दो और दो केवल चार ही नहीं होते

Dr. Yogesh mishr
Published on: 24 Feb 2015 1:59 PM IST
इस साल की फरवरी के तीसरे शनिवार के दिन सर्वार्थ अमृत सिद्धि योग था। एक पक्ष मंे पंद्रह योग पडते हैं, उनमें अगर तृतीया तिथि हो, शनिवार हो और ऐसे साध्य योग हांे तो सम्बंधों के लिए यह अनुकूल ही नहीं बल्कि अविस्मरणीय क्षण भी कहे जा सकते हैं। शायद ग्रहों के इसी संयोग का नतीजा था कि देश भर ने फरवरी के तीसरे शनिवार को राजनेताओं के उपस्थिति के अद्भुत संयोग के चित्र देखे। यह चित्र मुलायम सिंह यादव के गांव सैफई से जारी हुए। सैफई में ही विपरीत छोर के राजनेताओं का अद्भुत संगम था। कभी मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री की गद्दी से महरूम करने वाले लालू प्रसाद यादव गलबहियां कर रहे थे। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने लालू और मुलायम के रिश्तों का गवाह बनकर इस संयोग की विलक्षणता को और बढा दिया। हर घटना और हर संयोग से राजनीति तलाश लेने वाले भले ही इसे नई सिसायी इबारत का नाम देकर विश्लेषण की कूचियों से पन्ने भरने की कोशिश करें। लेकिन हकीकत इससे जुदा है।

नरेंद्र दामोदरदास मोदी और भारत क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी दो ऐसी शख्सियत हैं, जो मेकओवर पर यकीन नहीं करते। इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी का मुलायम सिंह यादव के पोते तेज प्रताप यादव और लालू प्रसाद यादव सबसे छोटी बेटी राजलक्ष्मी के तिलकोत्सव में आना उनके ‘चाल चरित्र और चेहरे’ में बदलाव का नतीजा है। नरेंद्र मोदी ने बीते दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से बंगलुरू के डाक्टर को अपने खांसी दिखाने की राय दी थी, कहा, ‘‘बंगलुरु में योग गुरु डॉ. नागेंद्र इस तरह की असाध्य बीमारी से निजात दिलाते हैं।’’ यही नहीं, नरेंद्र मोदी फिल्मी सितारे और अपने प्रशंसक सलमान खान की बहन की शादी में नहीं जा पाये थे। वह भी तब जबकि उस विवाह में शिरकत कर नरेंद्र मोदी राजनीति में मणिकांचन योग उत्पन्न कर सकते थे। सलमान उनके प्रशंसकों में हैं। अल्पसंख्यक भी हैं। मतलब साफ है कि मेकओवर की मोदी को चिंता नहीं रहती है। वह इस बात की फिक्र नहीं करते कि जमाना क्या सोचेगा ? शायद उनकी सफलताओं का यही राज भी है, क्योंकि लंबे समय तक वह राजनीति में अस्पृश्यता के शिकार रहे हैं। उन्होंने कथित और छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर राजनैतिक वनवास झेला है। इसी आधार पर ही अमेरिका ने उन्हें वीजा देने तक से मना कर दिया था। मतलब साफ है कि मोदी से दूसरों ने दूरी बनाई। दूसरों से मोदी ने नहीं। मोदी को लेकर राजनैतिक अस्पृश्यता का जो माहौल तैयार किया गया था, वह भी धर्मनिरपेक्षता की कथित राजनीति करने वालों ने बनाया था। शायद इसी सच्चाई की अनभिज्ञता का ही नतीजा है कि आज जब मोदी अपने तमाम धुर विरोधियों के व्यक्तिगत समारोह में ही सही, हमकदम हैं, तो यह दृश्य और वाकया दोनो लोगों को चैंका रहा है।

जिन्होंने मोदी का विरोध किया था, उन्हें अस्पृश्यता की कोटि में खड़ा किया था, उन्हें यकीन नही हो रहा होगा कि कल तक जिसके खिलाफ सियासत की हर चालें चली गयीं, वह राजनीति और व्यक्तिगत रिश्तों को अलग-अलग करके देखने की मनःस्थिति में कैसे आ गया है। जो लोग दोनो पक्षों के बीच खिंची तलवारों के गवाह रहे हैं, उन्हें भी यह दृश्य इसलिए चैंका रहा है क्योंकि इसे अभी ज्यादा दिन हुए नहीं है।

