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Dr Bhimrao Ambedkar: आम्बेडकर, समरसता और संघ
Dr Bhimrao Ambedkar: डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों से प्रभावित हुए थे। उन्हें वर्ष 1939 में पुणे में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रशिक्षण शिविर को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि शिविर में सभी जातियों के लोग प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं।
Dr Bhimrao Ambedkar: देश में सामाजिक समता एवं सामाजिक न्याय के लिए प्रमुखता से स्वर मुखर करने वालों में डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर का नाम अग्रणीय है। उन्होंने बाल्यकाल से ही अस्पृश्यता का सामना किया था। विद्यालय से लेकर नौकरी तक उन्होंने भेदभाव का दंश झेला। इससे उनकी आत्मा चीत्कार उठी। उन्होंने अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए कार्य करने का संकल्प लिया। उन्होंने देशभर की यात्रा की तथा दलितों के अधिकारों के लिए स्वर मुखर किया। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अस्पृश्यता के उन्मूलन के कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। उनका मानना था कि सेवक बनकर ही कोई बड़ा कार्य किया जा सकता है। इसलिए वह कहते थे- "एक महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है।"
मैं स्वयं ही संघ हूं
डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर ने सामाजिक समरसता का जो स्वप्न देखा था, उसे साकार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अभियान चला रहा है। वास्तव में संघ अपने स्थापना काल से ही सामाजिक समरसता के लिए कार्य कर रहा है। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगवार ने सामाजिक समरसता, एकता, अखंडता एवं सशक्त समाज के निर्माण के उद्देश से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। उनका कहना था कि हमारा निश्चय एवं स्पष्ट ध्येय ही हमारी प्रगति का मूल कारण है। हम लोगों को हमेशा सोचना चाहिए कि जिस कार्य को करने का हमने प्रण किया है, और जो उद्देश्य हमारे सामने है, उसे प्राप्त करने के लिए हम कितना कार्य कर रहे हैं। प्रत्येक अधिकारी एवं शिक्षक को प्रत्येक के मन में यह विचार भर देना चाहिए कि मैं स्वयं ही संघ हूं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने चरित्र पर विचार करना चाहिए। अपने चरित्र को कभी भी कमजोर व क्षीण न होने दें। आप इस भ्रम में न रहें कि लोग हमारी ओर नहीं देखते। वे हमारे कार्य तथा हमारे व्यक्तिगत आचरण की ओर आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। हमें केवल अपने कार्य में व्यक्तिगत चाल-चलन की दृष्टि से सावधानी नहीं बरतनी चाहिए, अपितु सामूहिक एवं सार्वजनिक जीवन में भी इसका ध्यान रखना चाहिए।
वह कहते थे कि बिना कष्ट उठाए और बिना स्वार्थ त्याग किए, हमें कुछ भी फल मिलना असंभव है। अपने समाज में संगठन निर्माण कर उसे बलवान तथा अजेय बनाने के अतिरिक्त हमें और कुछ नहीं करना है। इतना कर देने पर सारा कार्य स्वयं ही हो जाएगा। हमें आज सताने वाली सारी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याएं आसानी से हल हो जाएंगी। अनुशासन अपने संगठन की नींव है, इसी पर हमें विशाल इमारत को खड़ा करना है। किसी भी भूल से यदि नींव जरा सी भी कच्ची रह गई, तो इमारत का उस ओर का भाग ढल जाएगा। इमारत में दरार पड़ जाएगी और आखिर में वह संपूर्ण इमारत ढह जाएगी। जीवन में निस्वार्थ भावना आए बिना खरा अनुशासन निर्माण नहीं होता।
सामाजिक समरसता के बारे में उनका कहना था कि संघ का लक्ष्य भारत राष्ट्र को पुनः परम वैभव तक ले जाना है। समरसता के बिना, समता स्थायी नहीं हो सकती, और दोनों के अभाव में राष्ट्रीयता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमारा कार्य अखिल हिंदू समाज के लिए होने के कारण, उसके किसी भी अंग की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा। सभी हिंदू भाइयों के साथ फिर वह किसी भी उच्च या नीच श्रेणी के समझे जाते हों, हमारा व्यवहार हर एक से प्रेम का होना चाहिए। किसी भी हिंदू भाई को नीच समझकर उसे दुत्कारना पाप है। वह कहते थे कि संघ का कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिए हमें लोक संग्रह के तत्वों को भली भांति समझ लेना होगा। संघ केवल स्वयंसेवकों के लिए नहीं, अपितु संघ के बाहर जो लोग हैं, उनके लिए भी है। हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि उन लोगों को हम राष्ट्र के उद्धार का सच्चा मार्ग बताएं।
