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Social Change: बाहरी दुनिया में हमारी उपस्थिति-अनुपस्थिति के मायने

Social Change: लोग अपनी जिंदगी को ही विडंबना पूर्ण तरीके से जीना स्वीकार कर लेते हैं या इसी विडंबना पूर्ण तरीके से जीने को अपनी परंपरा समझ बैठे हैं।

Anshu Sarda Anvi
Written By Anshu Sarda Anvi
Published on: 5 Nov 2024 3:45 PM IST
Social Change
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Social Change   (photo: social media )

Social Change: दिग्गज अर्थशास्त्री बिबेक देवरॉय, जो कि 2017 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद की अध्यक्ष थे, का शुक्रवार को निधन हो गया। उन्होंने चारों वेदों, पुराणों, 11 उपनिषदों का अंग्रेज़ी अनुवाद भी किया था। कई अखबारों के नियमित स्तंभकार देवराय ने अस्पताल के सीसीयू से बाहर निकालने के बाद अपने जीवन के बारे में लिखा था, ' मेरे लिए बाहरी दुनिया एक खिड़की तक सीमित है। बाहर एक दुनिया है अगर मैं वहां ना रहूं, तो क्या होगा? कुछ शोक संदेश......... शायद महत्वपूर्ण लोगों के भी। शायद पद्म भूषण या पद्म विभूषण। पर कोई सामाजिक नुकसान नहीं, ज्यादा नहीं , निजी नुकसान संभव है। किसको? मेरे बेटे स्नातक होने के बाद विदेश में है और भारतीय की तुलना में अमेरिकी अधिक है। मेरी पत्नी सुपर्णा पूछती है ?एक नई किताब आई है? क्या आप इसे पढ़ना चाहेंगे इसे। इसे केन जेनिंग्स ने लिखा है। नाम है, मरने के बाद देखने के लिए 100 स्थान। हम दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते हैं।'

सच यही है कि किसी के भी जाने से न तो दुनिया रूकती है और न ही शहर को दर्द होता है। सब कार्य -व्यापार , दुनिया ऐसे ही चलती रहती है जैसे कि कुछ खास न हुआ हो, कुछ निजी हानियों को छोड़कर सब कुछ यंत्रवत, यथावत चलता रहता है। सबकी दुनिया ऊपर से शांत दिख रही होती है पर सबके भीतर का सुख और दुख दोनों अपने आपको ऊपर रखने की मुठभेड़ में लगे होते हैं , भागती- दौड़ती हुई इस दुनिया में होते उत्सव, पर्व, पार्टियां, सोशल गैदरिंग सब कुछ एक जीवंत समाज की निशानी है। पर लोग अपनी जिंदगी को ही विडंबना पूर्ण तरीके से जीना स्वीकार कर लेते हैं या इसी विडंबना पूर्ण तरीके से जीने को अपनी परंपरा समझ बैठे हैं।

मोबाइल के गुलाम

एक डॉक्टर के चेंबर में जो कि हालनुमा था, में एक तरफ के सोफे पर एक महिला और तीन अलग-अलग बच्चे बैठे थे। एक तरफ के सोफे पर दो युवा महिलाएं थीं, एक तरफ पड़ी कुर्सियों पर कुल जमा चार लोग और बैठे रिसेप्शन काउंटर पर दो रिसेप्शनिस्ट थीं। हम दो लोगों को छोड़कर सभी मोबाइल में अपने आंखें गड़ाए हुए थे। कौन क्या देख रहा है, किसी को किसी के बारे में जानकारी नहीं । पहले जब डॉक्टर के चेंबर में जाते थे बीच में टेबल पर कुछ पत्रिकाएं कुछ अखबार या बाल पत्रिकाएं रखी मिलती थीं। धीरे-धीरे वे साइड पर रखी टेबल या रैंक पर चली गईं। उसकी जगह ले ली टीवी ने जिस पर रिसेप्शनिस्ट अपनी मर्जी का या कोई भी समग्र रूप से देखने वाला स्पोर्ट्स चैनल , समाचार चैनल या फिर कोई फिल्म लगा देता था, जो कि डॉक्टर को दिखाने आए वहां बैठे सभी व्यक्ति मन से या मन मार कर देख लिया करते थे। तब यह पता था कि सब यही देख रहे हैं, चाहे- अनचाहे। लेकिन अब के समय में हम सब इस मोबाइल के इसके इतने गुलाम हो चुके हैं कि परियों की कथाएं, पंचतंत्र की कहानी और अखबार भूल चुके हैं पर जो याद रहा, बचा रह गया है वह है वेब सीरीज। उसकी अभद्र भाषा, उसकी दुनिया का मायाजाल। हम इतने अधिक संवादहीन हो चले हैं कि हम प्रकृति से जुड़े हमारे पर्व् को भी आडंबरों के दबाव में दिखावे तक ही सीमित रख पाते हैं, हर जगह ज्यादातर एक सी स्थिति है।