लगता है कि इस तरह सोचने वाले हर शख्स और तबके की स्मृति धुंधली हो उठी है। पंडित जवाहर लाल नेहरु और डॉ. राम मनोहर लोहिया के सियासी विरोध और निजी रिश्तों की बनागी उन्हें नहीं पता है। अटल बिहारी वाजपेयी और जवाहरलाल नेहरु के बीच के रिश्ते, अटल बिहारी वाजपेयी और इंदिरा गांधी के बीच के रिश्तों के बीच की तासीर उस तबके और उन शख्स को याद नहीं है, जो आज मोदी-मुलायम-लालू के रिश्तों की तस्वीर टेढी निगाह से देख रहे हैं। संसद में प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में टिप्पणी की थी- ‘‘मैं भविष्य के प्रधानमंत्री को सुन रहा हूं।’’ बांग्लादेश बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था। इंदिरा सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधि करने का मौका किसी कांग्रेसी को नहीं बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी को दिया था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हाराव सार्वजनिक तौर पर अटल जी को अपना राजनैतिक गुरु मानने से नहीं हिचकते थे।

इस तरह के रिश्ते और उसकी तासीर गये जमाने की बात हो गयी है। क्षेत्रीय दलों के आविर्भाव ने राजनीति से शिष्टाचार लोप कर दिया। सियासी विरोध ने व्यक्तिगत शक्ल अख्तियार कर ली। पिछले लोकसभा चुनाव के पहले तक नरेंद्र मोदी को लेकर विरोध के स्वर की तल्खी इससे भी कुछ ज्यादा थी। कांग्रेस तो मोदी से दो-दो हाथ कर ही रही थी। क्योंकि कांग्रेस को ही अपनी सत्ता मोदी के हवाले करनी थी। बावजूद इसके लालू प्रसाद यादव, नीतिष कुमार और मुलायम सिंह यादव, जो उस समय तक एक नहीं थे, बिहार और उत्तरप्रदेश में मोदी विरोध की अलम थामे हुए थे। शायद इसीलिए लोगों को मुलायम-लालू के घर तिलक के चित्र में मोदी अखर रहे हैं। लोगों को लग रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मेकओवर’ कर रहे है? लेकिन हकीकत यह है कि मोदी अपने इरादों में इतने रुढ़ हैं कि वह ‘मेकओवर’ नहीं करते। वह जानते थे कि टोपी न पहनने का क्या मतलब और असर हो सकता है ? फिर भी उन्होने चुनाव के दौरान भी एक खास किस्म की टोपी नहीं पहनी। ऐसे में इस पूरे मेल मुलाकात को वैसे तो राजनीति में शिष्टाचार की तरह ही लेना चाहिए। इसके अर्थ नहीं खोजे जाने चाहिए। पर यह लोगों को चैंकाता है, क्योंकि इस बात पर यकीन करना आसान नहीं है कि एक दूसरे के खिलाफ जहरीले बोल बोलने वालों के संबंध ऐसे हो सकते हैं ! मोदी के खिलाफ उनके सूट से लेकर व्यक्तित्व तक आग उगलने वाले लालू की बेटी को मोदी तूस की शाल भेंट करें। मुलायम लालू के इस संगम कराने वाले वर-वधु पर पंखिडियां छिड़कें।

