Mughals Rajmahal in Jharkhand: मुगलों का पसंदीदा शहर रहा राजमहल, इसके शाही वैभव से विनाश तक की ऐतिहासिक यात्रा

Mughals Rajmahal in Jharkhand: राजमहल कोलकाता से लगभग 388 किमी और पटना से 348 किमी की दूरी पर बसा एक ऐतिहासिक शहर है, जो मुगल का भी पसंदीदा शहर हुआ करता था।

Akshita Pidiha
Written By Akshita Pidiha
Published on: 19 April 2025 1:40 PM IST
Muglon Ka Pasandida Shehar: मुगलों का पसंदीदा शहर रहा राजमहल, इसके शाही वैभव से विनाश तक की ऐतिहासिक यात्रा
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Muglon Ka Pasandida Shehar (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Favorite City Of Mughals: झारखंड राज्य के पूर्वी हिस्से में स्थित राजमहल (Rajmahal), साहेबगंज ज़िले (Sahebganj) का एक ऐतिहासिक नगर है। यह कोलकाता से लगभग 388 किमी और पटना से 348 किमी की दूरी पर बसा है। भले ही आज इसकी पहचान एक शांत, विरान शहर की हो चुकी हो, लेकिन इतिहास के पन्नों में यह कभी बंगाल की राजधानी के रूप में चमकता हुआ नाम रहा है। एक ऐसा स्थान, जहां मुग़ल बादशाहों, राजकुमारों, सिपहसालारों और बंगाल के नवाबों ने अपने निशान छोड़े।

मुग़ल काल और स्थापत्य वैभव

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

राजमहल को ऐतिहासिक दृष्टि से वह सम्मान मिला जो केवल चुनिंदा नगरों को नसीब होता है। यहाँ भव्य महलों, मस्जिदों, बारादरी, हम्माम और आकर्षक फ़व्वारों से सजे बाग़-बग़ीचों का निर्माण हुआ था। मुग़ल शासनकाल के दौरान यहाँ एक टकसाल भी स्थापित की गई थी, जहाँ सिक्कों को ढाला जाता था। इन सबका उल्लेख न केवल ऐतिहासिक पुस्तकों में मिलता है, बल्कि कई विदेशी यात्रियों के यात्रा-वृत्तांतों में भी इस शहर की प्रशंसा की गई है।

‘दामन-ए-कोह’ की गोद में बसा नगर

राजमहल, गंगा नदी के तट पर स्थित है और इसके पीछे फैली हुई है राजमहल पर्वत श्रृंखला। इस कारण इसे 'दामन-ए-कोह' अर्थात 'पहाड़ों की गोद' कहा जाता है। यहां का स्थान-चयन न केवल प्राकृतिक सुंदरता की दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि यह सामरिक और व्यापारिक दृष्टिकोण से भी बहुत मुफ़ीद था। गंगा नदी इसे व्यापारिक संपर्कों के लिए सुलभ बनाती थी और राजमहल की पर्वतमाला इसकी सुरक्षा को मजबूत करती थी।

राजमहल की पर्वतमाला: भूगर्भीय धरोहर

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

राजमहल केवल ऐतिहासिक रूप से ही नहीं, बल्कि भूगर्भीय दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार, राजमहल की पर्वत श्रृंखला का निर्माण जुरासिक युग (6.2 करोड़ से 14.5 करोड़ वर्ष पूर्व) में हुए ज्वालामुखीय विस्फोटों से हुआ था। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में दुर्लभ प्लांट फॉसिल्स (वनस्पति जीवाश्म) पाए जाते हैं।

इनमें से कई नमूने आज लखनऊ स्थित बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ़ पेलियोबाटनी में संरक्षित हैं। यही वजह है कि भारत सरकार के भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग (Geological Survey of India- GSI) ने राजमहल पर्वत श्रृंखला को ‘नेशनल जियोलॉजिकल मोन्यूमेंट्स’ की मान्यता प्रदान की है और इसे जियो-टूरिज़्म के लिए एक आदर्श स्थल के रूप में चिह्नित किया है।

राजमहल की स्थापना: अकबरनगर की शुरुआत

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

राजमहल की ऐतिहासिक नींव की कहानी हमें ‘अकबरनामा’ से मिलती है। यह उल्लेख करता है कि बंगाल के सूबेदार राजा मानसिंह (Raja Man Singh) ने इस नगर की आधारशिला रखी थी और इसे सम्राट अकबर के नाम पर ‘अकबरनगर’ नाम दिया गया। उस समय बंगाल की राजधानी गौड़ थी, लेकिन वह नदियों के रास्ते आक्रमण के लिए असुरक्षित थी।

ऐसे में मानसिंह ने एक नई सुरक्षित राजधानी की आवश्यकता को महसूस किया और 7 नवम्बर 1594 को उन्होंने राजमहल में बंगाल की राजधानी की नींव रखी। इस नए नगर का वातावरण गौड़ और ढाका की तुलना में अधिक स्वास्थ्यप्रद था और यह बिहार के समीप भी था, जिससे प्रशासनिक दृष्टिकोण से इसकी महत्ता और बढ़ जाती थी।

