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Mid-Day Meal Scheme: ‘पांचवा पराठा' और मध्याह्न भोजन योजना
Madhyam Bhojan Yojana: मध्याह्न भोजन योजना में सभी सरकारी प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को पका हुआ दोपहर का भोजन उपलब्ध कराया जाता है।
Panchwa Paratha Short Film Mid-Day Meal Scheme
Madhyam Bhojan Yojana: संजय गुप्ता द्वारा निर्देशित 'पांचवा पराठा' एक लघु फिल्म है जो कि आपातकाल यानि 1975 से पहले के समय के एक 4 सदस्यीय परिवार पर आधारित कहानी है। फिल्म में पति- पत्नी दोनों परिवार की जर्जर परिस्थितियों को संभालने के लिए मुस्कुराहट के साथ छोटी-मोटी नौकरी करते हैं। 'रोज कमाया, रोज खाया' वाली स्थिति के साथ, परिवार का पेट भरने के लिए की जा रही इस जद्दोजहद की पीड़ा और उदासी उनके चेहरे पर नजर आती है। बेटी जो कि बिना कुछ खाए स्कूल जाती है। वहां ललचाई नजरों से सबके टिफिन को देखते हुए उनसे अपमानित होती है। इस अपमान का गुस्सा अपने घर में माता-पिता को उलाहना देते हुए उतारती है कि वह भूखे पेट स्कूल नहीं जाएगी। छोटा बेटा निखट्टू के जैसे सारा दिन गलियों में खेलते फिरता है। एक दिन की भरपेट रोटी उनके चेहरे पर कितनी मुस्कुराहट और आशा लाती है, फिल्म में उसका फिल्मांकन बहुत ही सहज, सुंदर और सादगीपूर्ण तरीके से हुआ है जो कि देखने वाले को यह सोचने पर मजबूर कर देगा कि वाकई देश में ऐसे परिवार भी हैं, जो कि 2 जून की रोटी के लिए संघर्ष करते हैं, जूझते हैं अपनी गरीबी से, गरीबी से उपजे विनाशकारी प्रभाव से, लड़ते हैं रोज अपनी भूख से और जीवित रहने का करते हैं संघर्ष।
गरीबी जैसे अभिशाप से जूझते मनुष्य को तन ढकने के लिए कपड़ा और सिर पर छत के साथ-साथ भूख जैसी मूल और प्राकृतिक इच्छा को भी कुचलना पड़ता है। प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री डॉ. गिरीराज किशोर द्वारा लिखित यह कहानी भूख की निर्दयता की कहानी है, पीड़ा और उदासी की कहानी है जो कि दर्शकों की संवेदनाओं को इस तरह से छूती है कि देखने वाले कि सिर्फ आह ही नहीं निकलती बल्कि उन्हें अपने द्वारा अनाज के, भोजन के दुरुपयोग का ख्याल भी परेशान करता है। बहुत ही बेहतरीन तरीके से फिल्माई गई इस फिल्म के संवाद, सेटिंग, उनके दुःख, उनकी खुशी सबसे दर्शक खुद को जोड़ लेते हैं। इस फिल्म की पटकथा प्रसिद्ध लेखक असगर वजाहत ने लिखी है। इस फिल्म की कहानी 1972 के कानपुर की एक सत्य घटना पर आधारित है। इसकी पूरी शूटिंग भी कानपुर में ही की गई थी।
पेट भरना जीवित रहने की एक मौलिक आवश्यकता है, इसके बावजूद दुनिया के आधे से ज्यादा बच्चे भूखे पेट पढ़ रहे हैं। यूनेस्को ने फ्रांस द्वारा आयोजित 'एजुकेशन एंड न्यूट्रिशन: लर्न टू ईट वैल' में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें यह बताया गया कि दुनिया के 53% बच्चों को स्कूल में खाना उपलब्ध नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले महज 47% बच्चों को ही यह सुविधा मिल रही है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि बच्चों को उपलब्ध कराए जा रहे भोजन की गुणवत्ता ठीक नहीं है। स्कूलों में बच्चों का नामांकन और उपस्थिति दर को बढ़ाया जा सकता है अगर इस गुणवत्ता को सुधार लिया जाए तो। जहां तक भारत की बात है भारत में भी भोजन की अनुपलब्धता बच्चों के स्कूल नहीं जा पाने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है। यह अनुमान है कि लगभग 67 लाख बच्चे ऐसे हैं जो 24 घंटे से अधिक समय तक बिना भोजन के रहते हैं। कई बच्चे ऐसे हैं जिनके पास नियमित रूप से घर पर भोजन नहीं होता है, ऐसे में भूख और थकान के कारण, स्कूल जाकर पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है। इसके साथ ही गरीबी, बच्चों के बाल श्रम में शामिल होने और स्कूल की दूरी जैसे कारण भी बच्चों के स्कूल न जाने का कारण बनते हैं। सरकार द्वारा सरकारी और सरकारी वित्त से चलने वाले प्राइमरी स्कूलों में मिड डे मील/ मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था की गई है।
