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‘जोश’ की खरोश कहाँ गुम हुई!
शब्बीर हसन खान “जोश” मलिहाबादी, जो जन्मे अवध (लखनऊ) में और जिनका इन्तिकाल हुआ इस्लामाबाद में, आम भारतीय मुसलमान की भांति सहज अंतर्द्वंद्व से ग्रसित रहे। हिंदुस्तान में रहें या फिर दारुल इस्लाम में बसें? उनके यार जवाहरलाल नेहरू ने इसरार किया था कि : “भारत में ही रहें, भले ही अपने संतानों को कराची भेज दें।” वे नहीं माने।
के. विक्रम राव
लखनऊ: जोश मलिहाबादी (आज 121 वीं जयंती) ने अपने से तेरह साल छोटे मजाज लखनवी (आज 54 वीं पुण्यतिथि है) से कहा था कि “घडी देखकर शराब पिया करो।” लत छुड़वाने की मंशा थी । पर जनाब असरारुल हक़ मजाज ऐसे थे कि वे मधुपान के समय कैलेंडर तक नहीं देखा करते थे।
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भारत में ही रहें, भले ही अपने संतानों को कराची भेज दें
शब्बीर हसन खान “जोश” मलिहाबादी, जो जन्मे अवध (लखनऊ) में और जिनका इन्तिकाल हुआ इस्लामाबाद में, आम भारतीय मुसलमान की भांति सहज अंतर्द्वंद्व से ग्रसित रहे। हिंदुस्तान में रहें या फिर दारुल इस्लाम में बसें? उनके यार जवाहरलाल नेहरू ने इसरार किया था कि : “भारत में ही रहें, भले ही अपने संतानों को कराची भेज दें।” वे नहीं माने। जोश को आशंका थी कि हिंदीभाषी भारत में उर्दू ख़त्म हो जायेगी।
धोती पहनना और चुटिया फैशन हो जायेंगी। हालाँकि नेहरू ने इसे निर्मूल कहा और बताया : “मुझसे जो पाकिस्तानी मिलते हैं वे सब सूट टाई पहनते हैं। अंग्रेजी बोलते हैं। इस्लामी तमद्दुन कहाँ बचा ? उर्दू कहाँ रही ?” नेहरू ने जोश को पद्मभूषण से नवाजा था। हालाँकि ‘हिलाले इम्तियाज’ की उपाधि से पाकिस्तानी सरकार ने भी उन्हें सम्मानित किया था।
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मुफलिसी का मंजर: कलम चलाने वाले को बीड़ी और तेल बेचना पड़ा
अपने लम्बे निवास के बावजूद, जोश कराची या रावलपिण्डी (इस्लामाबाद) में कभी घुल नहीं पाए। लखनऊ की तरह। जोश ने चाहा था कि उन्हें दुहरी नागरिकता की अनुमति मिले। इस पर कराची के मुख्य कमिश्नर सैयद अबू तालिब नकवी नाराज हो गये। भारत से हिजरत कर पाकिस्तान जाने के एवज में सरकारी वादे के बावजूद कराची में बड़ा मकान उन्हें नहीं दिया गया। इस्लामी हुकूमत ने अवध के इस बड़े जमीनदार को बस जरा सी भूमि ही दी थी।
मुफलिसी का मंजर यह था कि कलम चलाने वाले को बीड़ी और तेल बेचना पड़ा, ढाबे पर बैठना पड़ा, कपडे की दुकान खोलनी पड़ी। सब जगह नाकाम ही रहे। शायरे इन्कलाब अब समझ गये कि दारुल इस्लाम में सिन्धी, पंजाबी, बलूची, बंगाली, पश्तून आदि ही जुबानें हैं, उर्दू नहीं है। जोश ने लिखा भी कि पाकिस्तान में उन्हें मुसलमान नहीं मिला। अगर मिले भी तो वहाबी, कादियानी, शिया, अहमदिया, बरेलवी, देवबंदी वगैरह।
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मलिहाबाद की सोंधी मिट्टी कि सुगंध और आम के बौर की महक भी
शुद्ध उर्दू के सख्त हिमायती जोश रहे। एक बार राष्ट्रपति मार्शल अयूब खान ने जोश की एक जलसे में तारीफ की और कहा : “आप आलम हैं।” बिना चूके अथवा हिचके जोश ने दुरुस्त किया: “आलिम।” पठान राष्ट्रपति अपने उर्दू उच्चारण पर इस टिप्पणी से रुष्ट हो गये। जोश को मिली सीमेंट की एजेंसी निरस्त हो गयी। तब उन्हें अपना दोआबा याद आया होगा। मलिहाबाद की सोंधी मिट्टी कि सुगंध और आम के बौर की महक भी।
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आखिरी दिनों में जोश अपने मादरे वतन लौटना चाहते थे, जहाँ उनके पुरखे दफ़न हैं। इंदिरा गाँधी ने इनकार कर दिया। पूछा : “मेरे वालिद की मिन्नत को क्यों ठुकराया था?” मौलाना आजाद ने तो कह दिया था, “जोश! अब मेरे मरने के बाद ही तुम हिंदुस्तान में कदम रखना।”
भाई सज्जाद को भारत में दुबारा जीवन मिला
जोश सैयद सज्जाद जहीर जैसे खुशकिस्मत नहीं थे। सर वजीर हसन जो अंग्रेजों के चीफ जज (अवध) रहे, के बेटे सज्जाद पाकिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी गठित करने गये थे। इस्लामियों ने उन्हें रावलपिन्डी षड्यंत्र केस में फंसा दिया, जेल में भुगते। उनके सहअभियुक्तों में थे प्रतिरोध के शायर फैज अहमद फैज, मेजर अकबर खान आदि। सज्जाद के भाई और यू.पी. में पण्डित गोविन्द बल्लभ पन्त की कांग्रेसी सरकार में मंत्री रहे सैयद अली जहीर ने जवाहरलाल नेहरू से अनुनय की तो भाई सज्जाद को भारत में दुबारा जीवन मिला।
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इन सबके बावजूद आज भी भारतीय युवाओं को जोश मलीहाबादी के विप्लवकारी गीत अनुप्राणित करते हैं। क्योकि कविता के लिए न दारुल हर्ब होता है और न दारुल इस्लाम!
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