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Modi Magic: ओल्ड इज़ गोल्ड
Modi Magic: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूरदर्शन, आकाशवाणी, डाक विभाग और खादी जैसी पुरानी संस्थाओं को नई दिशा देकर फिर से मुख्यधारा में ला खड़ा किया है। उनके नेतृत्व में ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ सार्थक हो रहा है।
Modi Magic Revival of Doordarshan, Radio, Post Office & Khadi
जो रुकावट डाल कर होवे कोई पर्वत खड़ा।
तो उसे देते हैं अपनी युक्तियों से वे उड़ा।
बीच में पड़कर जलधि जो काम देवे गड़बड़ा।
तो बना देंगे उसे वे क्षुद्र पानी का घड़ा।
बन खगालेंगे करेंगे व्योम में बाजीगरी।
कुछ अजब धुन काम के करने की उनमें है भरी।
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने दशकों पहले जब अपनी कविता की उक्त पंक्तियां लिखीं, तो उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि उनके इस पूरे काव्य का मानवीकरण किसी एक व्यक्ति में हो सकता है। अगर पूरा मानवीकरण नहीं तो उनकी ज्यादातर अपेक्षा एक ही हाड़-मांस के इंसान में मिल जाएगी। उनकी मृत्यु के करीब छह दशक बाद वह जिस सच्चे सपूत की कल्पना कर रहे थे, उसी से काफी कुछ मिलता-जुलता व्यक्तित्व वास्तव में देश का नायक बना। इस नायक का नाम है—नरेन्द्र दामोदरदास मोदी। दरअसल, नरेन्द्र मोदी ने अपने संकल्प और दृष्टि से इस मुकाम को हासिल किया है।
पत्थर को पहचान कर उसे गढ़कर कीमती बनाने वाले को जौहरी कहते हैं। आज तक हमारे प्रधानमंत्रियों ने यही किया है, पर नरेन्द्र मोदी जौहरी नहीं, पारस पत्थर हैं। उनमें यह क्षमता है कि वह लोहे को छूकर सोना बना दें। तभी तो अब वह ऐसी जंग लग चुकी देश की बेशकीमती धरोहरों को संवारने के लिए ‘मोदी मैजिक’ का सहारा ले रहे हैं। हम बात कर रहे हैं उन चीज़ों की, जिन्होंने अतीत में भारत की राह दिखाई, पर आज वे खुद अपनी मंज़िल से घटक गई हैं।
सबसे पहले बात दूरदर्शन की। वर्ष 1959 के परीक्षण प्रसारण से शुरू होकर भारतीय राष्ट्रीय टेलीविजन वर्ष 1976 में दूरदर्शन बनकर अपनी यात्रा करते हुए अब दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नेटवर्क बन चुका है। दूरदर्शन इस समय 30 चैनल संचालित करता है, जिसमें 7 राष्ट्रीय चैनल, 11 क्षेत्रीय भाषा के चैनल, 11 राज्य के चैनल एवं 1 अंतरराष्ट्रीय चैनल है। दूरदर्शन का संचालन इसके डायरेक्टर जनरल और तकनीकी तौर पर इंजीनियरिंग-इन-चीफ करते हैं। दूरदर्शन में इस समय 33,800 कर्मचारी हैं। यह आँकड़ा दुनिया में सबसे ज़्यादा है। ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कम्पनी (बीबीसी) के कर्मचारियों की संख्या 16,858 है, वहीं जापान और चीन के राष्ट्रीय जन प्रसारक में यह संख्या करीब 10,000 है। इन कर्मचारियों में 44.4 फ़ीसदी इंजीनियरिंग, 36.9 फ़ीसदी प्रशासनिक हैं। सिर्फ 18.7 फ़ीसदी कर्मचारी ही प्रोग्रामिंग के हैं, यानी जन प्रसारण के कार्यक्रम बनाने के लिए बनी फौज के 80 फ़ीसदी हिस्से का कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं है। सैम पित्रोदा कमेटी के मुताबिक 11,000 कर्मचारी बाकी बचे 20,000 के काम-काज में सहयोगी की भूमिका में हैं यानी हर दो कर्मचारियों के लिए एक सहायक है। यह किसी भी पेशेवर प्रसारण संगठन के कामकाज का सही अनुपात नहीं हो सकता।