सन् 1920 में, मद्रास प्रेसीडेंसी के पहले मुख्यमंत्री ए . सुब्बारायलु रेड्डीर ने एक निगम स्कूल में थेगरया चेट्टी द्वारा प्रस्तावित विचार पर आधारित मध्याह्न भोजन योजना शुरू की। यह योजना 1930 से फ्रांसीसी प्रशासन के तहत केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में लागू की गई। स्वतंत्र भारत में, मध्याह्न भोजन योजना सबसे पहले तमिलनाडु में शुरू की गई थी , जिसकी शुरुआत 1960 के दशक की शुरुआत में पूर्व मुख्यमंत्री के. कामराज ने की थी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के तहत 2002 तक यह योजना सभी राज्यों में लागू कर दी गई। 2021 में केंद्र सरकार ने घोषणा की कि सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में प्री-प्राइमरी शिक्षा प्राप्त करने वाले अतिरिक्त 24 लाख छात्रों को भी 2022 तक इस योजना के तहत शामिल किया जाएगा। मध्याह्न भोजन योजना में सभी सरकारी प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को पका हुआ दोपहर का भोजन उपलब्ध कराया जाता है।
इस योजना ने कई सकारात्मक प्रभाव दिखाए। वे माता-पिता जो गरीबी के कारण अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज सकते थे, वे अपने बच्चों को मुफ्त पौष्टिक भोजन दिलाने के लिए स्कूल भेजने लगे। इस तरह मध्याह्न भोजन योजना ने स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि की। बच्चों को भोजन और शिक्षा के बीच चयन नहीं करना चाहिए, उन्हें दोनों तक पहुंच मिलनी चाहिए यही इस योजना का उद्देश्य है। सरकार द्वारा पोषित इस योजना में कई गैर सरकारी संगठन भी सम्मिलित हैं। मध्याह्न भोजन योजना को अब प्रधानमंत्री-पोषण योजना नाम दिया गया है।
हालांकि यह योजना भी बहुत सारी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार का शिकार रही है। कुछ स्कूलों में भोजन अच्छी तरह से पकाया जाता है, जबकि कुछ में कच्चा भोजन परोसा जाता है। कुछ स्कूलों में भोजन समय पर नहीं मिलता है, जिससे बच्चों को भूखा रहने को मजबूर होना पड़ता है। कहीं-कहीं तो भोजन की तैयारी और परोसने की जगहें साफ नहीं होती हैं, जिससे भोजन के दूषित होने का खतरा होता है।
इस योजना में भ्रष्टाचार की खबरें आम हैं। मध्याह्न भोजन में एलर्जी या अन्य स्वास्थ्य संबंधी खतरे मौजूद होते हैं। गाँव के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे बहुत गरीब होते हैं और मिड-डे मील कार्यक्रम के तहत मिलने वाला भोजन ही उनके लिये एकमात्र विकल्प होता है। ऐसे में यह भोजन उनके लिये खतरनाक भी साबित हो सकता है, क्योंकि भोजन का निरीक्षण करने के लिये कोई भी व्यवस्था नहीं होती। वर्ष 2013 की बिहार के एक स्कूल में दोपहर का भोजन खाकर 23 बच्चों की मृत्यु हो गई थी। इसके भोजन के मेन्यू में विविधता का अभाव होता है। बच्चे अपने घर से बर्तन लेकर आते हैं। कहीं-कहीं तो आखिर तक आते-आते बच्चों के लिए भोजन भी खत्म हो जाता है। कहीं-कहीं पर मध्याह्न भोजन में आने वाली खाद्य सामग्री बहुत ही घटिया स्तर की होती है, जहां पर दाल के नाम पर पानी और कंकड़ मिलता है और दूध के नाम पर सिर्फ पानी की मिलावट। शिक्षकों का भी मानना है कि मध्यान्ह भोजन योजना से शिक्षा का स्तर गिर गया है । क्योंकि शिक्षकों को पढ़ाने से अधिक इस भोजन की गुणवत्ता का ध्यान रखना पड़ता है और भोजन संबंधी प्रबंधन करने पड़ते हैं। उनका कहना है कि बच्चे पढ़ने के लिए नहीं बल्कि खाने के लिए आते हैं। ऐसे बहुत से कारण हैं जो कि मिड डे मील योजना के नकारात्मक प्रभावों को दर्शाते हैं।
मध्याह्न भोजन की वजह से विद्यालयों में आ रहे बच्चों के प्रति संवेदनशील होने की ज़रूरत है। विभिन्न महिला समूहों या दूसरी संस्थाओं द्वारा पकाए गए भोजन की गुणवत्ता तथा मात्रा सम्बन्धी निगरानी का कार्य शिक्षकों के अतिरिक्त विद्यालय के किसी अन्य उत्तरदायी व्यक्ति के हाथों में सौंप देना चाहिए, जिससे शिक्षकों के ऊपर पढ़ाने के अतिरिक्त इस योजना का भार न पड़े। यह भी देखने की जरूरत है कि बहुत से बच्चे ऐसे होते हैं जो परिवार में गरीबी के कारण इस मिड डे मील के द्वारा ही एक समय का भोजन कर पाते हैं और वह घर से बिना कुछ खाए ही स्कूल चले आते हैं। ऐसे में उनको समय से मिड डे मील उपलब्ध कराना चाहिए, जिससे वह पढ़ाई में अपना ध्यान दे सकें। उनके पोषण सम्बन्धी ज़रूरतों पर ध्यान देना बहुत जरूरी है तभी भारत की नई पीढ़ी स्वस्थ तथा मज़बूत बन सकेगी। नहीं तो 'पांचवा पराठा' जैसे स्थिति भारत के कई क्षेत्रों के परिवारों में हो सकती है, जहां एक पराठे के लिए संबंध तार-तार हो गए और उनके पास अंततः जार-जार होकर रोने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचा।
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)