राजमहल का सामरिक महत्व केवल मुग़ल काल में ही नहीं, बल्कि उससे पहले भी था। शेरशाह सूरी के शासनकाल में भी यह इलाका विशेष रूप से रणनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण माना गया। बिहार से गौड़ जाने वाली सेना का मार्ग राजमहल से होकर ही गुज़रता था। यही कारण है कि यह क्षेत्र सैन्य अभियानों के संचालन के लिए भी उपयुक्त था।

राजमहल का मध्यकालीन इतिहास (Medieval history of Rajmahal): बग़ावत, वैभव और पतन की गाथा

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

मध्यकाल में जब राजमहल अपने शाही वैभव के चरम पर था, तब वहां यात्रा करने वाले अब्दुल लतीफ़ ने इसे 'आगमहल' कहा था। इसका कारण यह था कि उस समय अधिकांश मकानों की छतें घास-फूस से बनी होती थीं, जो अक्सर आग की चपेट में आ जाती थीं।

जहांगीर के शासनकाल की शुरुआत तक राजमहल बंगाल की राजधानी बना रहा, लेकिन 1622 में यह शहर एक गंभीर बगावत का केंद्र बना। इस बगावत की जड़ें बादशाह जहांगीर की मलिका नूरजहां की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में थीं, जिन्होंने अपने सौतेले बेटे शहज़ादा ख़ुर्रम (भविष्य के शाहजहां) को दरकिनार करने की कोशिश की।

शहज़ादा ख़ुर्रम, जिनकी पत्नी अर्जुमंद बानो बेगम (मुमताज़ महल) थीं, नूरजहां की भतीजी थीं। पहले तो नूरजहां की कृपा ख़ुर्रम पर बनी रही, लेकिन जब नूरजहां ने अपनी बेटी लाडली बेगम का विवाह शाहरीयार के साथ कर दिया, तो वह शाहरीयार को अधिक महत्व देने लगीं और ख़ुर्रम के खिलाफ हो गईं। इससे आहत होकर शहज़ादा ख़ुर्रम ने बगावत का रास्ता चुना।

बगावत करते हुए ख़ुर्रम दक्कन से बंगाल की ओर रवाना हुआ और 1634 की शुरुआत में बर्दवान होते हुए राजमहल पहुँच गया। उस समय राजमहल का सूबेदार इब्राहीम खां फ़तेहगंज था, जिसे ख़ुर्रम को रोकने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। पहले दौर की लड़ाई में फ़तेहगंज ने गंगा के उत्तर तट पर स्थित आलमनगर में जीत हासिल की, लेकिन नूरपुर की लड़ाई में उसे हार का सामना करना पड़ा और उसका सिर काटकर ख़ुर्रम के पास भेज दिया गया। इस प्रकार राजमहल पर ख़ुर्रम का नियंत्रण स्थापित हो गया।

1639 में शाहजहां ने अपने पुत्र शाह शुजा को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया, जिसने राजमहल को राजधानी बनाया। कुशल प्रशासक के रूप में शुजा ने राजमहल में राजस्व वृद्धि के साथ-साथ कई सुंदर इमारतों और बाग़-बग़ीचों का निर्माण कराया। उसने राजा मानसिंह द्वारा निर्मित क़िले की मरम्मत भी करवाई।

1657 में शुजा ने राजमहल से स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया, लेकिन अपने भाई औरंगज़ेब से संघर्ष में वह हार गया। 4 अप्रैल 1659 को उसने राजमहल छोड़ दिया और फिर कभी लौटकर नहीं आया। इस संघर्ष के दौरान भारी गोला-बारूद और आगज़नी से महलों की बहुत हानि हुई। शुजा का महल बर्बाद हो गया, किंतु उसकी सुंदरता की झलक अब भी शेष रही।

इन घटनाओं के 11 वर्ष बाद डच सर्जन निकोलस ने अंग्रेज़ अधिकारी जान मार्शल के साथ राजमहल का दौरा किया और शुजा के महल की भव्यता को देखा। उन्होंने दीवान-ए-खास, ज़नान खाना, हम्माम, ऐशगाह, फव्वारों से सजे बाग़, पानी के मीनार जैसे कई स्थापत्य देखे और शुजा के महल का नक्शा तैयार किया, जिसे हेमिल्टन बुकानन की डायरी में संग्रहित किया गया।

1781 में अंग्रेज़ चित्रकार विलियम होजेज़ ने वारेन हैस्टिंग्स के साथ राजमहल की यात्रा की और अपनी रिपोर्ट में लिखा कि शुजा के महल के कुछ भाग अब भी मौजूद थे। विशाल द्वार और कमरे मलबे के बीच खड़े थे, लेकिन ज़नान खाना पूरी तरह नष्ट हो चुका था। बाद में ब्रिटिश अधिकारियों ने इन इमारतों में कई बदलाव किए और महल का उपयोग अनुमंडल कार्यालय के रूप में करने लगे, जिससे इसका ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व लगभग समाप्त हो गया।