प्रसारण संस्था में प्रसारकों की इस कमी को पूरा करने के लिए ठेके पर ही करीब-करीब सारे कार्यक्रम बनते हैं। दूरदर्शन में करीब 80 फ़ीसदी और आकाशवाणी में यह आँकड़ा 20 फ़ीसदी का है। हर साल 1,800 करोड़ रुपये का बजट दूरदर्शन नाम के ‘सफेद हाथी’ के लिए जारी किया जाता है। इसमें से 1,000 करोड़ रुपये ही खर्च किए जाते हैं। साल 2011-12 तक दूरदर्शन व आकाशवाणी की मातृ संस्था प्रसार भारती का घाटा 13,556 करोड़ रुपये पहुँच चुका। सैम पित्रोदा से लेकर तमाम विशेषज्ञों ने विषय और विषयवस्तु की पड़ताल की, शोध हुए पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। सिर्फ और सिर्फ अंदरूनी तत्वों की वजह से आज आकाशवाणी और दूरदर्शन की यह दुर्दशा है।
प्राइवेट चैनल की रेस में दौड़ रहे इस हाथी की चाल का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 33 चैनल, 67 स्टूडियो, 1,400 ट्रांसमीटर्स वाले दूरदर्शन की एक चौथाई कर्मचारी संख्या वाला ‘ज़ी-ग्रुप’ जैसा प्राइवेट चैनल 6,350 करोड़ रुपये का सालाना राजस्व अर्जित करता है, जो प्रसार भारती से चार गुना है।
एक दिलचस्प बात यह भी है कि दूरदर्शन अपने पूरे बजट का सिर्फ 13.3 फ़ीसदी कार्यक्रमों पर खर्च करता है। जापान का राष्ट्रीय चैनल एनएचके कार्यक्रमों पर अपने बजट का 75 फ़ीसदी, बीबीसी 71 फ़ीसदी, ऑस्ट्रेलिया की ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कम्पनी (एबीसी) 66.7 फ़ीसदी खर्च करती हैं। ऐसे में दूरदर्शन के पास कार्यक्रमों का टोटा होना लाजिमी है। इस समस्या को दूर करने के लिए वैसे तो पूरा समय चाहिए पर मोदी मैजिक ने इसका तात्कालिक तरीका निकाल लिया। इसे सफेद हाथी से एरावत बनाने के लिए मोदी ने अपनी लोकप्रियता का सहारा लिया। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के साथ ही अपने कामकाज में दूरदर्शन के दखल का दायरा कुछ इस कदर बढ़ाया कि बाकी प्राइवेट चैनल बाहर होने लगे। प्रधानमंत्री की छोटी से छोटी बाइट पहले दूरदर्शन को मिलती है, बाकी चैनल सिर्फ “सौजन्य दूरदर्शन” से काम चलाते हैं। सारे विभागों को यह हिदायत दी गई कि सबसे पहले जानकारी दूरदर्शन को दी जाए। लिहाज़ा ख़बरों के टोटे को खत्म कर मोदी ने हर प्राइवेट चैनल को “सौजन्य दूरदर्शन” और उसका लोगो दिखाने पर मजबूर कर दिया। असर यह हुआ कि दूरदर्शन के लोगो तक को भूल चुके लोग अब हर बड़े सरकारी आयोजन पर दूरदर्शन को ढूँढकर अपने टीवी में ट्यून करने लगे हैं।
