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मोदी की सुनामी के आगे PK का गठबंधन बम हुआ फुस्स, निकल गई साइकिल की हवा
SUDHANSHU SAXENA
लखनऊ: यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजों ने 'पीके' के गठबंधन बम को फुस्स साबित कर दिया है। इस बार विधानसभा चुनावों में '27 साल यूपी बेहाल' का नारा लेकर प्रचार शुरू करने वाली कांग्रेस ने नामांकन से ठीक पहले समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लिया। कांग्रेस के खाते में 105 सीटें आईं और इन सीटों पर साइकिल के हैंडिल को पंजे ने कसकर पकड़कर गठबंधन में जान फूंकने की पूरी कोशिश की, लेकिन नतीजे आते-आते जहांं एक ओर साइकिल की हवा निकलने लगी, वहीं पंजे की हैंडिल पर पकड़ भी कमजोर होती रही। नतीजतन समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर सैंकड़ा भी न छू सकी। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में लोकसभा और यूपी विधानसभा का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन कांग्रेस ने किया है।
प्रियंका गांधी का बड़ी भूमिका में आना निकला अफवाह
यूपी विधानसभा चुनावोंं से ठीक पहले राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रियंका गांधी को बड़ी भूमिका में चुनावी मैदान में उतारने की चर्चा ने जोर पकड़ा। ऐसा माना जाने लगा कि कांग्रेस पार्टी प्रियंका गांधी के चेहरे को आगे करके सियासी मैदान में दांव लगा सकती है। इतना ही नहीं जब राहुल गांधी ने देवरिया से दिल्ली किसान यात्रा निकाली तो भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच प्रियंका गांधी को बड़ी जिम्मेदारी के साथ सूबे की सियासत में उतारने की चर्चा होती रही। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आए, प्रियंका गांधी सीमित भूमिका में ही नजर आईं।
प्रियंका गांधी का नाम स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल तो किया गया लेकिन अपने गढ़ रायबरेली, अमेठी और पश्चिम के चंद जिले छोड़कर उन्होंने अन्य जगह कोई सभा तक नहीं की। इतना ही नहीं, बल्कि प्रियंका गांधी ने दो चरणाों की 140 सीटों की वोटिंग बीत जाने के बाद पहली जनसभा की। इसमें वह रायबरेली में राहुल गांधी के साथ मंच पर दिखीं। इन चुनावों में प्रियंका गांधी ने सिर्फ दो जनसभाएं कीं। जबकि कांग्रेसी कार्यकर्ता उन्हें सूबे की सियासत के निजाम के चेहरे के रूप में इस बार देखना चाहते थे। ऐसे में प्रियंका गांधी की बड़ी भूमिका से कांग्रेस के लिए सूबे की सियासत में करिश्मा होने की आस संजोए कांग्रेसी काडर को एक बार फिर निराशा ही हाथ लगी।
राहुल गांधी का पीपुल कनेक्ट नहीं हो पाया
राहुल गांधी ने विधानसभा चुनावों से ठीक पहले देवरिया से दिल्ली तक एक किसान यात्रा निकाली। इसके पीछे प्रशांत किशोर की स्ट्रैटजी थी कि इससे जहां एक आेर राहुल गांधी से लोग सीधे तौर पर खुद को जुडा महसूस करेंगे, वहीं दूसरी अोर कांगेस के कार्यकर्ता भी एक्टिव होकर चुनावी तैयारियों में जुट जाएंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। आम आदमी खुद को राहुल गांधी के काडर से सीधे तौर पर जुड़ा महसूस नही कर पाया। यही कारण रहा कि बाद में कांग्रेस को गठबंधन की राह पकड़नी पड़ी।
वोट ट्रांसफर दोनों एक दूसरे काेे नहीं करा पाए