शाह शुजा के पतन के बाद मीर जुमला ने बंगाल के गवर्नर के रूप में राजमहल के बजाय ढाका को राजधानी बना लिया, जिससे राजमहल का शाही दर्जा समाप्त हो गया। फिर भी आने वाले वर्षों में यह ऐतिहासिक नगर अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं का साक्षी बना रहा।

सन 1712 में मुग़ल बादशाह बहादुर शाह की मृत्यु के पश्चात राजमहल एक बार फिर सियासी उठा-पटक का गवाह बना। फ़र्रूख़ सियार ने पटना से और शहज़ादा इज्जुद्दौला ने राजमहल से खुद को दिल्ली के तख़्त का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। लेकिन इस सत्ता संघर्ष में फ़र्रूख़ सियार ने इज्जुद्दौला को किनारे कर, बिना किसी विशेष विरोध के राजमहल और पटना पार करते हुए मुर्शिदाबाद पहुंचकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली।

गिरिया युद्ध और अलीवर्दी ख़ां का उदय

सन 1740 में राजमहल के समीप स्थित गिरिया में एक निर्णायक युद्ध हुआ। इस संघर्ष में अलीवर्दी ख़ां ने सरफ़राज़ ख़ां की हत्या कर बंगाल की नवाबी हथिया ली। यह घटना राजमहल के राजनीतिक महत्व में एक और अध्याय जोड़ती है। इससे कुछ वर्ष पूर्व, सन 1750 में, मराठों के आक्रमण की आशंका ने राजमहल को भी अपनी चपेट में ले लिया था।

सिराजुद्दौला की गिरफ्तारी और मीरन की विश्वासघात

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

सन 1757 की वह ऐतिहासिक घटना जिसने भारत की स्वतंत्रता के पन्नों पर दासता की गहरी लकीरें खींच दीं, वह भी राजमहल से ही जुड़ी हुई है। पलासी की लड़ाई में हार के बाद, बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला जब गंगा मार्ग से भाग रहा था, तब राजमहल में मीर जाफ़र के बेटे मीरन के भेदिये ने उसकी पहचान करवा दी। यहीं से सिराज को बंदी बनाकर मुर्शिदाबाद ले जाया गया और वहीं क़ैद में मीरन ने उसकी हत्या कर दी। लेकिन नियति ने मीरन को भी नहीं बख़्शा— गंगा यात्रा के दौरान राजमहल के निकट उस पर बिजली गिरी और उसकी मृत्यु हो गई। आज भी राजमहल में मौजूद उसकी कब्र उसकी ग़द्दारी की गवाही देती है।

मीर क़ासिम का प्रयास और उधवा की ऐतिहासिक लड़ाई

सिराजुद्दौला के पश्चात नवाब मीर क़ासिम ने राजमहल को पुनः उसकी खोई हुई शान दिलाने का प्रयास किया। लेकिन जब अंग्रेज़ों से तनाव बढ़ा, तो उसने राजधानी को राजमहल से हटाकर मुंगेर कर लिया। वहां भी संबंधों में कटुता बनी रही। यही कारण था कि सन 1763 में राजमहल से 10 किमी दूर उधवानाला (उधवा) में मीर क़ासिम और अंग्रेज़ों के बीच भीषण युद्ध हुआ। मीर क़ासिम ने उधवा में मज़बूत क़िलेबंदी की थी, परंतु उसके ही सेनापति की साज़िशों ने उसके सपनों को चकनाचूर कर दिया और अंग्रेज़ कमांडर मेजर आदम की जीत हुई। इतिहासकार मानते हैं कि अगर मीर क़ासिम यह युद्ध जीत लेता, तो संभवतः बक्सर की लड़ाई जैसी त्रासदी की आवश्यकता ही न पड़ती।

शाही गौरव से व्यावसायिक केंद्र तक

समय के साथ, राजमहल का शाही गौरव फीका पड़ने लगा। मुग़ल सल्तनत और बंगाल के नवाबों के हाथों निकलकर यह ऐतिहासिक स्थल यूरोपीय व्यापारियों और अंग्रेज़ अधिकारियों के लिए एक व्यापारिक केंद्र और सैरगाह में तब्दील हो गया। धीरे-धीरे यहां की हवेलियाँ, महल और बाग़-बग़ीचे बर्बादी की भेंट चढ़ते गए। राजमहल, जो कभी साम्राज्य का गर्व था, अब खंडहरों और पुरातात्विक अवशेषों के रूप में अपने अतीत की दास्तान कहता नज़र आता है।

आज का राजमहल अपने सुनहरे अतीत की परछाई बन चुका है— शाही वैभव से लेकर साज़िशों और युद्धों की भूमि तक की इसकी कहानी, भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की एक अनमोल धरोहर है।

राजमहल एक ऐसा नगर है, जिसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति और पुरातत्त्व का सुंदर संगम देखने को मिलता है। आज भले ही यह क्षेत्र एक शांत और कम चर्चित नगर के रूप में जाना जाता हो, लेकिन इसके भीतर वह विरासत और वैभव छिपा है जो इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पर्यटन मानचित्र पर महत्वपूर्ण स्थान दिला सकता है।

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