Bhagwan Vishwakarma Ki Kahani: जानिए क्यों भगवान विश्वकर्मा कहलाए सृजन के आदिगुरु?

Bhagwan Vishwakarma Ki Kahani: आइए जानते हैं आदि काल के इंजीनियर भगवान विश्वकर्मा के बारे में विस्तार से...

Jyotsna Singh
Published on: 16 Sept 2025 3:02 PM IST
Vishwakarma Jayanti 2025 Bhagwan Vishwakarma Ki Kahani
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 Vishwakarma Jayanti 2025 Bhagwan Vishwakarma Ki Kahani (Image Credit-Social Media)

Bhagwan Vishwakarma Ki Kahani: हर साल जब 17 सितंबर का दिन आता है, तो पूरे देश में कारखानों, उद्योगों और घर-आंगनों में एक विशेष उत्साह और उल्लास की लहर दिखाई देने लग जाती है। यह दिन है भगवान विश्वकर्मा को समर्पित उस देव शिल्पकार का, जिसने न केवल भव्य नगरों और महलों का निर्माण किया, बल्कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र, रथ और विमानों तक की रचना की। उनके बिना देवलोक की भव्यता अधूरी होती और धर्म की रक्षा असंभव। यही कारण है कि उन्हें शिल्प, वास्तुकला और निर्माण कला का आदि गुरु माना जाता है। आइए जानते हैं आदि काल के इंजीनियर भगवान विश्वकर्मा के बारे में विस्तार से -

बेहद अनोखी थी विश्वकर्मा जी की अद्भुत निर्माण प्रतिभा


कथाओं के अनुसार, विश्वकर्मा जी ने वे नगर बनाए जो आज भी हमारी कल्पनाओं से परे हैं। उन्होंने इंद्रपुरी जैसी दिव्य नगरी की रचना की, जहां देवेंद्र का दरबार सजता था। लंकापुरी की स्वर्णिम दीवारें, यमपुरी की गंभीरता, वरुणपुरी की चमक, कुबेरपुरी का ऐश्वर्य और पांडवपुरी की वीरता आदि इन सबके पीछे उनका ही हाथ था। द्वारका का नगर तो ऐसा बनाया गया कि समुद्र की लहरें भी उसे डिगा नहीं पाईं। हस्तिनापुर की राजसी आभा और शिवमंडलपुरी का अलौकिक स्वरूप उनकी शिल्पकला का जीवंत प्रमाण थे।

भवनों के अलावा दिव्य उपकरणों के भी जनक

विश्वकर्मा जी केवल महलों और नगरों तक सीमित नहीं थे। उन्होंने ऐसे दिव्य उपकरण भी बनाए, जिनसे देवताओं की शक्ति और बढ़ गई। महाभारत के वीर कर्ण के कानों में चमकते कुंडल उन्हीं की रचना थे। भगवान विष्णु का सर्वनाशक अस्त्र सुदर्शन चक्र भी उनके शिल्प का चमत्कार था। रावण का पुष्पक विमान, जिसे बाद में भगवान राम ने भी उपयोग किया। यह विश्वकर्मा का ही अद्भुत निर्माण था। शिवजी का त्रिशूल और यमराज का कालदंड भी उनकी ही कारीगरी के प्रमाण हैं। जब ऋषि दधिचि ने अपनी हड्डियां देवताओं के लिए समर्पित कीं, तो उन्हीं से बने अस्त्रों को आकार देने वाला भी यही दिव्य शिल्पकार था।

अलग-अलग कालों में विश्वकर्मा के विविध रूप और अवतार


शास्त्र बताते हैं कि विश्वकर्मा अलग-अलग कालों में अलग-अलग रूपों में प्रकट हुए। विराट विश्वकर्मा के रूप में वे संपूर्ण सृष्टि के रचयिता माने गए। धर्मवंशी रूप में वे शिल्प विज्ञान के आचार्य कहे गए। अंगिरावंशी स्वरूप में वे आदि विज्ञान विधाता थे। सुधन्वा विश्वकर्मा बनकर उन्होंने शिल्पाचार्य का रूप धारण किया। भृंगुवंशी स्वरूप में वे शुक्राचार्य के पौत्र के रूप में उत्कृष्ट शिल्पाचार्य माने गए। कहीं वे दो भुजाओं वाले दिखाई दिए, तो कहीं चार और दस भुजाओं वाले। कहीं एक मुख, कहीं चार मुख और कभी पंचमुख वाले। उनके इन अनेक रूपों में ही उनकी अनंत शक्ति और ज्ञान का परिचय मिलता है।

इनके जन्म से जुड़ी हैं पौराणिक कथाएं

विश्वकर्मा जी के जन्म को लेकर कई पुराणों में अलग-अलग कथाएं पढ़ने को मिलती हैं। स्कंद पुराण कहता है कि धर्म के आठवें पुत्र प्रभास और देवगुरु बृहस्पति की बहन भुवना ब्रह्मवादिनी के पुत्र के रूप में विश्वकर्मा का जन्म हुआ। महाभारत के आदिपर्व में भी इसका उल्लेख मिलता है।

वायु पुराण के अनुसार, वे भृगु ऋषि के वंश में जन्मे।

वराह पुराण में वर्णन है कि ब्रह्मा ने लोककल्याण के लिए अपनी बुद्धि से विश्वकर्मा को उत्पन्न किया और उन्हें घर, रथ, शस्त्र और समस्त शिल्पकला का रचयिता बनाया।

इन कथाओं से यह स्पष्ट होता है कि उनका जन्म चाहे किसी भी परंपरा में बताया जाए, उनका कार्य हमेशा लोकहित और देवकार्य से जुड़ा रहा।

विश्वकर्मा जी के वंशज भी थे शिल्पकला में पारंगत


विश्वकर्मा जी के वंशज भी शिल्पकला में पारंगत माने जाते हैं। उनके पांच पुत्रों का उल्लेख मिलता है। मनु लोहे के काम में माहिर थे, मय लकड़ी की कारीगरी में अद्वितीय थे, त्वष्टा कांसे और तांबे की कला में दक्ष थे, शिल्पी ईंट और पत्थर के काम में विशेषज्ञ थे और दैवज्ञ सोने-चांदी की अलंकरण कला में निपुण थे। उनकी पुत्री बहिर्ष्मती का विवाह राजा प्रियव्रत से हुआ था। इस प्रकार उनका परिवार भी मानव सभ्यता को अलग-अलग शिल्प विधाओं में समृद्ध करता रहा।

कारखानों, उद्योगों और कार्यस्थलों में विधिविधान से पूजने की परम्परा कायम

आज भी हर साल 17 सितंबर को विशेष रूप से विश्वकर्मा पूजा का आयोजन किया जाता है। कारखानों, उद्योगों और कार्यस्थलों में मशीनों और औजारों की पूजा होती है। विश्वास है कि इससे कार्य में वृद्धि होती है और दुर्घटनाएं कम होती हैं। यह परंपरा केवल धार्मिक आस्था ही नहीं, बल्कि तकनीक और मेहनत के प्रति सम्मान का प्रतीक है।

भगवान विश्वकर्मा का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे केवल नगर और भवन बनाने वाले शिल्पकार नहीं, बल्कि अस्त्र-शस्त्रों, रथों और विमानों के निर्माता भी हैं। वे तकनीक और कला के आदिगुरु हैं।

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