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पान की खासियतें जानकर हैरान हो जाएंगे आप, ऐसे हुई थी इसकी शुरूआत
भारतीय लोक संस्कृति में पान हिंदुस्तानी समाज में कब से शुरू हुआ, यह तो नहीं पता। मगर इतना जरूर कहा जाता सकता है कि इसका प्रचलन वैदिक काल से ही माना जाता है।
दुर्गेश पार्थसारथी, अमृतसर
भारतीय लोक संस्कृति में रचा-बसा पान हिंदुस्तानी समाज में कब से शुरू हुआ, यह तो ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। मगर इतना जरूर कहा जाता सकता है कि इसका प्रचलन वैदिक काल से ही माना जाता है।
इस काल में पान पाप निवारक, सात्विक एवं शुद्धता का प्रतीक तो था ही, बल्कि कालांतर में इसे सम्मान, समृद्धि एवं शौर्य का सूचक भी माना जाता था। धार्मिक कर्मकांडों, मंगल कार्यों, अतिथि सत्कार एवं साहसिक कार्यों में पान के पत्ते एवं पान के बीड़े की अपनी अलग ही पहचान व परंपरा रही है।
लेकिन यह परंपरावादी पान आज हिंदुस्तान के करोड़ों बेरोजगार लोगों के लिए रोजगार व आजीविका का साधन बना हुआ है। यही नहीं इसके व्यापार से देश को करोड़ों का राजस्व भी मिल रहा है।
सबसे ज्यादा खाई जाने वाली वनस्पतियों में से एक
लोक गीतों से लेकर नई-पुरानी फिल्मों के गानों में, मुजरा करने वाली तवायफों, शायरों व कव्वालों की महफिलों, शुभ समारोहों और धर्मस्थलों पर अलग-अलग तरह से प्रयोग किया जाने वाला पान आज देश के हर गली व मोड़ पर सुगमता से प्राप्त हो जाता है।
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भारत भूमि पर जन्म लेकर इसने समस्त विश्व पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। यह विश्वस्तर पर सब्जियों के बाद खाई जाने वाली वनस्पतियों में पहले स्थान पर आता है। यह लोगों को जितनी सुगमता से हासिल हो जाता है, इसको उगाना उतना ही कठिन व जटिल होता है। हलांकि अब पान का कारोबार काफी बढ़ चुका है।
यहां तक कि इस का निर्यात पाकिस्तान सहित अन्य देशों में भी किया जाता है। और तो और इसके बागवानी के लिए जिला उद्यान विभाग की ओर से किसानों को प्रोत्साहित व प्रशिक्षित भी किया जाता है।
एक पान कई नाम
देखने में पीपल या गिलोय के पत्तों सरीखा लगने वाला पान कई नामों- जैसे संस्कृत में नाग वल्ली, ताम्बूल, बंगाली में पान, मराठी में पान-बिड़याचैपान, गुजराती में नागरबेल, तेलगु में तमलपाक, कन्नड़ में विलयादेले, मलयालम में बेल्लिम और हिंदी में पान या ताम्बूली आदि नामों से जाना जाने वाला यह पान वानस्पतिक भाषा में ‘पाईपर बीटल’ कहा जाता है।
धार्मिक आधार
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एक धार्मिक कथा के आधार पर पान की उत्पत्ति के बारे में प्रचलित है कि जब ब्रम्हा जी ने सृष्टि की रचना की तो पान को फल जितनी शुद्धता प्रदान की। जब उन्होंने पान को स्वर्ग से धरती पर भेजना चाहा तो उसने यह कह कर धरती पर आने से इंकार कर दिया कि लोग कलियुग में चबाकर इधर-उधर थूक कर उसका निरादर करेंगे।
इस पर ब्रम्हा जी ने पान को वचन दिया कि मुंह से निकलने वाली पहली पीक वह अपनी हथेली पर रोकेंगे और उसका निरादर नहीं होने देंगे। तब जाकर पान कहीं धरती आया। आज इसी मान्यता के कारण कुछ एक लोग पान खाने से पहले उसके एक कोने से थोड़ा सा टुकड़ा काट कर जमीन पर फेंक देते हैं। ताकि पहली पीक का दोष समाप्त हो जाए और उनके द्वारा थूकी गई पीक ब्रम्हा जी की हथेली पर न गिरे।
कभी पराक्रम का प्रतीक भी था पान