वयोवृद्ध लोगों का संघ कार्य में काफी महत्वपूर्ण स्थान है। वे संघ के महत्वपूर्ण कार्यों का दायित्व उठा सकते हैं। यदि प्रौढ़ लोग अपने प्रतिष्ठा और व्यवहार कुशलता का उपयोग संघ कार्य किए तो करें, तो युवा अधिक उत्साह से कार्य कर सकेंगे। प्रत्येक व्यक्ति को उत्साह और हिम्मत से आगे आना चाहिए, और संघ कार्यों में जुट जाना चाहिए। इस समाज को जागृत एवं संगठित करना ही राष्ट्र का जागरण एवं संगठन है। यही राष्ट्र धर्म है। ध्येय पर अविचल दृष्टि रखकर, मार्ग में मखमली बिछौने हो या कांटे बिखरे हों, उनकी चिंता न करते हुए निरंतर आगे ही बढ़ने को दृढ़ निश्चय वाले क्रियाशील तरुण खड़े करने पड़ेंगे। पूर्ण संस्कार दिए बिना, देशभक्ति का स्थाई स्वरूप निर्माण होना संभव नहीं है तथा इस प्रकार की स्थिति का निर्माण होने तक सामाजिक व्यवहार में प्रमाणिकता भी संभव नहीं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने सामाजिक समरसता पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि समरसता के लिए आत्मग्लानि दूर करने के लिए आत्मबोध को जगाना पड़ेगा, स्वार्थ के स्थान पर निस्वार्थ भाव का निर्माण करना पड़ेगा। सभी भेदों को भुलाकर एकात्मकता का भाव जागृत करना पड़ेगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। महात्मा गांधी भी संघ के कार्यों से प्रभावित हुए थे। उन्होंने वर्ष 1934 में वर्धा में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शिविर देखा था, जिसमें सभी जातियों के लोग सम्मिलित हुए थे। इसमें दलित समाज के लोग भी थे। उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि आपके संगठन में अस्पृश्यता का अभाव देखकर मैं बहुत संतुष्ट हूं।
इसी प्रकार डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों से प्रभावित हुए थे। उन्हें वर्ष 1939 में पुणे में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रशिक्षण शिविर को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि शिविर में सभी जातियों के लोग प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। इसमें दलित समाज के लोग भी सम्मिलित थे। शिविर में सबके साथ समान व्यवहार किया जा रहा था।
उल्लेखनीय है कि हमारे पवित्र धार्मिक ग्रंथों में समरसता का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है- “पंडिता: समादर्शिन:” अर्थात विद्वान सबको समान दृष्टि से देखते हैं। कहने का अभिप्राय है कि विद्वान सबको समान मानते हैं तथा वे किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते।
भीमराव आम्बेडकर समानता पर सर्वाधिक बल देते थे। वह कहते थे कि अगर देश की अलग-अलग जातियां एक दूसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी, तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते ,हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें, जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं। एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है अपितु इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है।
राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है, वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी हैं। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए।
आम्बेडकर ने दलित समाज के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान के लिए किया काम
भीमराव आम्बेडकर ने दलित समाज के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। उनका कहना था कि आप स्वयं को अस्पृस्य न मानें, अपना घर साफ रखें। पुराने और घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी हैं जो हमारे मौलिक अधिकारों की विरोधी हैं। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।
वह कहते थे कि आदि से अंत तक हम सिर्फ एक भारतीय है। हम जो स्वतंत्रता मिली हैं उसके लिए क्या कर रहे हैं? यह स्वतंत्रता हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए मिली हैं। जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी हुई है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करती है। स्वोतंत्रता का अर्थ साहस है, और साहस एक पार्टी में व्याक्तियों के संयोजन से पैदा होता है। वह यह भी कहते थे कि देश के विकास के लिए नौजवानों को आगे आना चाहिए। पानी की बूद जब सागर में मिलती है तो अपनी पहचान खो देती है। इसके विपरीत व्यक्ति समाज में रहता है पर अपनी पहचान नहीं खोता। इंसान का वन स्वतंत्र है। वह सिर्फ समाज के विकास के लिए पैदा नहीं हुआ, अपितु स्वयं के विकास के लिए भी पैदा हुआ है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि हम लोगों को समझना चाहिए कि लौकिक दृष्टि से समाज को समर्थ, सुप्रतिष्ठित, सद्धर्माघिष्ठित बनाने में तभी सफल हो सकेंगे, जब उस प्राचीन परंपरा को हम लोग युगानुकूल बना, फिर से पुनरुज्जीवित कर पाएंगे। युगानुकूल कहने का यह कारण है कि प्रत्येक युग में वह परंपरा उचित रूप धारण करके खड़ी हुर्इ है। कभी केवल गिरि-कंदराओं में, अरण्यों में रहने वाले तपस्वी हुए तो कभी योगी निकले, कभी यज्ञ-यागादि द्वारा और कभी भगवद्-भजन करने वाले भक्तों और संतों द्वारा यह परंपरा अपने यहां चली है।
( लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में एसोसियेट प्रोफेसर हैं।)