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तीन हजार दिन से अधिक का धरना और कुशीनगर में मैत्रेय का औचित्य ?
यहाँ काफी लोग उनके प्रति श्रद्धाभाव रखते हैं । यहां 660 एकड़ जमीन पर शांति के दूत मैत्रेयी बुद्ध का अवतार कराने के लिए पिछले एक दशक के अधिक समय से सरकारें जी तोड़ प्रयास कर रहीं हैं । भूमि अधिग्रहण से प्रभावित किसान तकरीबन तीन हजार से भी अधिक दिनों से आंदोलनरत हैं। उन्हें डर है कि जमीन अगर एक बार हाथ से निकल गई तो उनके मुंह के निवाले छिन जाएंगें। बच्चों के पेट की भूख नहीं मिट पाएगी। शादी-ब्याह में दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा।
प्रश्न यह है कि विकास के नाम पर गरीब किसानों को उनकी खेती योग्य जमीन से उजाड़ा जा सकता है। कुछ बुद्धिस्ट देशों को खुश करने वाले ऐसे प्रयास से समाज को क्या मिलेगा ? क्या वाकई कुशीनगर में विकास का पहिया तेजी घूमेगा, जिन किसानों की जमीन पर विकास की इबारत लिखने की तैयारी हो रही है, उनके घर के चूल्हे हमेशा जलते रहेगें ? अगर यह सपना सच है तो मैत्रेय को धरातल पर उतारने में देरी क्यों ? सरकार आगे-पीछे क्यों चल रही है ? इसे बातचीत से हल कर जल्दी से काम शुरू क्यों नहीं कराया जा रहा है ? ऐसे बहुत से प्रश्न लोगों के मन में कौंध रहे हैं, जिनका वो जवाब चाहते हैं।
बौद्ध धर्म गुरु दलाईलामा के ड्रीम प्रोजक्ट के रुप में प्रचारित कर मैत्रेय परियोजना को कुशीनगर की धरती पर उतारने का फैसला लिया गया था। 660.57 एकड़ जमीन अधिग्रहीत कर इसे उतारने के सरकारी प्रयास तेजी पर हैं। हालांकि यह प्रयास पिछले दस साल से अधिक समय से चल रहा है। इसमें कई उतार-चढ़ाव आते दिखे हैं। मायावती और फिर अखिलेश यादव की सरकार के प्रयास के कई चरणों को आम लोगों ने देखा है। फिर भी शान्ति के अग्रदूत मैत्रेयी बुद्ध का अवतार अब तक कुशीनगर की धरती पर सम्भव नहीं हो सका है। कारण चाहे जो भी हो लेकिन योजना व विकास के दावों के बीच प्रभावित किसानों का विरोध मुखरित है।
कुशीनगर मे महापरिनिर्वाण प्राप्त मुद्रा में लेटी हुई विशालकाय बुद्ध प्रतिमा पूरे विश्व जगत को अपनी ओर आकर्षित करती है। रामाभार स्तूप और एक दो मंदिर ऐसे हैं, जो पर्यटकों को अपनी ओर खींचते हैं। हालांकि वर्मा, चीन, जापान और थाईलैंड जैसे बुद्धिस्ट देशों ने भी विदेशी पर्यटकों को यहां लाने के लिए काफी कुछ किया है। विश्व पर्यटन से जुड़े आंकड़ों को देखा जाए तो सामान्य तौर पर प्रत्येक पर्यटन वर्ष यानि अक्टूबर से मार्च तक के बीच 60 से 70 हजार पर्यटकों की आवक है। यह भी तय है कि कुशीनगर में प्रस्तावित अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के अस्तित्व में आने पर पर्यटकों की संख्या में अभी और इजाफा होगा।
गौर करने वाली बात यह है कि एक ओर हवाई अड्डे के लिए अधिग्रहित की गई जमीन का कार्य बिना किसी विरोध के पूरा हो चुका है । वहीं इससे कुछ ही दूरी पर प्रस्तावित मैत्रेय परियोजना के लिए ली जाने वाली जमीन का विरोध अब भी जारी है। हालांकि यह सच है कि बुद्ध की इस धरती पर प्रस्तावित मैत्रेय परियोजना उतरने से पर्यटन को ऊंचाइयां मिलेंगी। क्षेत्र के लिए एक बड़ा कदम होगा, लेकिन मैत्रेय ट्रस्ट और सरकार के प्रतिनिधियों के बीच जो लुका-छिपी का खेल हो रहा है, वह स्थानीय किसानों को सोचने पर विवश कर रहा है।
एक प्रश्न और, जो विचारणीय है। मैत्रेयी बुद्ध की 550 फुट ऊॅंची प्रतिमा स्थापित करने का सवाल । एक ओर अन्र्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा और महज तीन-चार किमी के दायरे मे प्रस्तावित मैत्रेय परियोजना के बुद्ध की यह विशालकाय मूर्ति की कल्पना को कैसे साकार किया जाएगा ? दोनों की शर्तें एक-दूसरे के पूरा होने में बाधा उत्पन्न करने वाली हैं।
किसानो के आन्दोलन को नजरअंदाज करते हुए मैत्रेय परियोजना का शिलान्यास एक बड़े महोत्सव की तरह हुआ था। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा बौद्ध धर्मगुरु लामा जोपा रिंगपोछे ने संयुक्त रुप से इसमें शिरकत किया था। मौजूद लोगों को यह विश्वास हो चला था कि जब प्रदेश सरकार रुचि ले रही है तो मैत्रेय परियोजना निश्चय ही जमीन पर उतरेगी। कुशीनगर का चतुर्दिक विकास होगा लेकिन काफी समय बीतने के बावजूद मैत्रेय परियोजना के नाम पर अब तक एक ईंट भी नहीं रखी जा सकी है।
दूसरी ओर छोटे और मंझोले किसान आन्दोलन की राह पर हैं। उनके मन की पीड़ा पर मरहम लगाने के लिए अभी तक देश की कई चर्चित हस्तियों ने धरना स्थल पर आकर उनका समर्थन भी किया है। मेधा पाटेकर, सुभाषिनी अली, अरुंधती घुरु और संदीप पाण्डेय जैसे बड़े समाजसेवी यहां आ चुके हैं। मामले की जटिलता इस से भी समझ में आ रही है कि दिल्ली मे कुछ दिन पूर्व हुए अन्ना के आन्दोलन मे भी यहां के किसानों ने शिरकत जोरदार तरीके से की। आन्दोलनरत किसान तो अब ये कहने लगे हैं कि इस परियोजना को हटाकर सरकार हमारी जमीनों पर एम्स बनाने जैसे जनहित के फैसले ले तो हम सहर्ष अपनी जमीन दे देंगे ।
ऐसा लगता है कि दोनो पक्ष किसी की कोई बात समझने को तैयार नहीं हैं। किसान की जमीन उसके हाथ से निकल जाएगी फिर उसके पास बचेगा क्या ? ऐसा सोचकर वह कोई भी बात नहीं सुन रहा है। इस वजह से शासकीय फरमानों को लेकर किसानों के बीच आने वाले अधिकारी भी अब महज खानापूर्ति कर रहे हैं। अधिकार पूर्वक बात करने के आदी हो चुके अधिकारी किसानों को सिर्फ अपनी सुनाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में कोई निर्णायक हल निकलने के आसार नहीं दिख रहे हैं। किसानों को संघर्ष का ही रास्ता आसान लग रहा है।
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