यूपी में इस बार विधानसभा चुनावों के सियासी अखाड़े में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने गठबंधन किया। अखिलेश यादव और राहुल गांधी के एक साथ चुनाव लड़ने के फैसले के पीछे युवाओं और मुसलमानों के वोट बैंक से एक-दूसरे को सियासी फायदा पहुंचाने का था। सियासी दिग्गजों का आंकलन था कि एक ओर जहां समाजवादी पार्टी से जुड़े मुस्लिम काडर का वोट बीएसपी में न जाकर कांग्रेस को मिलेगा। वहीं सूबे के युवाओं का वोट भी कांग्रेस और सपा को बहुमत का करिश्माई आंकड़ा पार करने में मदद करेगा, लेकिन सपा और कांग्रेस दोनों ही एक-दूसरे के पक्ष में अपने काडर का वोट ट्रांसफर नहीं करवा पाए और वोट बैंक खिसककर अन्य दलों को लाभ पहुंचाने की भूमिका में नजर आया।
सपा- कांग्रेस में भीतरघातियों ने पहुंचाया नुकसान
कांग्रेस काडर ने यूपी चुनावों से पहले ग्राउंडलेवल पर कार्यकर्ताओं को मेहनत करने का फरमान जारी कर दिया। करीब 300 सीटों पर कार्यकर्ताआें ने जान फूंकना शुरू कर दिया। राहुल गांधी की किसान यात्रा में कई संभावित प्रत्याशियों ने किसान मांग पत्र भरवाने से लेकर कार्यकर्ता बनवाने तक बहुत काम किया। इसके अलावा राहुल गांधी की यात्रा और कांग्रेस के 27 साल यूपी बेहाल के नारे को घर-घर तक पहुंचाने में काफी खर्चा भी किया।
इसके बाद जब चुनावों से ठीक पहले गठबंधन की घोषणा हुई तो कांग्रेसियों ने समाजवादी पार्टी को भस्मासुर की संज्ञा देते हुए विरोध शुरू कर दिया। कांग्रेेस कार्यालय पर विरोध करते हुए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने कहा था कि समाजवादी पार्टी से गठबंधन से कांग्रेस 127 साल तक सत्ता में नहीं आ पाएगी। इस गठबंधन के बाद टिकट न पाने वालों ने जमकर सपा-कांग्रेस गठबंधन के प्रतयाशियों का विरोध किया और चुनाव हराने मे सारी ताकत लगा दी। भीतरघातियों के इस तरह आक्रामक हो जाने के कारण गठबंधन के कई प्रतयाशियों को हार का स्वाद चखना पड़ा।
ब्राहम्णों और जाट का नहीं मिला साथ
कांग्रेेस ने चुनावों से ठीक पहले शीला दीक्षित को सीएम फेस बताकर ब्राहम्णों को खुश करने की कोशिश की, लेकिन बाद में गठबंधन के सीएम फेस के रूप में अखिलेश यादव को आगे करके शीला दीक्षित के फेस को पीछे खींंच लिया। इसके अलावा जाटाें से कांग्रेस को काफी उम्मीदें थीं, लेकिन चुनाव से ठीक पहले बीजेपी के शीर्ष काडर के नेताओ द्वारा जाटों को दिया गया महत्व कांग्रेस के लिए नुकसानदायक साबित हुआ। ब्राहम्णों और जाटों के सहारे धमाकेदार प्रदर्शन की आस लगाए कांग्रेस को इन दोनों का ही साथ नहीं मिल पाया।
यूपी में आधा हुआ कांग्रेस का वोट प्रतिशत
यूपी विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन की चाल चली। राजनीतिक दिग्गजों का अनुमान था कि इस कदम से उत्तर प्रदेश पर हाशिए पर जा चुकी कांग्रेस का काडर एक बार फिर एक्टिव होगा। इसके अलावा कांग्रेस को इस गठबंधन से राजनीतिक संजीवनी मिलने की भी उम्मीद थी।लेकिन शनिवार को परिणाम आते आते यह आस भी जाती रही। कांग्रेस का साल 2012 के पिछले विधानसभा चुनावों में वोट प्रतिशत जहां 11 परसेंट रहा था, वहीं इस बार कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटकर आधे पर आ गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुनामी में कांग्रेस का वोट प्रतिशत का रहा-सहा किला भी धराशायी होता दिख रहा है।
रायबरेली- अमेठी में 2 सीटों पर सिमटी कांग्रेस
यूपी विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुनामी के आगे कांग्रेस के गढ़ का राजनीतिक किला भी धराशायी हो गया। रायबरेली- अमेठी जनपद की 8 सीटों पर कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी लड़ाए, लेकिन मात्र 2 सीटों रायबरेली सदर और हरचंदपुर में ही कांग्रेस जीत दर्ज करा पाई। इसमें भी रायबरेली सदर की प्रत्याशी अदिति सिंह की जीत उनके परिवार की प्रतिष्ठा का परिणाम है। इसके अलावा सिर्फ हरचंदपुर में राकेश सिंह जीत का स्वाद चख पाए।
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