Rani Lakshmi Bai: राष्ट्र और संस्कृति रक्षा का अद्भुत संघर्ष

Rani Lakshmi Bai: भारत के स्वाभिमान, स्वाधीनता और संस्कृति स्थापना केलिये अपने प्राणों का बलिदान देने वाली महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवम्बर, 1828 को बनारस में हुआ था । उनका नाम मणि कर्णिका था।

Ramesh Sharma
Written By Ramesh Sharma
Published on: 19 Nov 2022 10:20 PM IST
Rani Lakshmi Bai jayanti
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Rani Lakshmi Bai jayanti (Social Media)

Rani Lakshmi Bai: भारत के स्वाभिमान, स्वाधीनता और संस्कृति स्थापना केलिये अपने प्राणों का बलिदान देने वाली महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवम्बर, 1828 को बनारस में हुआ था । उनका नाम मणि कर्णिका था । उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी देवी था । पिता का जीवन जहाँ भारतीय संस्कृति के लिये समर्पित रहा । वहीं माता संस्कृत की विद्वान् और धार्मिक विचारों की थी । मणिकर्णिका को वीरता, साहस और राष्ट्र संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव माता से मिला । लेकिन माता की मृत्यु इनके बालपन में ही हो गयी थी । इनके पालन पोषण का काम पिता के जिम्मे आया । उन्होंने दोनों दायित्व निभाये। माता का भी और पिता का भी । वे जहाँ जाते बेटी को साथ रखते । बालिका बचपन से चंचल, साहसी और संकल्पवान थी । वह अपनी बाल सुलभ चंचलता से सबको आकर्षित कर लेतीं थीं । इसलिए सबने नाम छबीली रख दिया । वे पिता के साथ पेशवा के दरबार भी जातीं थीं ।

समय के साथ बड़ी हुईं और 1842 में उनका विवाह झाँसी के महाराज गंगाधर राव से हो गया । विवाह के बाद नाम लक्ष्मी बाई हुआ । उन्हे एक पुत्र तो हुआ लेकिन उस बालक की मृत्यु मात्र चार माह में ही हो गयी । आगे महाराज भी बीमार रहने लगे । इससे राज्य संचालन के लगभग सभी कार्य रानी लक्ष्मीबाई ही देखने लगीं । 1853 में महाराज का स्वास्थ्य बहुत गिर गया । तब उन्होंने कोई बालक गोद लेने का निर्णय लिया । एक बालक गोद लिया गया । उसका नाम दामोदर राव रखा गया । महाराज के निधन के बाद इस बालक का औपचारिक राज्याभिषेक करके राजकाज महारानी पूर्व की भांति चलाने लगीं ।

लेकिन अंग्रेजों को यह नागवार लगा । उन्होंने सेना भेजकर बल पूर्वक झाँसी नगर और किले पर कब्जा कर लिया । रानी को अपने परिवार सहित किला छोड़कर झाँसी के रानी महल में आना पड़ा । वे मौके की नज़ाकत देखकर किले से महल महल में आ तो गयीं पर यह उन्हें अपने स्वाभिमान और पूर्वजों की परंपरा पर आघात लगा । उन्होंने नाना साहब पेशवा से संपर्क किया और अपने राज्य को वापस लेने की योजना बनाई । सेना की भर्ती करती तो अंग्रेजों को शक होता । इसलिए उन्होंने महिला ब्रिगेड बनाना शुरू किया। जिसका नेतृत्व झलकारी बाई को दिया । 1857 में अवसर देख उन्होंने धावा बोल दिया और किले पर कब्जा कर लिया । उन्हे दोबारा सत्ता में देख झाँसी के पुराने सैनिक भी आ जुटे। इसके साथ महारानी ने सेना की भर्ती भी शुरू कर दी ।

वे स्वयं को मजबूत कर ही रहीं थी कि ओरछा और दतिया के राजाओं ने झाँसी पर संयुक्त रूप से हमला कर दिया। इतिहास कारों का मानना है कि इन दोनों राजाओं ने अंग्रेजों के इशारे पर हमला किया था। ताकि रानी की ताकत को कमजोर किया जा सके । रानी ने डटकर मुकाबला किया । उन्होंने इस दो तरफा हमले को विफल कर दिया । हमलावर दोनों सेनाओं को लौटना पड़ा । इस युद्ध में रानी को विजय जरूर मिली पर वे आंतरिक रूप से काफी कमजोर हो गयीं । यह नुकसान उन्हें दोनों ओर हुआ । आर्थिक भी और सैन्य शक्ति का भी ।उन्होंने फिर सेना में भर्ती आरंभ की । इसमें अनेक गद्दार भी भर्ती हो गये । अंग्रेजों 1858 में जोरदार हमला बोला । गद्दारों ने किले के द्वार खोल दिये । अंग्रेजी फौज भीतर आ गयी । अंग्रेजों ने नगर, किले तथा रानी महल पर पुनः कब्जा कर लिया । वीराँगना झलकारी ने घेरा बनाकर रानी को दत्तक पुत्र दामोदर राव घेरा बाहर निकाला । झलकारी की शक्ल एवं कद काठी रानी से बहुत मिलती थी । इसलिए झलकारी बाई अंग्रेजों की सेना को उलझाने में कामयाब रही ।

रानी कालपी आईं। यहां तात्या टोपे के मार्ग दर्शन में पुनः सेना गठित की । और ग्वालियर पर धावा बोला गया । रानी ने किले पर कब्जा कर लिया गया । महाराज ग्वालियर खुलकर तो सामने न आये पर उन्होंने किला खाली कर दिया । ग्वालियर की सेना भी रानी की कमान में आ गयी । अंग्रेजों ने ग्वालियर पर धावा बोला । रानी 18 जून, 1858 को ग्वालियर में कोटा की सराय क्षेत्र में लड़ते हुये बलिदान हो गयीं । उनका अंतिम संस्कार पुजारी की मदद से नबाब बाँदा ने किया । यहाँ आज भी उनकी समाधि बनी है । नबाब बांदा बाजीराव पेशवा के वंशज थे । लेकिन समय के साथ धर्मान्तरित हो गये थे । बाद में नबाब बांदा ने अंग्रेजों से संपर्क करके रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को मध्यप्रदेश के इंदौर में बसाने का प्रबंध कर किया । यह परिवार आज भी इंदौर में रहता है ।

Prashant Vinay Dixit

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