Yogesh Mishra Special- प्राचीन भारतीय साहित्य में भौतिवाद के वर्तमान सरोकार

Yogesh Mishra
Published on: 27 April 2018 5:31 PM IST
Yogesh Mishra Special- प्राचीन भारतीय साहित्य में भौतिवाद के वर्तमान सरोकार
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Yogesh Mishra Special- प्राचीन भारतीय साहित्य में भौतिवाद के वर्तमान सरोकार

आम तौर पर हम कालिदास को आदि कवि मानते हैं। रामायण को आदि काव्य। आदिग्रन्थ होने का गौरव ऋग्वेद के हिस्से जाता है क्योकि उसकी ऋचाओं में कविता है। कविता के लक्षण हैं। बावजूद इसके ऋग्वेद को आदि काव्य होने की स्वीकृति नहीं मिली। वेद जीवन पद्धति हैं। मंत्र, तंत्र और कर्मकांड हैं। जीवन, धर्म एवं दर्शन है।

हमें प्राचीन भारतीय साहित्य में भौतिकवाद की तलाश वेद से करनी होगी। क्योंकि वेद हमारे इतिहास का, साहित्य का और संस्कृति का आधार है, स्तम्भ है और जड़ है। वेद में जीवन पद्धति है और दर्शन है, जो शुभत्व की शाश्वत खोज का सिलसिला है या फिर रहन- सहन, धर्म- दर्शन के ज्ञात सत्य द्वारा स्थापित तर्क पद्धति है। वेद में और उसके बाद के साहित्य-उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण किसी में भी जीवन को भौतिकता के चश्मे से नहीं देखा गया है। इन आदि ग्रंथों से से लेकर हिंदी साहित्य के भक्तिकाल तक के काल खंड में कही भी साहित्य अथवा साहित्य की कोई भी विधा भौतिकवाद के चाकचिक्य का वर्णन करते हुए नहीं मिलती है। किसी भी भौतिकवादी तत्व, पदार्थ अथवा सत्ता की छाया भी इस लम्बे कालखंड के रचनाकारों ने कबूल नहीं की। भारतीय साहित्य में रीतिकाल से एक ऐसा कालखंड शुरू होता है जब साहित्य में भौतिक तत्व जगह पाने लगे। आत्मा के सौंदर्य की जगह शरीर का सौंदर्य रचना का विषय बनने लगा। लेकिन हम रीतिकाल को प्राचीन भारतीय साहित्य का हिस्सा नहीं मान सकते हैं।

प्राचीन भारतीय साहित्य के लिए हमें वेद से बाल्मीकि तक की यात्रा करनी चाहिए। इस समूचे कालखंड में साहित्य के केंद्र में सत्य रहा है , संवेदना रही है। हालात का चित्रण रहा है। वह भी कुछ इस तरह की कि उस कालखंड का इतिहास भी हो जाय और साहित्य भी। सीधे तौर पर आप कह सकते हैं कि प्राचीन भारतीय साहित्य उस समय का इतिहास है जो काल क्रम के हिसाब से भले ही व्यवस्थित न किया गया हो परन्तु उसमे तिथियों के विस्तार की जगह स्थितियों को व्यापक रूप से जगह दी गयी है। प्राचीन भारतीय साहित्य तत्व को अथवा पदार्थ को अगर स्वीकार करता है अथवा वर्णित करता है तो उसके पीछे भी भाववाद है। भौतिकवाद कही नहीं है।

अगर हम साहित्य को वृहद परिप्रेक्ष्य में लें तो जरूर हमारे भारतीय साहित्य में एक भौतिकवादी दर्शन दिखाई देगा। यह दर्शन सुखवाद का है। किसी भी तरह सुख से जीने का है। इसमें थ्योरी आॅफ मैटरलिज्म है। यह चार्वाक का दर्शन है। जो भारतीय दर्शन के पंच तत्व को नहीं मानता। वह चार तत्व मानता है। गगन को नहीं मानता। क्षिति, जल, पावक और समीर को मानता है। उसका मानना है कि भौतिकवाद में खुद ही यह क्षमता होती है कि चैतन्यता आ जाती है। हालांकि भारतीय षट दर्शन में चार्वाक दर्शन को शामिल नहीं किया गया है।

