प्रायोजित विरोध और ओढ़ी हुई खामोशी

महात्मा गांधी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक सभी नेताओं ने नशे को विनाशकारी बताया है। फिर भी लोकगायक कोवन जैसी आवाज़ों को दबाया गया। यह लेख प्रायोजित विरोध और ओढ़ी हुई खामोशी के दौर पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

Yogesh Mishra
Published on: 18 Sept 2025 3:58 PM IST
From Gandhi to Modi Freedom of Expression and Covan Anti-Alcohol Protest
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From Gandhi to Modi Freedom of Expression and Covan Anti-Alcohol Protest

Sponsored Protests in India: राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था—“जो राष्ट्र शराब की आदत का शिकार है, उसके सामने विनाश मुँह बाए खड़ा है। इतिहास में इसके कितने ही प्रमाण हैं कि इस बुराई के कारण कितने ही राष्ट्र मिट्टी में मिल गए।” प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी शायद कुछ इसी से सीख लेते हुए ‘मन की बात’ की अपनी श्रृंखला में पूरा एक एपीसोड नशे पर केन्द्रित किया था। इसमें उन्होंने ड्रग्स और नशे के ‘3-डी’ असर के बारे में बताया था—‘डार्कनेस, डिस्ट्रैक्शन और डिवास्टेशन’, यानी अंधकार, भटकाव और बर्बादी। गांधी से लेकर मोदी तक शायद ही कोई ऐसा नेता या विचारक हो, जिसने नशे को लेकर चिन्ता न जताई हो। पर यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गांधी के देश में नशे के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोकगायक कोवन को सरकारी जुल्म और ज्यादती का शिकार होना पड़ा।

कोवन, जिन्हें कामरेड कोवन भी कहा जाता है, की शराब विरोधी मुहिम तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जे. जयललिता को रास नहीं आई। हालांकि कोवन ने अपनी इस मुहिम को पूरी तरह लोकतांत्रिक रखा। उन्होंने तमिलनाडु की शराब की दुकानों के सामने खुद लिखे गीतों के माध्यम से शराब न पीने की नसीहत दी और लगातार शराबखोरी बढ़ाने में जुटी राज्य सरकार को बेनकाब करने की कोशिश की। कोवन लोक कलाकार और कम्युनिस्ट नेता हैं। उन्होंने अपने गीतों में सरकार की उस मंशा का भी पर्दाफाश किया, जिसके तहत शराबखोरी को बढ़ावा देने की नीति की मजबूरी उजागर होती है। कोवन के मुताबिक, यह मजबूरी इसलिए है क्योंकि तमिलनाडु में शराब बनाने के कारखानों का मालिकाना हक जयललिता की सखी शशिकला के पास है।

जे. जयललिता और शशिकला का रिश्ता भरोसे और विश्वासघात की अजब कहानी रहा है। शशिकला को पिछले 25 साल से जयललिता की छाया कहा जाता था। उनके हाथ जयललिता की सियासत और रोजमर्रा की ज़िन्दगी की डोर रही। इसी शशिकला के बेटे को जयललिता ने अपनाया और वर्ष 1995 में उसकी शादी में 100 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए। कहा जाता है कि जयललिता सत्ता में रही हों या विपक्ष में, कोई भी निर्णय शशिकला की मर्जी के बिना नहीं होता था। शपथ जयललिता लेती थीं लेकिन शासन पर नियंत्रण शशिकला का ही था।

17 दिसम्बर, 2011 को जयललिता ने अचानक शशिकला और उसके रिश्तेदारों को अपने घर से निकाल दिया। उससे पहले जयललिता के घर के लगभग सभी नौकर, ड्राइवर, रसोइये और सुरक्षाकर्मी शशिकला के गाँव मन्नारगुड़ी से लाए गए लोग थे। राजनीतिक हलकों में इन्हें “मन्नारगुड़ी माफिया” कहा जाने लगा था।

तमिलनाडु में शराब का कारोबार 27 हजार करोड़ रुपये का है, जबकि शिक्षा पर 21 हजार करोड़ रुपये और चिकित्सा पर मात्र 8,500 करोड़ रुपये ही खर्च होते हैं। देश में शराब का कुल बाज़ार लगभग 12 बिलियन डॉलर है, जबकि स्वास्थ्य पर खर्च 5 बिलियन डॉलर और शिक्षा पर केवल 70 हजार करोड़ रुपये है।

प्रधानमंत्री मोदी ने ‘मन की बात’ में नशे को देश की पीड़ा बताया और जिम्मेदारी का माहौल बनाने पर ज़ोर दिया। उन्होंने अभिभावकों से अपील की कि वे बच्चों को ध्येयवादी और स्वप्नदृष्टा बनाएं। साथ ही नौजवानों को चेताया कि ड्रग्स का पैसा आतंकवादियों तक पहुँचता है, जो शस्त्र खरीदकर देश के जवानों के सीने में गोलियाँ दागते हैं।

शराब को सभी बुराइयों की जड़ माना गया है। पर महात्मा गांधी से लेकर मोदी तक की कही बात को दोहराने और सत्य को उजागर करने मात्र से लोकगायक कोवन को देशद्रोही बना दिया गया। जयललिता सरकार ने उन्हें राजद्रोही सिद्ध करने के लिए धुर विरोधी करुणानिधि को भी साधा। कहा गया कि कोवन करुणानिधि को भी निशाना बना रहे हैं। यानी यहाँ “दुश्मन का दुश्मन दोस्त” वाली कहावत चरितार्थ हुई। यह स्थिति केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं दिखती।