प्राचीन काल में पान को जहां पूजा व अन्य रीति-रिवाजों पर शुभ एवं पवित्र मान कर स्वीकारा गया वहीं इसे हिंदू राजाओं द्वारा शौर्य एवं पराक्रम का प्रतीक भी मान कर सम्मानित किया गया। उस दौर में जब कोई विशेष मेहमान आता था या कोई उत्सव समारोह सम्पन्न होता, तब सोने-चांदी व रत्न जड़ित तश्तरियों में पान के बीड़े सजाकर स्वागत का रिवाज उस काल की अपनी उपलब्धि थी।
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इसके प्रति पुरुष समाज के अतिरिक्त महिला वर्ग का भी पान के प्रति आकर्षण आदिकालीन रहा है। पुराने समय में शाही परिवारों द्वारा लड़की की शादी में कीमती धातुओं द्वारा निर्मित पानदान, सरौता, चांदी व सोने से निर्मित पान के पत्ते व सुपारी देहेज में देने का प्रावधान था। जिसकी झलक आज भी कहीं-कहीं देखने को मिल जाती है।
राजघरानों तक सीमित था पान
कहा जाता है कि उस समयकाल में सोमरस की भांति पान आम आदमी के प्रयोग की वस्तु नहीं था। इसका प्रयोग मात्र उच्चवर्गीय व राजघरानों तक ही सीमित था। सामान्य जनमानस के लिए इसका उपलब्ध न होना या प्रतिबंधित किया जाना इसकी पैदावार पर निर्भर था।
उस समय लागत व मेहनत अधिक और उपज कम होने के कारण इसकी खेती एक विशेष वर्ग जिसे बरई कहा जाता था वही लोग किया करते थे। और ये लोग पान की खेती केवल राजघरानों या सुल्तानों के लिए ही करते थे।
मुमताज ने शुरू किया पान में चूना लगाना
जिस तरह पानी की खेती करने वाले को बरई कहा जाता था उसी तरह उस जमाने में पान लगा कर राजाओं को देने वाले को पनहेरी या पनवाड़ी कहा जाता था। ये पनवाड़ी आज की भांति पान में तरह-तरह की सामग्रियां नहीं डालते थे। बल्कि उस समय पान का बीड़ा बनाते समय इसमें सुपारी, कत्था, इलायची, सौंफ या लौंग ही डाली जाती थी।
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आज की तरह इसमें चूना नहीं लगाया जाता था। धीरे-धीरे समय बदलता गया और पान खास से आम बन गया। इतिहासकारों के मुताबिक मुगल बादशाह शाहजहां की बेगम मुमताज ने पान के पत्ते पर कत्थे के साथ चूना लगाने की विधि ईजाद की।
इन राज्यों में होता है पान का उत्पादन
आज पान का दायरा इतना बढ़ चुका है कि हिंदुस्तान के बाजारों में कई नामों- बनारसी, मगही, सौंगी, बंगला, मीठा, जगन्नाथी आदि किस्मों के पान उपलब्ध हैं। इन्हीं किस्मों के हिसाब से पान की किमत भी तय होती है
पान का उत्पादन करने वाले प्रमुख्य राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्रा, असम, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू व केरल आदि हैं।
औषधीय गुणों से परीपूर्ण है पान
लक्ष्मी नारायण आयुर्वेदिक कॉलेज अमृतसर के प्रोफेसर अरविंदर श्रीवास्तव कहते हैं कि पान में मिला तत्व जैसे चूना, सुपारी, लौंग इलाइची, केसर, जायफल, जावित्री, पिपरमेंट, गुलकन्द, सौंफ आदि सभी आयुर्वेद के मुताबिक मानव स्वास्थ्य के लिए गुणकारी हैं। इसके अलावा पान पाचन में सहायक, कामोत्तेजक, सूजन, मूंह के छाले, भूख बढ़ाने, अल्सर से मुक्ति दिलाने, मूत्र संबंधी बीमारियों को दूर करने, खांसी, जुकाम, किडनी व पायरिया आदि रोगों में गुणकारी होता है।
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इसके साथ पान त्वचा को निखारने में भी काम आता है। वे कहते हैं आयुर्वेद के प्रसिद्ध ऋषि बाग्भट ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अष्टांग संग्रह' में सुगन्धित रखने व प्रसन्नता की वृद्धि के लिए लौंग, कपूर, चूना व खैर से युक्त पान के सेवन का उल्लेख किया है।
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