इसी तरह नरेन्द्र मोदी ने जब रेडियो पर देश के लोगों को सम्बोधित किया तो भूले-बिसरे से लगने लगे ऑल इंडिया रेडियो को लंबे समय के बाद लोगों ने फिर से ट्यून किया। प्रधानमंत्री मोदी ने जब ‘मन की बात’ शुरू की और कहा कि एक रविवार सुबह 11 बजे रेडियो पर इसका प्रसारण होगा तो लोगों को 80 और 90 के दशक के टेलीविजन के सुनहरे दिन याद आ गए। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि टीवी पर रामायण और महाभारत दिखाए जाने के बाद से अब फिर रविवार सुबह का समय उनके लिए खास साबित होगा—और हुआ भी।
मोदी अब नियमित तौर पर हर महीने एक रविवार को रेडियो के ज़रिये लोगों से संवाद करते हैं। उनके इस फैसले से आकाशवाणी की ‘रिब्रांडिंग’ होनी शुरू हो गई है। एक सर्वे के मुताबिक मुंबई और चेन्नई समेत 6 भारतीय शहरों में यह पाया गया कि आबादी के 66.7 फ़ीसदी लोग ‘मन की बात’ सुनते हैं। ‘मन की बात’ अब आकाशवाणी का कमाऊ पूत बन गया है। आमतौर पर आकाशवाणी के 10 सेकेंड के लिए 500–1500 रुपये विज्ञापन का रेट है, पर ‘मन की बात’ के लिए यह रेट 2 लाख रुपये तक गया है।
बता दें कि पहले दूरदर्शन, फिर प्राइवेट टीवी चैनलों और बाद में प्राइवेट एफएम रेडियो ने इस सरकारी रेडियो ब्रॉडकास्टर को हाशिये पर धकेल दिया। राजनेता जहाँ टीवी के ज़रिये अपनी बात रखना पसंद करते हैं, वहीं रेडियो एंटरटेनमेंट के नाम पर लोगों ने प्राइवेट एफएम चैनलों से नाता जोड़ लिया। आकाशवाणी की ब्रांड इमेज भले ही कमजोर हुई हो, फिर भी यह अब भी देश में सबसे बड़ा एरिया कवर करता है। ऑल इंडिया रेडियो की पहुँच देश की 99.20 फ़ीसदी आबादी तक है। देश के 92.6 फ़ीसदी भूभाग को यह कवर करता है।
रेडियो के ज़रिये मोदी न सिर्फ समय-समय पर लोगों से सम्पर्क करते हैं, बल्कि नागरिकों से सुझाव भी मांगते हैं। उन्हें काफी संख्या में सुझाव मिल रहे हैं। इसकी एक बानगी है ‘मन की बात’ का टोल-फ्री नंबर 180030007800। इस नम्बर को लॉन्च करने के 24 घंटे के भीतर ही 12,000 कॉल्स आ गए। दरअसल, भारत में अब भी इंटरनेट की सुविधा बहुत व्यापक नहीं है। ऐसे में रेडियो मोदी के जन-जन तक पहुँचने का जरिया बना और इस तरह के टोल-फ्री नम्बर की कवायद ने मोदी के ‘फीडबैक’ तंत्र को भी मज़बूत कर दिया—यानी रेडियो का भला और रेडियो के ज़रिये मोदी सरकार का भी भला।
रेडियो के ज़रिये नियमित संवाद की शुरुआत अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने की थी। तब रेडियो की वही हैसियत थी, जो आज टीवी की है। महामंदी और द्वितीय विश्वयुद्ध के असर से जूझ रहे अमेरिकियों से बातचीत में रूजवेल्ट ने रेडियो को जरिया बनाया। राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने वर्ष 1982 में इस परंपरा को दोबारा शुरू किया। मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा हर हफ्ते वीडियो चैट करते हैं।