कोवन के पक्ष में न तो किसी वामपंथी दल के नेता और विचारक ने आवाज उठाई, न ही सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा उठाने वाली कांग्रेस ने इस मुद्दे पर कुछ कहा। हद तो यह रही कि नरेन्द्र मोदी को छोड़कर बाकी सभी ने गांधी के तीन बंदरों की भूमिका ओढ़ ली—न देखना, न सुनना, न बोलना। आज़ादी का गला घोंटने पर हाय-तौबा मचाने वाले साहित्यकार, कलाकार और वैज्ञानिक भी कोवन के साथ हो रही ज्यादती को केवल “इलाकाई” मामला मानकर चुप रहे।

यहीं तक मामला सीमित रहता तो भी चिंता कम होती। पर अब तो विरोध को कुचलने के साथ नेताओं में विरोध सुनने की प्रवृत्ति ही लुप्त होती जा रही है। तभी तो अंबेडकर के कार्टून छापने वाली किताब खारिज कर दी जाती है और सभी कार्टून पाठ्यपुस्तकों से हटा दिए जाते हैं। ममता बनर्जी के खिलाफ कार्टून बनाने वाले जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र और उनके पड़ोसी सुव्रत सेनगुप्ता को अप्रैल 2012 में गिरफ्तार कर लिया गया। मुंबई के पालघर की दो लड़कियाँ—शाहीन ढाडा और रीनू श्रीनिवासन—को नवम्बर 2012 में हिरासत में लिया गया क्योंकि उनमें से एक ने फेसबुक पोस्ट डाली थी और दूसरी ने उसे “लाइक” किया था।

एयर इंडिया के क्रू-मेंबर मयंक मोहन शर्मा और के.वी.जे. राव को मई 2012 में मुंबई पुलिस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और अन्य नेताओं पर जोक शेयर करने के आरोप में गिरफ्तार किया। किश्तवाड़ के तीन युवकों को अक्टूबर 2012 में 40 दिन के लिए जेल भेज दिया गया क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर ईशनिंदा वाला वीडियो फेसबुक पर डाला था। बिजनेसमैन रवि श्रीनिवासन को अक्टूबर 2012 में ट्विटर पर पी. चिदंबरम के बेटे के खिलाफ टिप्पणी लिखने पर गिरफ्तार किया गया। उत्तर प्रदेश में एक छात्र को केवल आज़म खाँ पर की गई टिप्पणी के कारण जेल जाना पड़ा।

कवि कंवल भारती को अगस्त 2013 में फेसबुक पर एक संदेश डालने पर पुलिस ने घर से ही उठाया। तब भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अलमबरदार चुप थे। दरअसल, हमारे चिन्तक, साहित्यकार, वैज्ञानिक, कलाकार और पत्रकार खुलकर खेमेबाज़ी की नैतिकता निभाते दिखे। राजनीति जाति और परिवार से बाहर सोचने को तैयार नहीं है, पत्रकारिता मुनाफे के खोल से बाहर नहीं आ रही है।

हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ “स्व” ही “सर्वस्व” बन गया है। पास-पास तो हैं, पर साथ-साथ नहीं। जब छोटा राजन पकड़ा गया तो रामदास अठावले ने कहा कि वह दलित है, इसलिए पकड़ा गया। दरअसल, छोटा राजन का भाई दीपक अठावले की रिपब्लिकन पार्टी का सदस्य था। मायावती के खिलाफ सीबीआई जांच हुई तो उन्होंने दलित होने की ढाल बनाई। के.आर. नारायणन राष्ट्रपति बने तो दलित पहचान पर बल दिया गया। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी मुस्लिम बन उठे। अजहरुद्दीन पर फिक्सिंग के आरोप लगे तो वे मुसलमान बताए गए। लालू यादव पर जब जंगलराज का सवाल उठा तो मंडलराज याद आ गया। राहुल गांधी ने चुनाव में सैम पित्रोदा को लोहार जाति का बताकर जातीय कार्ड खेला। यहाँ तक कि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार द्वारा टोपी न पहनने को भी जाति और धर्म से जोड़ दिया गया।

आज़ादी के बाद से जातियों को खत्म करने की जितनी कोशिशें हुईं, वे उतनी ही निष्फल रहीं। हमारे प्रतीक पुरुष और प्रेरणा-स्रोत भी जाति और राजनीति की छीना-झपटी में उलझकर राष्ट्रीय फलक पर धुंधले पड़ गए। पहले हमारे प्रतीक पुरुष समस्याओं को राष्ट्रीय दृष्टि से देखते थे। आज समस्याएँ चाहे कहीं से आएँ, किसी भी दल या क्षेत्र से जुड़ी हों, उनके हल समग्र दृष्टि से किए जाते थे।

पर अब जब नशे के खिलाफ कामरेड कोवन बोलते हैं, तो यह दृष्टि नज़र नहीं आती। यह आकार नहीं दिखता। “अनेकता में एकता” और “वसुधैव कुटुंबकम्” की भावना के लिए यह एक बड़ा ख़तरे का संकेत है। इसे केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या सहिष्णुता के खांचे में रखकर नहीं देखना चाहिए। बल्कि इस ओढ़ी हुई खामोशी और प्रायोजित विरोध की प्रवृत्ति पर विचार करना ज़रूरी है। सवाल यह है कि हम भारत को अखंड कैसे रखेंगे? अनेकता में एकता कैसे कायम रखेंगे?

(मूलरूप से 03 नवम्बर, 2015 को प्रकाशित। सितंबर, 2025 को संशोधित।)

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