हमारे प्राचीन साहित्य में पेड़, पौधे, जानवर, धरती, आकाश, अन्न, अग्नि, पानी सिर्फ पदार्थ के रूप में वर्णित नहीं हैं। यही वजह है कि इन सबके लिए हमने अपने प्राचीन साहित्य में कोई न कोई देवता चुना है, कोई न कोई देवता बुना है और उस देवता से हमारा रिश्ता आप्त, प्रमाण अथवा तर्क की मार्फत जुड़ता है। वह देवता हमारी प्राचीन रचनाओं में हमसे भावबोध में बंधा है। भौतिकबोध में नहीं। पदार्थ के भौतिक होने की घटना तो हमारे भारतीय प्राचीन इतिहास से बहुत बाद की है। यह पश्चिमी विज्ञान की देन है। हालांकि छठी शताब्दी से पूर्व कणाद ने अणु और परमाणु के बारे में बताया था। आर्य भट्ट ने बांस की फोफियों से देख कर चन्द्रमा की दूरी बता दी थी लेकिन तब भी हमारे साहित्य में पदार्थ भौतिक सन्दर्भ से नहीं जुड़ पाया था। हमारा पदार्थ भी भौतिक नहीं बना था।

हमारे प्रत्येक देवता किसी न किसी प्राकृतिक शक्ति के स्वामी हैं। अग्नि, आकाश, पृथ्वी, वायु, जीवनदायी शक्तियां हैं। लेकिन इन्हें भी भौतिक रूप में हमने कभी स्वीकार नहीं किया। वेद तत्व चिंतन को प्राथमिकता देते हैं। वेद से ही तत्व उधार लेकर जैन और बौद्ध दर्शन ने समाज के बड़े वर्ग को प्रभावित करने का काम किया। हमारे प्राचीन साहित्य में भौतिकवाद इसलिए भी नहीं देखा जा सकता क्योकि हर महत्वपूर्ण ग्रंथ के लेखक ने बिना नाम और यश की चिंता किये अपना ग्रंथ, अपनी रचना को परंपरा को समर्पित किया। कोई कॉपी राइट नहीं लिया। दिक्कत सिर्फ यह हुई की हमारा समूचा प्राचीन भारतीय साहित्य धर्म आग्रही है। धर्म केंद्रित है। उसका मूल तत्व धर्म है। जैसे ही व्यक्ति के धार्मिक आग्रह प्रबल होते हैं, उसकी वैचारिक गत्यात्मकता थमने लगती है। लेकिन इसकी परवाह किये बिना धार्मिक आग्रहों से मुक्ति का कोई पथ प्राचीन भारतीय साहित्य से भक्तिकाल तक नहीं दिखता है।

इतने लम्बे कालखंड में अगर एक भी समर्थ रचनाकार धार्मिक आग्रहों से मुक्ति का मार्ग न खोजता हो, विपथगामी बनाने को न तैयार हो तो यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि समाज के व्यष्टि और समष्टि में तथा व्यक्ति के केंद्र में धर्म इस तरह है कि उससे इतर जाना चित्रण के साथ न्याय नहीं होगा। क्योंकि धर्म सिर्फ आदर्श नहीं था। भौतिक नहीं था। उसमे दर्शन था। अध्यात्म था। उस धर्म में जो पदार्थ था वह नश्वर नहीं था। कुछ प्रकृतिवादी विचारधारयें, सृष्टि के विकास को लेकर भौतिकवादी दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती थीं परन्तु इसे भी आम स्वीकृति इसलिए नहीं मिली क्योंकि ऋग्वेद में अनेक स्थान पर काम का महिमामंडन है। उसकी एक ऋचा १०ध्१९१ध्१ को कामवर्धक कहते हुए उसे प्राणिमात्र का गुण बताया गया है। यहाँ भी काम धर्म का हिस्सा है। इस काम का दूर- दूर तक भौतिकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं दिखता। भौतिकवाद ( उंजमतपंसपेउ ) दार्शनिक एकत्व वाद का एक प्रकार है जो मनाता है कि प्रकृति में पदार्थ ही मूल द्रव्य है। जबकि हमारा प्राचीन भारतीय साहित्य में यह कहीं नहीं मिलता।