हर कोई इस मेलजोल की अलग-अलग व्याख्या कर रहा है। अपने-अपने निहतार्थ खोजने में लगा है। बहुत सारे लोग यह भी मानते हैं यह मोदी का सोचा समझा ‘मूव’ है। इसका एक सिरा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) राजनीति से जुड़ता है। इसी साल बिहार में चुनाव है। नितीश के सारथी बन लालू सिसायी महाभारत में मोदी पर ही बाण चालायेंगे। भले ही प्रत्यक्ष तौर पर नहीं पर सिसासी हथियार के तौर पर भाजपाई इस मेल मुलाकात को कर्ण के कुंडल कवच की तरह इस्तेमाल करेंगे। इस मेलजोल को सियासी महाभारत का शिखंडी बनायेंगे। बिहार की राजनीति में पिछडों की ताकत को हर कोई समझता है। तो ऐसा नहीं कि यह सिर्फ कवच ही बने। हथियार भी बन सकता है। बिहार चुनाव को मांझी फैक्टर अब हर हाल में प्रभावित करेगा। वहीं इस मेल मुलाकात की तस्वीरें कहीं ना कहीं मांझी फैक्टर और महादलित महापिछडों की राजनीति को भाजपा के मनमुताबिक मोडने में भी सक्षम हो सकती हैं, बनायी जा सकती हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा की लडाई कांग्रेस से नहीं मुलायम से है। मुलायम मोदी पर हमला करेंगे तो कहीं ना कहीं उनके अंतःचेतना में यह मेलजोल होगी। ये चेतना हमले की धार भी तय कर सकती है। कम से कम सोशल मीडिया की ताकत को देख यह भाजपा के लिये एक बडा कवच और हथियार बन सकता है। बहुत सारे लोग गैर कांग्रेसवाद की ‘सकल सहमति’ के प्रस्थान बिंदु के तौर पर इसे देख सकते हैं। पर यह सब सोचने-विचारने, तर्क-वितर्क करने के बीच यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री बनने के लिए गुजरात छोड़ उत्तर प्रदेश आए। मोदी ने इस जुमले पर यकीन किया कि प्रधानमंत्री ‘हिंदी हार्टलैंड’ का होगा, ‘काऊबेल्ट’ का होगा। दिल्ली की गद्दी का रास्ता उत्तर प्रदेश की सियासी गलियों से होकर जाता है। लोकसभा चुनाव में मोदी के मुकाबिल मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी थी। लेकिन पूरे चुनाव में नरेंद्र मोदी “नेताजी” से नीचे नहीं उतरे और मुलायम सिंह यादव “मोदी साहब” ही कहते रहे। नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में मुलायम सिंह यादव की जमीन खींच ली। मुलायम सिंह यादव ने यूपी के उपचुनाव में मोदी की जमीन पर साइकिल दौड़ा कर दिखा दिया। लॉग-डाट का यह खेल हाल- फिलहाल भी जारी है। मोदी को उत्तर प्रदेश की भी सत्ता चाहिए। लेकिन वह जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव सिर्फ सरकार नहीं बनाते। कई बार वह हारकर भी जीतते हैं। वह लोगों का दिल जीतते हैं। यही वजह है कि उनके पास वोटों की एक मुकम्मल थाती है। लोगों के विश्वास की एक बड़ी धरोहर है। देश में उनके प्रति श्रद्धा दलीय प्रतिबद्धता की मोहताज नहीं है। मुलायम सिंह यादव भी राजनीति को दलीय प्रतिबद्धताओं से ऊपर उठकर देखते और करते हैं। कहा जाता है कि वह विपक्ष के काम को अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के काम से कम तरजीह नहीं देते। यही वजह है कि संप्रग सरकार के दस साल में भले ही मजबूरी में कांग्रेस का समर्थन किया हो पर राज्यसभा के जरिये दो बार उनके नेताओं को सांसद बनाया। मोदी सरकार को राज्यसभा में तीसरी सबसे बड़ी ताकत समाजवादी पार्टी की दरकार भी है।

इस दृश्य में दिखने वाला और देखने वाला सब जीते हैं। लालू की जीत यह है कि लंबे समय से मुलायम सिंह यादव से रिश्ता बनाने की ख्वाहिश पूरी हुई। मुलायम की जीत यह है कि उनके धुर विरोधी लालू उनकी सरपरस्ती स्वीकार करते हैं। नरेंद्र मोदी उनके गांव आते हैं, वहां का विकास देखते हैं। मोदी की जीत यह है कि दलीय प्रतिबद्धताओं से ऊपर उठकर की जाने वाली राजनीति को अतीत से वर्तमान में सजीव करने में वह कामयाब होते हैं। मोदी का ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारा सिर्फ चुनावी जुमला नहीं है। हालांकि इसका मौका मुहैया कराने का श्रेय मुलायम को जाता है।
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