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Land Acquisition Bill India: पांच गांव की जमीन से शुरू हुई थी महाभारत
Land Acquisition Bill India: पांच गांव की जमीन से शुरू हुई महाभारत आज भूमि अधिग्रहण विवाद के रूप में फिर दोहराई जा रही है।
Land Acquisition Bill India: पांच गांव नहीं देने की वजह से आर्यावर्त की जमीन महाभारत जैसे भीषण संग्राम की गवाह बनने को अभिशप्त हुई। जमीन का रिश्ता किसान से होता है, युद्ध से भी होता है। लड़ाई की तीन वजहों में से सबसे बड़ी वजह जमीन ही होती है। इन दिनों किसान और जमीन को लेकर देश में युद्ध छिड़ा है। महाभारत का शंखनाद हुआ है। सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी तलवारें म्यान से निकाल चुके हैं। सान चढ़ा चुके हैं। किसान का हितैषी बनने की होड़ में राजनीति के माहिर खिलाड़ियों ने भूमि अधिग्रहण विधेयक को हथियार बना लिया है। इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे कुछ प्रवृत्तियों और विचारधाराओं का भी संघर्ष है। यही वजह है कि नरेन्द्र मोदी सरकार संप्रग सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून को स्वीकार करने की जगह नया कानून लेकर आती है। राज्यसभा में बहुमत का आंकड़ा जुटाए कांग्रेस संयुक्त विपक्ष के साथ संप्रग सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून को स्वीकार करने का दबाव बनाती है। संसद को अप्रिय कलह का केन्द्र बनाया गया, सरकार जवाबदेही से बचने की कोशिश में है। विपक्ष सरकार को नीचा दिखाने की मशक्कत में है। मतलब साफ है कि भूमि अधिग्रहण कानून के बहाने सियासी शह-मात का खेल चल रहा है। बिसात पर किसान है।
वजह भी साफ है क्योंकि पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगूर के भूमि अधिग्रहण ने 34 वर्षों से काबिज वामपंथी सरकार के पराभव की जमीन तैयार कर दी थी। लिहाजा एक ऐसे समय, जब संसद में भूमि अधिग्रहण को लेकर विधेयक विचाराधीन हो तो अपनी राजनीतिक जमीन बचाने और उसे बढ़ाने को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच किसान हितैषी होने की लग-डाट लाजिमी है। भूमि अधिग्रहण को लेकर पहला कानून वर्ष 1894 में अंग्रेजों ने बनाया था। इस कानून का नफा-नुकसान समझने के लिए सिर्फ़ एक दृष्टांत पर्याप्त है कि दिल्ली के जिस लुटियन ज़ोन में हमारी संसद, राष्ट्रपति भवन जैसी इमारतें हैं, साउथ ब्लॉक और नॉर्थ ब्लॉक जैसे इलाके हैं, वहाँ के किसानों को एक साल पहले तक पूरा मुआवजा नहीं मिल पाया था। मालचा गांव के किसानों की पीढ़ियों को भी शायद वर्ष 2013 में थोड़ी राहत का एहसास हुआ होगा, जब मनमोहन सिंह की सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक लेकर आई। देश आज़ाद हो गया। हम आज़ादी मनाते रहे। नेता आज़ादी पर लम्बे-चौड़े भाषण देते रहे, पर 66 साल तक यह याद नहीं आया कि आज़ादी की इबारत लिखने वाले लुटियन ज़ोन के किसान और इस तरह के लाखों किसान अब भी आज़ाद मुल्क के इस गुलाम कानून की बलिवेदी पर पीढ़ियाँ कुर्बान कर रहे हैं।
आज़ादी के 66 साल बाद लाए गए कानून में किसानों की जमीन के जबरन अधिग्रहण से निजात की कुछ व्यवस्था की गई थी, लेकिन यह व्यवस्था भी मुकम्मल तौर पर सरकार जाने के ठीक 6–7 महीने पहले हो पाई। यह बात दूसरी है कि तक़रीबन दो साल तक यह विधेयक अलग-अलग प्लेटफार्म पर जेरे बहस रहा। तक़रीबन 158 छोटे-बड़े संशोधन हुए, इनमें 28 बड़े संशोधन भी शामिल हैं। कानून में न सिर्फ़ जमीन के उचित मुआवजे का प्रावधान किया गया बल्कि भू-स्वामियों के पुनर्वास और पुनर्स्थापन की पूरी व्यवस्था की गई। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिग्रहण पर किसानों को बाजार भाव से चार गुना दाम मिलने, शहरी इलाकों में जमीन अधिग्रहण पर भू-स्वामी को बाजार भाव से दोगुने दाम दिए जाने की व्यवस्था की गई। संप्रग सरकार के इस बिल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह मानी जा रही थी कि प्राइवेट कम्पनियाँ अगर जमीन अधिग्रहीत करती हैं, तो वहाँ के 80 फीसदी स्थानीय लोगों की रजामंदी ज़रूरी होगी।