ढिबरी की रोशनी से बिजली युग

हमारे बच्चों ने तो वह समय नहीं देखा है, जो हमने देखा है। चिमनी या ढिबरी की रोशनी से लेकर मोमबत्ती युग और फिर जिसमें साथ-साथ बिजली भी थी लेकिन इतनी अधिक आती- जाती थी कि हमें वही काम लेने पड़ते थे और उसके बाद हमने जनरेटर और बैटरी देख रहे हैं, बिजली के साथ ही तो। आज के समय की पिछले समय से तुलना नहीं कर सकते और अब जबकि परिवार सीमित होते जा रहे हैं और परिवार के बच्चे भी पढ़ लिखकर अपने मूल स्थान को छोड़कर बाहर की दुनिया में अपने लिए अलग सेटअप तैयार कर ले रहे हैं। और जब अब पड़ोसी जो कि पहले एक -दूसरे के घर के सदस्यों के समान हुआ करते थे ,अब किसको किसकी पड़ी है और किसको किसकी जरूरत वाले भाव में आ गएं हैं। कुछ हो रहा है तो हमें क्या? ऐसे कंधे उचका कर पास से निकल जाने की प्रवृत्ति बढ़ गई है। पास के घर में कौन रहता है अब यह भी अनजान होता जा रहा है । ऐसे में किसी के भी जाने से चले जाने से कोई सामाजिक नुकसान नहीं होता है । अगर कोई निजी नुकसान होता है वह भी दुनियादारी के इन थपेड़ों में खुद को खड़ा करने के लिए उसे निजी नुकसान को भूलकर आगे बढ़ना होता है।


हमारा अपना एकलौता राज

पहले संयुक्त परिवारों का समय था, अभी भी है पर अब उसका प्रतिशत बहुत कम हो चुका है। तब सब एक- दूसरे की देखभाल कर लिया करते थे। पर अब परिवार चार से दो तक सीमित होता जा रहा है, ऐसे में किसी भी एक के जाने से सामाजिक नुकसान तो वाकई नहीं होता है । लेकिन जो निजी नुकसान होता है वह अपूरणीय होता है। अब हम अपनी दुनिया में ही इतने उलझते जा रहे हैं कि हम उसी में खुद को कंफर्टेबल फील करते हैं और हम उस से पार भी नहीं निकालना चाहते क्योंकि उस दुनिया में हमारा अपना एकलौता राज होता है ,जिसमें किसी और की वजह से हमारे को कोई चोट नहीं पहुंचती है और बाहरी दुनिया से हमारा यह विलगांव ही हमें मरने के बाद इस अधिक नुकसान होने से बचा लेता है। जब हमारी दुनिया ही सीमित होगी तो हमारे जाने के बाद हमारा नुकसान भी तो सीमित ही हुआ। इस तरह से यह हमारा पारिवारिक या सामाजिक नुकसान होने से बचा लेता है । लेकिन क्या है ठीक है ? यह उतना भी ठीक नहीं जितना कि दिखने में आसान लगता है। मैं अकेला ही कब तक सब कुछ करता रहूंगा या मैं अकेली ही सब कुछ कब तक मैनेज करती रहूंगी, ऐसे भाव आ जाने से व्यक्ति को साथ में रहने के लिए सुविधा हो जाती है। अब यह हमारे ऊपर है कि हम भी देवराय के जैसे अपनी अंतिम श्रद्धांजलि जैसा कुछ लिखकर जाएंगे या इस दुनिया को हंसी- खुशी विदा करेंगे और जब तक हमारी जिंदगी है तब तक हम शांत, सक्रिय और सकारात्मक होकर अपने जीवन को आगे बढ़ाएंगें।


( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं ।)



Monika

Monika

Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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