TRENDING TAGS :
National-Herald: नेशनल हेरल्ड का प्रकरण ! उत्सर्ग था, आज घिनौना है !!
National-Herald: प्रस्तुत है मेरी आत्मकथा "तूफान तो आए कई, झुका न सके" (प्रकाशक : पंकज शर्मा-अनामिका प्रकाशन, 4697/3, 21-ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, मो0 : 9773508632) से हेरल्ड का प्रसंग।
National-Herald
National-Herald: आज दैनिक "नेशनल हेरल्ड" फिर सुर्खियों में है, कारण बड़ा गलीज है। प्रस्तुत है मेरी आत्मकथा "तूफान तो आए कई, झुका न सके" (प्रकाशक : पंकज शर्मा-अनामिका प्रकाशन, 4697/3, 21-ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, मो0 : 9773508632) से हेरल्ड का प्रसंग।
यह उल्लेख है पिताजी स्व. के. रामा राव द्वारा संपादित "हेरल्ड", का। कैसरबाग लखनऊ से प्रकाशित ख्यात दैनिक "नेशनल हेरल्ड" मात्र समाचारपत्र ही नहीं था, मेरा बाल सखा भी था। मैं उसके पन्नों पर लोटकर नन्हे से किशोरावस्था तक पहुंचा था। मेरे गांधीवादी पिताजी स्व. के. रामा राव इसके संस्थापक-संपादक थे। जवाहरलाल नेहरू चेयरमैन रहे। किसी आदर्श, संघर्षशील संस्था के शानदार अभ्युदय और क्रमिक-पतन का नमूना यदि देखना हो तो हेरल्ड ही है। जंगे-आजादी को इस अखबार ने अपने उत्सर्ग से सींचा था। मगर इसका लहू आजादी के बाद पार्टी ने चूस लिया। इस आजादी की आवाज को नेहरू की पुत्री की पतोहू और पड़नाती ने जगविख्यात कर दिया। आर्थिक अपराध के कारण। केन्द्रीय प्रवर्तन निदेशालय ने फर्जीवाडा और धनशोधन अर्थात कोष के लूट का आरोपी उन्हें करार दिया। खैर जुर्म पर निर्णय तो दिल्ली उच्च न्यायालय देगा। मगर हेरल्ड तब क्या था, और अब क्या है ? इस पर गौर करना चाहिये। इतिहास-बोध का यह तकाजा है।
कैसे संघर्षशील संस्था के शोचनीय-पतन को देखना हो तो हेरल्ड का नमूना है। इस दैनिक ने जंगे आजादी को अपने लहू से पोसा था। स्वार्थी पार्टीवालों ने इसे सोख लिया। यह बात सितम्बर 1938 की है। कैसरबाग चौराहे (लखनऊ) की पासवाली इमारत पर जवाहरलाल नेहरू ने तिरंगा फहरा कर कांग्रेस के इस राष्ट्रवादी दैनिक को शुरू किया था। नेशनल हेरल्ड को अंग्रेज बंद कराना चाहते थे। कांग्रेसियों ने उसे नीलामी पर चढ़वा दिया। आज उनके नवासे की पत्नी ने नेहरू परिवार की इस सम्पत्ति की सरेआम बोली तहसीलदार सदर द्वारा लगवा दी, ताकि चार सौ कार्मिकों के बाइस माह के बकाया वेतन में चार करोड़ रूपये वसूले जा सकें। देश की जंगे आजादी को भूगोल का आकार देने वाला हेराल्ड फिर खुद भूगोल से इतिहास में चला गया।
लेखक टामस कार्लाइल की राय में अखबार तो इतिहास का अर्क होता है। अर्क के साथ हेरल्ड एक ऊर्जा भी था। अब दोनों नहीं बचे। जब इसके संस्थापक-संपादक मेरे स्वर्गीय पिता ने सितम्बर 1938 में प्रथम अंक निकाला था, तभी स्पष्ट कर दिया था कि लंगर उठाया है तूफान का सर देखने के लिए। बहुतेरे तूफान उठे, पर हेरल्ड की कश्ती सफर तय करती रही। यदि जब डूबी भी तो किनारे से टकराकर। इसकी हस्ती ब्रिटिश राज के वक्त भी बनी रही, भले ही दौरे-जमाना उसका दुश्मन था ! नेहरू