Actor Manoj Kumar: मनोज कुमार की समाजवादी सोच

Manoj Kumar Death: अभिनेता, निर्माता और निर्देशक मनोज कुमार अपनी देशभक्ति की फिल्मों के लिए खूब पहचाने जाते थे। वह आजाद और भगत सिंह के रोमानी क्रांतिकारी समाजवाद से अभिप्रेरित थे।

Deepak Mishra
Published on: 5 April 2025 3:20 PM IST
मनोज कुमार की समाजवादी सोच
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Manoj Kumar (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Manoj Kumar Death: भारतीय सिनेमा में भारतीय आत्मा के चितेरे लेखक, अभिनेता, निर्माता और निर्देशक मनोज कुमार (Manoj Kumar) को कृतज्ञ श्रंद्धाजलि। मनोज कुमार जी अपने अभिनय के कारण सदैव स्मरणीय रहेंगे। देशभक्त किरदारों को निभाने के कारण ही उनका उपनाम भारत कुमार पड़ गया। अपनी गरिमा और गुरुत्व को बचाए रखने के लिए उन्होंने कभी सतही भूमिका नहीं की।

वे आजाद और भगत सिंह के रोमानी क्रांतिकारी समाजवाद से अभिप्रेरित थे, इसीलिए उन्होंने हिन्दुस्तान समाजवादी गणतांत्रिक संघ के सेनानी भगत सिंह पर केंद्रित फिल्म बनाई। उनका समाजवादी मन नेहरू के समाजवाद की तरफ आकर्षित था। लोहिया का बेहद सम्मान करते थे। पर उनकी शिकायत थी कि लोहियाजी को पंडित नेहरू से अलग नहीं होना चाहिए था।

"पंडितजी इस जज्बे को जिंदा रखना।"

उनकी एक फिल्म 18 अक्टूबर 1974 को रिलीज हुई थी ‘रोटी कपड़ा और मकान’ , इसके लेखक भी मनोज जी ही थे। इसका एक संवाद मेरे कथन को पुष्ट करता है, जिसमें जान बुझ कर मनोज जी समाजवाद शब्द का प्रयोग किया है। मुझे दो तीन बार मुंबई में मनोज कुमार जी से मिलने का सौभाग्यशाली अवसर मिला है। मैंने उन्हें "भगत- लोहिया दो सागर एक तक के " भेंटस्वरूप दी। कवर पेज पर छपी भगत सिंह और लोहिया की फोटो वे अपलक निहारते रहे, फिर रोने लगे और बोले जनाब इनकी कुर्बानियों का कोई मोल नहीं। किताब का दाम पूछा तो मैंने कहा कि शहीदों पर किताब लिखकर, छपवा कर बांटना मेरा शौक है जिसे मैं अपनी इबादत मानता हूँ। उन्होंने गहरी सांस ली और बोले "पंडितजी इस जज्बे को जिंदा रखना।" उनकी बातचीत में एक देशभक्त की कसक के साथ- साथ सोशलिस्ट एप्रोच होता था। उनकी बहुत सी बातों को बाद में साझा करूंगा।

उन्होंने अपनी लोकप्रियता को शराब, गुटका आदि के विज्ञापनों में नहीं बेचा। अपने मन के ओज को कभी धुंधला पड़ने नहीं दिया। उनकी कई फिल्मों में उनके छोटे भाई का नाम दीपक रहा है। उनकी जर्रानवाजी देखिए, मुझसे कहा कि उन्हें दीपक नाम बहुत प्रिय है और मुझसे मिलने के बाद यह नाम और प्रिय हो गया।

फिलहाल, यूं समझिए

ये वो मुसाफिर हैं जिनके लिए सदियों

रहें भी तरसती हैं, मंजिल भी तरसती है

( लेखक वरिष्ठ समाजवादी चिंतक हैं।)

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