यही नहीं, भौतिकवाद का भौतिकतावाद ( चीलेबंसपेउ ) से सीधा सम्बन्ध है जो मनाता है की जो कुछ भी अस्तित्व में है वह सब भौतिक है। जबकि हमारा प्राचीन साहित्य ऐसा नहीं मानता। हमारा साहित्य जिसे भी अस्तित्व में मानता है उसे उसका रिश्ता धर्म से जोड़ता है। प्रकारांतर में कुछ लोग वर्गहीन शोषणमुक्त समाज की रचना करना चाहते थे तो उन्होंने अपने सिद्धांत को ऐतिहासिक भौतिकवाद कह दिया। इन्होने इसे मानवसमाज के इतिहास का मूर्त ज्ञान मान लिया। वे यह भी कहने लगे की यह ज्ञान जितना विकासमान है, जितनी साहित्य की परंपरा। ये मनुष्य के इतिहास को वर्गसंघर्ष का इतिहास मानते हैं लेकिन हमारी सभ्यता का इतिहास वर्ग सहयोग का है।

भौतिकवाद यांत्रिक और द्वंदात्मक दो रूपों में सामने आया। यांत्रिक भौतिकवाद चेतना को आर्थिक सम्बन्धो का प्रतिविम्ब मानता है और यही साहित्य में प्रतिविम्बित होता है। इसका विकास फ्रांस में हुआ। द्वंदात्मक भौतिकवाद चेतना को सम्बन्धों से प्रभावित मानते हुए उसके सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है। हमारे प्राचीन साहित्य में इन दोनों में से कुछ भी उपलब्ध नहीं है। किसी भी अंश तक उपलब्ध नहीं है। ऐसे में प्राचीन भारतीय साहित्य में भौतिवाद के वर्तमान सरोकार खोजना गूलर के फूल तलाशने जैसा है। गूलर का फूल होता है ऐसा कहा जाता है। किसी ने देखा हो यह कोई नहीं बताता है। पर यह जरूर है कि वर्तमान भारतीय साहित्य के भौतिकवाद के सरोकार प्राचीन भारतीय साहित्य को प्रभावित करने की निरंतर कोशिश करते आ रहे हैं। वर्तमान भारतीय साहित्य के रचनाकार, उनके समालोचक और प्रचारक निरंतर यह कोशिश कर रहे हैं कि वे इन दिनों के साहित्य में समाये और पसरे भौतिकवाद के तंतु किसी तरह प्राचीन भारतीय साहित्य से जोड़ सकें। निरंतर यह कोशिश हो रही है कि यह साबित किया जा सके कि भौतिकवाद की जड़ें वेद से बाल्मीकि तक भी हैं। एक वर्ग यह भी प्रयास कर रहा है कि जिसे प्राचीन भारतीय साहित्य ने तत्व अथवा द्रव्य अथवा पदार्थ मानकर दर्शन और अध्यात्म का हिस्सा बना लिया था यह वही तत्व, द्रव्य और पदार्थ है, जो पश्चिम का विज्ञान बता रहा है। ऐसी कोशिश महज इसलिए हो रही है क्योकि पश्चिम में मैटर, तत्व, पदार्थ को चेतना के स्तर पर स्वीकार करने से खारिज कर दिया गया है।