और रफी अहमद किदवई इसके खेवनहार थे। इस पर कई विपत्तियां आई मगर यह टिका रहा। एक घटना है 1941 के नवम्बर की जब अमीनाबाद के व्यापारी भोलानाथ ने कागज देने से मना कर दिया था क्योंकि उधार काफी हो गया था। नेहरू ने तब एक रूक्के पर दस्तखत कर हेरल्ड को बचाया था, हालांकि नेहरू ने व्यथा से कहा भी कि ''सारे जीवन कभी भी मैं ऐसा प्रामिसरी नोट न लिखता।'' इंदिरा गांधी जब कांग्रेस अध्यक्ष थी तो रफी अहमद किदवई और चन्द्रभानु गुप्त ने आपसी दुश्मनी के बावजूद हेरल्ड राहत के कूपन बेचकर आर्थिक मदद की थी।
यूं तो हेरल्ड के इतिहास में खास-खास तारीखों की झड़ी लगी है, पर 9 नवम्बर 1998 मार्मिक दिन रहा। उससे दिन प्रथम सम्पादक स्वर्गीय श्री के.रामाराव की 102वीं जन्मगांठ भी थी। लखनऊ श्रम न्यायालय ने कर्मियों के बकाया वेतन के भुगतान हेतु हेरल्ड भवन की नीलामी का आदेश दिया था। पुराने लोग उस दिन महसूस कर रहे थे कि मानों उनकी अपनी सम्पत्ति नीलाम हो रही हो। वह मशीनें भी थी, जिसे फिरोज गांधी अपने कुर्ते से कभी—कभी पोछते थे। वह फर्नीचर जिस पर बैठकर इतिहास का क्रम बदलने वाली खबरे लिखी गयी थी।
रफी साहब ने 1942 में बाम्बे क्रानिकल के मशहूर सम्पादक सैय्यद अहमद ब्रेलवी से संपादक के लिए सुझाव मांगा। ब्रेलवी के साथ युवा के. रामाराव काम कर चुके थे। ब्रेलवी ने रफी साहब से कहा कि नया अखबार है तो आलराउण्डर को सम्पादक बनाओ जो प्रूफ रीडिंग से लेकर सम्पादकीय लिखने में हरफनमौला हो। अतः रामाराव ही योग्य होंगे। तब वे दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स में समाचार सम्पादक थे। उन्हें इंटरव्यू के लिए रफी साहब ने लखनऊ के विधान भवन में अपने मंत्री कक्ष में बुलवाया। सवा पांच फुट के, खादीकुर्ता- पाजामा-चप्पल पहने उस व्यक्ति को कुछ संशय और कौतूहल की मुद्रा में देखकर रफी साहब ने पूछा : "आप वाकई में सम्पादन कार्य कर सकेंगें ?" रामाराव का जवाब संक्षिप्त था, ”बस यही काम मैं कर सकता हूं।“ फिर हेरल्ड के संघर्षशील भविष्य की चर्चा कर, रफी साहब ने पूछा, ”जेल जाने में हिचकेंगे तो नहीं?“ रामाराव हंसे, बोले, ”मैं पिकनिक के लिए तैयार हूं।“
बाद में 1942 में रामाराव को उनके सम्पादकीय ‘जेल और जंगल’ के लिए छह माह तक लखनऊ सेन्ट्रल जेल में कैद रखा गया था। रामाराव के सम्पादकीय सहयोगियों में तब थे: त्रिभुवन नारायण सिंह (बाद में संविद सरकार के मुख्यमंत्री और बंगाल के राज्यपाल), नेताजी सुभाष बोस के साथी अंसार हरवानी (बाद में लोकसभा सदस्य) और एम. चलपति राव। एक सादे समारोह में नेशनल हेरल्ड की शुरूआत हुई। पूरी यू.पी. काबीना हाजिर थी। ये सारे मंत्री रोज शाम को हेरल्ड कार्यालय आकर खुद खबरें देते थे। वहाँ काफी हाउस जैसा नजारा पेश आता था। जवाहरलाल नेहरू भी खबरें देते थे। जनसभा में अपने भाषण की रपट को खुद आकर वे लिखते थे। उनका पहला वाक्य होता था: ”प्रमुख कांग्रेसी नेता जवाहरलाल नेहरू ने आज एक सार्वजनिक जनसभा में कहा“ ......आदि।
K Vikram Rao
Mobile - 9415000909
E-mail – [email protected]