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कविता: बरफ पड़ी है- सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
बरफ पड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
सजे सजाए बंगले होंगे
सौ दो सौ चाहे दो एक हजार
बस मुठ्ठी भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार
देवदारूमय सहस बाहु चिर तरुण हिमाचल
कर सकता है क्यों कर अंगीकार
चहल पहल का नाम नहीं है
बरफ बरफ है काम नहीं है
दप दप उजली सांप सरीखी
सरल और बंकिम भंगी में -
चली गयीं हैं दूर दूर तक
नीचे ऊपर बहुत दूर तक
सूनी सूनी सड़कें
मैं जिसमें ठहरा हूँ
वह भी छोटा-सा बंगला है -
पिछवाड़े का कमरा
जिसमें एक मात्र जंगला है
सुबह सुबह ही
मैने इसको खोल लिया है
देख रहा हूँ बरफ पड़ रही कैसे
बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे
या कि विमानों में भर भर कर
यक्ष और किन्नर बरसाते
कास कुसुम अविराम
ढके जा रहे
देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग
ठिठुर रहीं उँगलियाँ
मुझे तो याद आ रही आग
गरम गरम ऊनी लिबास से लैस
देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात
शीशामढ़ी खिड़कियों के नजदीक बैठकर
सिमटे सिकुड़े नौकर चाकर चाय बनाते होंगे
ठंड कड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
बरफ पड़ी है
- नागार्जुन
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