की ख़ासियत इनके निर्मित होने में उपयोग किए गए शुद्ध, प्राकृतिक कच्चे माल में छिपी है। चूंकि लाख एक प्राकृतिक उत्पाद है, इसमें किसी भी प्रकार के कैमिकल का प्रयोग नहीं किया जाता, जिसके कारण ये चूड़ियाँ त्वचा पर खुजली या अन्य एलर्जी संबंधी समस्याएँ नहीं पैदा करतीं।
निर्माण प्रक्रिया: पारंपरिक तकनीक का अद्भुत संगम
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
1. कच्चे माल का संचय
प्राकृतिक लाख का संकलन: चूड़ियाँ बनाने की प्रक्रिया प्राकृतिक तौर पर पेड़ों से लाख एकत्र करने से आरंभ होती है।
उत्पादन में अग्रणी: भारत में विश्व के लाख का लगभग 60-70 प्रतिशत उत्पादन होता है, जिसमें झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश प्रमुख हैं।
केरिया लक्का कीट: यह कीट गहरे लाल रंग का राल उत्पन्न करता है, जिसे बाद में पेड़ों से खुरचकर एकत्र किया जाता है।
2. प्रारंभिक उत्पाद– चपड़ी
चपड़ी या टिकली: कच्चे लाख से दस्तकारों को एक छोटी, सपाट डिस्क मिलती है, जिसे स्थानीय भाषा में चपड़ी या टिकली कहा जाता है। ये मुख्य रूप से दो रंगों – गहरा लाल-भूरा और नारंगी – में उपलब्ध होती हैं।
मुलायम बनाने के घटक: चपड़ी में बर्जा नामक प्राकृतिक राल और पत्थर पाउडर (गिया पाउडर) मिलाया जाता है। प्रारंभिक दिनों में रेत का भी उपयोग किया जाता था।
3. मिश्रण और रोलिंग की कला
मिश्रण तैयार करना: चपड़ी, राल और बर्जा को एक बड़ी कढ़ाई में गर्म किया जाता है, जिससे मिश्रण में हल्की सी आर्द्रता आती है।
पिघलाने की प्रक्रिया: मिश्रण को तब तक गर्म किया जाता है जब तक कि वह मोटे गोले का स्वरूप न ले ले, फिर उसमें गिया पाउडर मिलाया जाता है।
घूंथना और रोल बनाना: तैयार मिश्रण को चूल्हे से निकालकर अच्छी तरह गूंधा जाता है, और फिर इसे रोल के आकार में ढाल कर लकड़ी के डंडे (हत्थी) पर लपेटा जाता है।
बाजार की चुनौतियाँ और बदलते परिदृश्य
पारंपरिक लाख की चूड़ियाँ और अत्यधिक सजावटी चूड़ियाँ बाज़ार में अलग-अलग दरों पर बिकती हैं।हाल के दिनों में, "ठंडा लाख" नामक मिश्रण भी बाज़ार में आ गया है, जिसमें संगमरमर का चूरा और एपोक्सी राल मिलाया जाता है। लाख का कच्चा माल पेड़ों से प्राप्त होता है, पर पर्यावरणीय बदलाव और पेड़ों की कटाई से इसकी लागत बढ़ गई है। साथ ही, मनिहार समुदाय की नई पीढ़ी में इस परंपरा के प्रति उत्साह की कमी भी एक चिंता का विषय है।
संरक्षण की आवश्यकता: विरासत के लिए जागरूकता
लाख की चूड़ियाँ केवल एक हस्तकला नहीं, बल्कि सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत और ज्ञान का प्रतीक हैं। मनिहार समुदाय ने इस कला को पीढ़ी दर पीढ़ी संजो कर रखा है। साथ ही लाख का उपयोग सजावट के सामान, पेंटिंग, घर के सामान, पैन, डायरी, कान की बालियाँ और खिलौने बनाने में भी होता है।
जयपुर की यह कला न केवल देखने वालों को मंत्रमुग्ध करती है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर का एक जीवंत उदाहरण भी है।