वस्तुतः, वैश्वीकरण के साथ पसरे दुनिया भर में भौतिकवाद के पराजय के दृश्य उभरने लगे हैं। यह दृश्य सिर्फ भारत में नहीं है। विज्ञान ने भी नश्वर तथा अनश्वर पदार्थों के अंतर खोज लिए हैं। इस आविष्कार ने हमारे प्राचीन भारतीय साहित्य के पदार्थ, तत्व और द्रव्य को स्थापित कर दिया है और अलग पहचान दी है। साहित्य का मूल तत्व कहानी , कविता और उपन्यास होते हैं। इनके आलावा भी साहित्य है। लेकिन मूल ये तीन विधायें अवश्य हैं। अच्छी कहानी वह होती है जिसकी भाषा में कविता हो। अच्छी कविता वह होती है जिसमे कहानी हो। अच्छा उपन्यास वह होता है जिसमे कई कहानियां, कई कविताएं हों। कविता के बारे में सुमित्रानंदन पंत ने पहले ही लिखा है-

वियोगी होगा पहला कवि,

आह से उपजा होगा गान।

निकलकर आँखों से चुपचाप,

बही होगी कविता अनजान..।

यह तो बीसवीं सदी का फलसफा है। बाल्मीकि के सृजन की शुरुआत क्रौंचवध के मार्मिक दृश्य की कथा से होती है। अब से हजारों वर्ष पहले लिखी गयी बाल्मीकि रामायण और बीसवीं सदी के फलसफे को एक साथ रख कर पढ़ें तो यह सत्य उद्घाटित होता है कि हमारे साहित्य में भौतिवाद के सरोकार हैं ही नहीं। हमारा साहित्य भावप्रवण है। भावप्रवण दृश्य को उकेरने में भौतिक पदार्थो का जिक्र है। पैनी नजर से उसका सूक्ष्मदर्शी चित्रण है। मूलतत्व, केंद्रीय तत्व नहीं है।

इस सदी में जब भौतिकवाद अपने चरम पर है तब भी भारतीय साहित्य के केंद्र में ‘मैटर‘ नहीं है। ऐसे में प्राचीन भारतीय इतिहास में भौतिवाद की तलाश सार्थक कोशिश नहीं कही जाएगी क्योंकि उस समय मनुष्य ने अपनी अनंत जरूरतों को नियंत्रित कर रखा था। प्रकृति उसके जीने के लिए सब कुछ मुहैया करा रही थी। समाज ने विनिमय के माध्यम से संग जीना स्वीकार कर लिया था।

भौतिकवाद किसी भी साहित्य का प्राण तत्व नहीं हो सकता। क्योंकि उसके वर्णन में इतना ठसपन होगा, इतनी यांत्रिकता, कृत्रिमता होगी की वह साहित्य के मानदंडों पर खरा नहीं उतर सकेगा। आत्मबोध और जगतबोध के काम नहीं आ सकेगा। सत- चित -आनंद और ब्रह्म के तीन स्वरूपों के साथ ही साहित्य के लिए सत्यम, शिवम्, सुन्दरम की कसौटी भी जरूरी है। कोई साहित्य अगर आनंद न दे सके तो वह अपनी सार्थकता खो देता है। भौतिकवाद सुख देता है आनंद नहीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, किसी काव्य का श्रोता या पाठक जिन विषयो को मन में लाकर रति, करुणा, क्रोध, उत्साह इत्यादि भावों तथा सौंदर्य, रहस्य, गाम्भीर्य आदि भावनाओं का अनुभव करता है, वे अकेले उसी के ह्दय से सम्बन्ध रखने वाले नहीं होते, मनुष्य मात्र की भावात्मक सत्ता पर प्रभाव डालने वाले होते हैं। यह शक्ति साहित्य के भौतिकवादी तत्व में नहीं हो सकती। शायद इस सत्य और तथ्य से हमारे पुरखे बहुत पहले अवगत हो चुके थे। इसीलिए उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य में भौतिकवाद अथवा भौतिक तत्वों को वह जगह नहीं दी जिससे प्राचीन भारतीय साहित्य में भौतिकवाद के वर्तमान सरोकार तलाशे या पुष्ट किये जा सकें।