लम्बे विमर्श और तत्कालीन भाजपा नेताओं से बातचीत के बाद आए भूमि अधिग्रहण कानून को नरेन्द्र मोदी सरकार ने खारिज कर दिया। कांग्रेस-मुक्त भारत के अभियान से विजय हासिल किए हुए मोदी के लिए यह लाजिमी था। लेकिन इस कानून के प्रतिस्थापन में नरेन्द्र मोदी सरकार जो अध्यादेश लेकर आई, उसमें कई पेंच थे, कमियाँ थीं। लिहाजा सरकार की मंशा पर सवाल उठना लाजिमी था। सरसरी तौर से देखने पर अध्यादेश औद्योगिक घरानों के पक्ष में बनाया गया दिख रहा था। इस अध्यादेश और संप्रग सरकार के कानून में अंतर थे। कांग्रेस के कानून में निजी क्षेत्र और पीपीपी मॉडल के लिए किसानों से सहमति का प्रावधान रखा गया था, जबकि राजग सरकार के अध्यादेश में यह गायब था। सामाजिक प्रभाव के आकलन का पक्ष भी नदारद था। अध्यादेश में उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण न करने, पाँच साल में परियोजना न शुरू करने पर जमीन वापस करने और कानून की अनदेखी करने पर अफसरों के खिलाफ़ कार्रवाई के प्रावधान ग़ायब कर राजग सरकार ने अपनी आलोचना के पिटारे को खुद खोल दिया। किसान को उसके जिले में ही अपील का अधिकार छिनते देखा गया।
मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की प्रति और बीते रविवार को किसानों से की गयी ‘मन की बात’ का मिलान किया जाए, तो यह साफ़ होता है कि या तो अध्यादेश मोदी की नज़र से नहीं गुज़रा अथवा वह जो ‘मन की बात’ किसानों से कर रहे थे, वह दिल की जगह दिमाग़ की बात थी। क्योंकि लोकसभा में भले ही बहुमत के बल पर 9 संशोधनों के साथ अध्यादेश पारित करा लिया गया हो, पर जिस तरह इस सवाल पर संयुक्त विपक्ष ने सोनिया गांधी की सरपरस्ती कुबूल की और राज्यसभा में इसे संशोधन के बावजूद पारित न होने देने पर आमादा है, उससे यह तो साफ़ है कि जमीन को लेकर यह जंग सियासी महाभारत की पटकथा लिख रही है। सबको पता है कि किसान एक बड़ा वोट बैंक है। देश के तक़रीबन 6.4 लाख गांव से होकर दिल्ली का रास्ता जाता है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान भले ही छठवें हिस्से से कम हो, पर देश में 198 सांसदों ने अपना पेशा किसानी लिखा है। ऐसे में किसान वोट बैंक पर नज़र होना बेवजह नहीं कहा जा सकता।
किसानों की लड़ाई लड़कर चरण सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचे। देवीलाल उपप्रधानमंत्री बन बैठे। मुलायम सिंह यादव देश के सबसे बड़े सूबे के बेताज बादशाह हैं। मतलब साफ़ है कि किसानों के वोटों के बिना सत्ता का स्वाद चखना बेहद मुश्किल है। गत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों में आधी सदी से कायम अपनी मजबूत जमीन गंवा दी। अब वह अपनी खोई हुई जमीन वापस हासिल करने के लिए बेचैन है। भूमि अधिग्रहण विधेयक को वह इसी के एक अवसर की तरह देखती है। कांग्रेस को यह एक ऐसा अवसर भी मुहैया कराता है, जिसमें सोनिया गांधी के पीछे 14 दलों के दिग्गज नेता हाथ बाँधकर खड़े होते हैं। विपक्षी एका का यह दृश्य नया नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के विरोध के सवाल को लेकर विपक्ष कई बार एकजुटता दिखा चुका है।