दुनिया भर के कई प्रभावशाली नेता रेडियो की शक्ति को मानते और उसका इस्तेमाल करते आए हैं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मैर्केल हर हफ्ते वीडियो के माध्यम से जनता से सीधी बात करती हैं। इसके अलावा वे पॉडकास्ट और ट्विटर पर भी संवाद जारी रखती हैं। यानी टीवी और रेडियो ऐसी संस्थाएँ थीं, जिन्हें सम्बोधित करते वक्त हम कहते थे कि एक ऐसा दौर था, जब दूरदर्शन ने धूम मचा दी थी। एक जमाने में रेडियो दहेज में मांगे जाते थे। जिसे मिल जाता था, वह काबिल दूल्हा कहलाता था। उसी रेडियो और दूरदर्शन को वक्त ने हाशिये पर ढकेल दिया। पर मोदी ने अपने प्रयोगों से इसे फिर से मुख्यधारा में कम से कम लाकर खड़ा कर दिया है।
अब मोदी सरकार ‘ई-मार्केटिंग’ के जरिये पोस्ट ऑफिसों की सेहत सुधारने की योजना बना रही है। सरकार ने ‘फ्लिपकार्ट’, ‘स्नैपडील’ और ‘मिंत्रा’ व दूसरे ‘ई-रिटेलर्स’ को अपने पोस्टल नेटवर्क का इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित करने की योजना बनाई है। दरअसल, यह दोनों ही पक्षों के लिए जीत साबित होगी। इन रिटेलर्स को अपने सामान पहुँचाने के लिए देश के सबसे बड़े पोस्टल नेटवर्क का सहारा मिलेगा। वहीं मार्क ज़ुकरबर्ग की ‘डिजिटल इंडिया’ में रुचि और भारत के हर कोने में इंटरनेट पहुँचाने की योजना के बाद अब ग्रामीण भारत में पैर पसारने के लिए पोस्टल नेटवर्क मददगार होगा। देश की सबसे बड़ी कूरियर कम्पनी भी ग्रामीण भारत में पोस्टल विभाग के सामने कहीं नहीं ठहरती। ऐसे में इन ‘ई-रिटेलर्स’ के लिए इस विभाग का सहारा लेना मजबूरी भी होगी और ताकत भी। वहीं ‘ई-मेल’ से चोट खाए पोस्टल विभाग को ‘ई-रिटेल’ से बड़ी राहत पहुँचेगी।
दरअसल, इस कदम की सबसे बड़ी चुनौती सरकार के सामने यह होगी कि वह पोस्टल विभाग की लेट-लतीफ़ी वाली छवि को सुधारे। सभी ई-रिटेलर्स के लिए डिलीवरी का समय बेहद महत्त्वपूर्ण है। साथ ही कूरियर कम्पनी की तरह ही डाकिये को ट्रैक करना भी एक चुनौती है। पर यदि मोदी सरकार इच्छाशक्ति और तकनीक से इन चुनौतियों को पार कर पाती है तो पोस्टल विभाग के लिए यह एक बड़ा उपयोगी कदम होगा।
मोदी सरकार ने अनुपयोगी हो चुके पोस्टल विभाग को फिर से लोगों के दिलों का केन्द्र बनाने की तैयारी की है। भारत के विशाल पोस्टल नेटवर्क को मोदी सरकार जल्द ही एक पोस्टल बैंक में बदलने की योजना में है। प्रधानमंत्री की जन-धन योजना की सफलता के बाद अब मोदी सरकार शेष जनता तक बैंकिंग सेवाओं का विस्तार चाहती है। पोस्ट ऑफिस को “पोस्ट बैंक ऑफ इंडिया” बनाने की अनुमति के लिए सरकार ने रिज़र्व बैंक को लिखा है। अनुमति मिलने के बाद पूरे देश के प्राइवेट बैंक के बड़े नामों को पोस्ट बैंक से जोड़ा जाएगा। देश में इस समय 1,54,822 पोस्ट ऑफिस हैं, जिनमें केवल 15,736 शहरों में हैं और शेष 1,39,086 ग्रामीण हैं। अगर इन्हें बैंक शाखाओं में बदल दिया गया तो पोस्ट बैंक ग्रामीण बैंकिंग में क्रांति ला सकता है।