प्राचीन भारतीय साहित्य की समूची अवधारणा में लोकमंगल है। यहां साहित्य का उद्देश्य स्पष्ट है। हमारे यहां किसी अमंगल के लिए साहित्य की कोई कल्पना नहीं है। यही साहित्य का विधिवत प्रायोजन है। यही कारण है कि प्राचीन भारतीय संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य की रचना के उद्देश्यों पर भी गंभीर विचार विमर्श हुआ है। भरत से लेकर विश्वनाथ तक ने काव्य का प्रयोजन पुरूषार्थ चतुष्ठ्य की प्राप्ति माना है। पुरुषार्थ चतुष्ठ्य से अभिप्राय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति से है। आचार्य मम्मट ने अपने पूर्ववर्ती समस्त विचारों का सार प्रस्तुत करते हुए काव्य रचना के छः प्रयोजन गिनाए हैं।-

कावयं यशेर्थ कृते व्यवहारविदे शिवेत रक्षतये।

सद्यः परिनिर्वृते कांतः सम्मितयोपदेशयुजे।

(काव्य प्रकाश)

अर्थात् काव्य यश की प्राप्ति संपत्ति लाभ सामाजिक व्यवहार की शिक्षारोगादि विपत्ति का नाश तुरंत ही उच्च कोटि के आनंद का अनुभव और कान्ता के समान मनभावन उपदेश देने के लिये उपादेय है।रचना का एकमात्र उद्देश्य लोक मंगल है। इस मंगल का देह नहीं भाव और संवेदना से सम्बन्ध हैं। जबकि भौतिकवाद सिर्फ दैहिक सुख तक सिमट कर रह गया है। चार्वाक दर्शन अपवाद कहा जा सकता है। नियम, निरंतरता, परंपरा या गाहृयता नहीं कही जा सकती। फिर अपवाद के बूते भारतीय दर्शन में भौतिकवाद तलाशना, भारतीय साहित्य में भौतिकवाद स्वीकार करना कोई समझदारी भरा कदम नहीं होगा। वो भी तब जब चार्वाक अस्वीकार किया जा चुका हो।

Yogesh Mishra

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Journalism for Yogesh Mishra is not a profession but a mission. In his career, spanning over 26 years, he has served just not as journalist but an educationist and literary as well. Looking at journalism as an instrument of change, he has also highlighted corruption and problems faced in various sectors like education, health, water, sanitation and agriculture. The exposes to his credit which deserve mention include largest tax evasion in the country by Hasan Ali and the fraud committed by 25 Indians, while he was working for the Outlook magazine as the UP Bureau Head. The amount involved was whopping Rs 18,000 crores. He was the first to report the PMO’s involvement in the ‘2G Spectrum Scam’, during the UPA regime. Another commendable work by him is exposing the Commonwealth Games Scam along with the video footage of a meeting before the beginning of the tournament. The issue of banning the video is sub judice. His news item, “Uttar Pradesh ke sau gaon bhi Nirmal Gram Pusaraskar ke layak nahi” exposed how the state government wrongly claimed prizes for 1,269 villages. It led to the cancellation of the prizes. Even UNICEF research testified and led to discontinuation of the NIRMAL GRAM AWARDS. He is, presently Member of Fee Review committee set up by the government of Uttar Pradesh to fight menace of arbitrary fee structure in private schools across the state. Many of his suggestions concerning electoral reforms have been adopted and implemented by the Election Commission of India. He was a member of the ‘Navoday Vidyalaya Samiti’, review committee constituted by Govt. of India for the implementation of Sarv Siksha Abhiyaan in UP. Besides writing in national and international newspapers and magazines, he has taken up teaching assignments and served as a visiting faculty in about a dozen universities. Author of ten books, he has also received prestigious Madhu Limaye and Yash Bharti awards. His new goal is to set up a new media house. A beginning has been already made as he has launched a multi-lingual news portal and a weekly magazine, Apna Bharat.

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