इस एकजुटता से निपटने के लिए ही मोदी ने किसानों से बात करने का ‘मन’ बनाया। किसानों को बताया कि कांग्रेस का कानून बदलना ज़रूरी इसलिए था क्योंकि वह आनन-फानन में लाया गया कानून किसानों के साथ धोखा था। मोदी जब किसानों से ‘मन की बात’ में रूबरू हो रहे थे, तब तक विवादास्पद सारे अंशों को सुधार लिया गया था। विपक्ष के तक़रीबन 52 में से 9 संशोधनों को विधेयक का हिस्सा बना लिया गया था, जिनसे किसान संगठन और अन्ना हजारे भी असहमत थे। इतना ही नहीं, मोदी सरकार के इस विधेयक में सरकारी और देश की प्रगति से जुड़े अधिग्रहण जैसे रेलवे, पुल, नेशनल हाइवे को भी चार गुना मुआवज़े की जद में ला दिया गया था। यह प्रावधान अब से पहले किसी भी कानून में नहीं था।
‘मन की बात’ में मोदी ने किसानों को यह भी समझाया कि कांग्रेस के कानून में निजी क्षेत्र के लिए भूमि अधिग्रहण के वास्ते कोई बदलाव नहीं किया गया है। ऐसे में यह कहना कि नया विधेयक कॉरपोरेटपरस्त है, एक सियासी बिसात है। मोदी ने लोकसभा में भी कई सवालों पर उतनी साफ़गोई से जवाब नहीं दिए थे जितनी साफ़गोई से उन्होंने ‘मन की बात’ में सिलसिलेवार सब कुछ रखा। ‘मन की बात’ सुनने के बाद यह भरोसा लाजिमी होना चाहिए कि अब जो भूमि अधिग्रहण विधेयक संसद की रजामंदी का इंतजार कर रहा है, वह वैसा नहीं है जैसा विपक्ष कह रहा है, पर यह भी सच नहीं है कि 9 संशोधनों के लागू किए जाने के पहले विपक्ष के सभी आरोप खारिज करने लायक थे। ऐसे में अब यह सवाल और प्रासंगिक हो जाता है कि फिर भूमि अधिग्रहण के विधेयक-कानून को लेकर हाय-तौबा क्यों, सियासत क्यों, क्या सचमुच पक्ष और विपक्ष इतने किसान हितैषी हो उठे हैं, इनकी नीयत कितनी पाक है? कल तक सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जेरे बहस इस विधेयक ने किसानों के सामने बहस का एक नया सवाल खड़ा कर दिया है। जिन दलों से लोकतंत्र खुद गायब है, उनके नेताओं के लिए दलहित प्राथमिक हो गया है। वे जनहित–किसान हित की बात क्यों कर रहे हैं? वह भी तब, जबकि चुनाव नेपथ्य में है। नई आर्थिक नीति आने के बाद के दस साल में तक़रीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की। कृषि का बजट घट गया। किसानों को अपनी उपज का न्यूनतम मूल्य नहीं मिल पा रहा है। 25 करोड़ किसान भूमिहीन हैं। खाद निरन्तर महँगी हो रही है लेकिन इन सारे सवालों पर किसान हित की बात करने वाले दलों की खामोशी है।
कांग्रेस को घेरने के लिए नरेन्द्र मोदी ने पिछले लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की जमीनों को लेकर खूब फिकरे कसे थे। उनके लिए अधिग्रहीत की गई जमीन चुनावी एजेंडा बनी थी। राजस्थान और हरियाणा ऐसे राज्य थे, जहाँ की सरकारों ने वाड्रा और उनसे जुड़ी परियोजनाओं के लिए किसानों की जमीनों का अधिग्रहण किया था। आज जब सोनिया गांधी नरेन्द्र मोदी को भूमि अधिग्रहण विधेयक पर घेरने के लिए संयुक्त विपक्ष के साथ कदमताल कर रही हैं, तब भी वे हरियाणा और राजस्थान के दौरे पर हैं। वहीं के किसानों से मिल रही हैं। मतलब साफ़ है कि जमीन की इस पूरी जंग में युद्धरत भले ही सत्ता पक्ष और विपक्ष हों, वही दिख रहा हो, पर हकीकत यह है कि जीत–हार का खेल इनके अलावा उन किसानों के साथ भी खेला जाएगा, हारना जिनकी नियति का हिस्सा बन बैठा है। विकास के लम्बे-चौड़े दावों के बीच पानी के लिए मौसम पर निर्भर रहना, रुपयों के लिए साहूकारों के चक्कर लगाना, खेती के मार्फत तक़रीबन दो-तिहाई आबादी का बोझ उठाना और फिर 125 करोड़ लोगों के पेट भरने की ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना उनके रोज़नामचा का हिस्सा है। बहरहाल, महाभारत तब भी हुई थी। जीत किसी की नहीं हुई थी। सब हारे थे। महाभारत अब भी हो रही है। स्वरूप बदला है। लड़ाई जारी है। पिछली महाभारत में कहा गया कि धर्म जीता था। किसान के लिए जमीन से बड़ा कोई धर्म नहीं। सवाल यह भी है कि क्या इस बार धर्म जीतेगा?
(मूलरूप से 25 मार्च, 2015 को प्रकाशित। सितंबर, 2025 को संशोधित।)
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