प्रस्तावित पोस्ट बैंक ऑफ इंडिया का मालिकाना हक पोस्टल विभाग के पास होगा, पर इसके संचालन के लिए स्वतंत्र बोर्ड बनाया जाएगा। इस बोर्ड में वित्त मंत्रालय, संचार मंत्रालय और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रतिनिधि होंगे। अनुमति मिलने के बाद पहले चरण में 50 पोस्ट बैंक शाखाएँ और दूसरे चरण में इन्हें बढ़ाकर 150 शाखाएँ करने की योजना है। इस समय देश के पोस्ट ऑफिसों में 28 करोड़ खाताधारकों के पास लगभग 6 लाख करोड़ रुपये जमा हैं। यह राशि भारतीय स्टेट बैंक के बाद सबसे बड़ी है। लेकिन पुरानी कार्यशैली और तकनीकी पिछड़ेपन की वजह से विभाग को सालाना 6,000 करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है।
पोस्ट बैंकों की ताक़त का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ब्राज़ील की कभी लड़खड़ा चुकी अर्थव्यवस्था को वहाँ के पोस्ट बैंकों ने ही स्थिर किया, जबकि वहाँ का नेटवर्क भारत के मुकाबले कहीं छोटा है।
इसी तरह मोदी ने खादी को प्रोत्साहित करने के लिए भी ‘मोदी मैजिक’ और ‘मोदी ब्रांड’ का सहारा लिया। महात्मा गांधी की प्रिय खादी का ज़िक्र करते हुए मोदी ने ‘मन की बात’ में कहा था—“आपके परिधान में अनेक प्रकार के वस्त्र होते हैं, कई तरह के फैब्रिक्स होते हैं। इनमें से एक वस्त्र खादी का क्यों नहीं हो सकता? मैं आपसे खादीधारी बनने को नहीं कह रहा हूँ, लेकिन आपसे आग्रह कर रहा हूँ कि आपके वस्त्र में कम से कम एक तो खादी का हो। भले ही अंगवस्त्र हो, रूमाल हो, बेडशीट हो, तकिये का कवर या फिर कुछ और।”
उन्होंने कहा—“अगर आप खादी का कोई वस्त्र खरीदते हैं तो गरीब का भला होता है। दो अक्टूबर से खादी वस्त्रों पर छूट होती है। इसे स्वीकार करें तो आप पाएंगे कि गरीबों से आपका कैसा जुड़ाव होता है।”
मोदी के इस आग्रह को लोगों ने गंभीरता से लिया। खादी ग्रामोद्योग भवन, कनॉट प्लेस, नई दिल्ली के डिप्टी सीईओ नरेश पाल के अनुसार 20 सितम्बर 2014 को ‘मन की बात’ में खादी का ज़िक्र होने के बाद उनके स्टोर में खादी की बिक्री 88 फ़ीसदी बढ़ गई। खादी खरीदने वालों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ अब 60–70 फ़ीसदी ग्राहक युवा हो गए हैं। यही वजह है कि खादी स्टोर भी अपना रूप बदल रहे हैं। पहले खादी स्टोर्स पर 30% रेडीमेड और 70% कपड़ा बिकता था, अब यह अनुपात 70% रेडीमेड और 30% कपड़ा हो गया है।
अक्टूबर 2015 में आयोजित इंडिया-अफ्रीका फोरम समिट में विदेश मंत्रालय ने सभी आए हुए राष्ट्राध्यक्षों और नेताओं को “मोदी कुर्ता” भेंट किया। जाहिर है कि अगर इन नेताओं ने इसे अपने देश में पहना तो अफ्रीका में खादी की मांग और बढ़ सकती है। वैसे भी अफ्रीकी देशों में गांधी और खादी को लेकर भावनात्मक जुड़ाव रहा है।
लिहाज़ा, चाहे दूरदर्शन हो, रेडियो, पोस्ट ऑफिस या खादी—मोदी ने इन्हें अपने ‘मैजिक’ से फिर से मुख्यधारा में लाने की पहल की है। ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ कहावत को उन्होंने सार्थक किया है। यह उनकी काबिलियत और दृष्टि है, जिसके बूते वे पुराने ढाँचे से धूल झाड़कर उन्हें नए भारत की दौड़ में शामिल कर रहे हैं।
(मूलरूप से 08 दिसम्बर, 2015 को प्रकाशित। सितंबर, 2025 को संशोधित।)
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