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संध्या राठौर का सवाल तो जायज है 'बच्चों के लिए अब कौन लिखे'
संध्या राठौर
सृजन की दुनिया में एक बड़ा प्रश्न आज तैर रहा है कि बच्चो के लिए कौन लिखे? जो भी पुराने बाल कथाकार, लेखक, कवि हैं या तो वे अब नहीं हैं और जो हैं उनकी अवस्था अब सक्रियता से कट चुकी है। हरिकृष्ण देवसरे, रमेश तैलंग, शेरजंग गर्ग, दिविक रमेश, प्रकाश मनु, क्षमा शर्मा, पंकज चतुर्वेदी आदि को छोड़ दें तो यह बच्चों की दुनिया तकरीबन खाली है।
दूसरी तरफ बड़ों की दुनिया रोज दिन नई नई तकनीक और विकास के बहुस्तरीय लक्ष्य को हासिल कर रही है। सामाजिक विकास की इस उड़ान में अभिव्यक्ति की तड़पन को महसूस किया जा सकता है। इसका दर्शन हमें विभिन्न सामाजिक मीडिया के मंचों पर देखने-सुनने को मिलता है।
यहां खतरा केवल खेलों या भाषा का ही नहीं है। चिंतन का पहलू यह है की इंटरनेट की सामग्री से बच्चों को वह मानसिक खुराक नहीं दी जा सकती जो उन्हें पुस्तकों के पढऩे से मिलती रही है। अपना समाज, अपना परिवार, अपनी नैतिकता, अपनी सृजनशीलता को वे ऐसे तो कदापि नहीं समझ सकेंगे।
जब हम संप्रेषण की तीव्रता से इस कदर बेचैन हो जाएं कि किसी भी तरह किसी भी कीमत पर खुद को उड़ेल देने की छटपटाहट हो तो यह अभिव्यक्ति की अनिवार्यता नहीं तो क्या है। जब हम खुद को अभिव्यक्ति के संवेदनात्मक स्तर पर लरजता हुआ पाते हैं तब हमारे सामने जो भी सहज माध्यम मिलता है उसमें खुद को बहने देते हैं। समय के साथ हमारे संप्रेषण के माध्यमों में परिवर्तन आने लाजमी थे जो हुए।
यूजर फ्रेंडली माध्यम होने के नाते बड़ी ही तेजी से प्रसिद्धी के मकाम को हासिल किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस सामाजिक माध्यम में बच्चों की दुनिया व बच्चों के लिए क्या है तो इसके लिए हमें सोशल मीडिया के विभिन्न स्वरूपों की बनावटी परतों को खोलना होगा। हम इस आलेख में खासकर उन बिंदुओं की तलाश करेंगे जहां हमें सोशल मीडिया में बाल अस्तित्व के संकेत भर मिलते हों।
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