Shaniwar Wada History: शनिवार वाड़ा और मस्तानी की असली कहानी, जहां आज भी रहस्यों से पर्दा उठना बाकी है

Shaniwar Wada History: शनिवार वाड़ा लगभग 67 वर्षों तक मराठा सत्ता (Maratha Satta) का हृदयस्थल रहा। इसे देखने आज भी लोग यहां आते हैं।

Akshita Pidiha
Written By Akshita Pidiha
Published on: 18 April 2025 12:30 PM IST
Shaniwarvada Aur Mastani Ki Kahani: शनिवार वाड़ा और मस्तानी की असली कहानी, जहां आज भी रहस्यों से पर्दा उठना बाकी है
X

Shaniwarvada Aur Mastani Ki Kahani (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Shaniwarvada Aur Mastani Ki Kahani: पुणे स्थित शनिवार वाड़ा (Shaniwar Wada) का एक विशेष द्वार आज भी यह एहसास कराता है कि पेशवा बाजीराव (Peshwa Bajirao) की प्रिय पत्नी मस्तानी (Mastani) को पेशवा परिवार में किस हद तक अस्वीकृति का सामना करना पड़ा था। सन 1729 में पेशवा बाजीराव प्रथम (Baji Rao I) ने बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल की बेटी मस्तानी से विवाह किया था। विवाह के बाद मस्तानी कुछ वर्षों तक शनिवार वाड़ा में निवास करती रहीं, और जहाँ वे रहा करती थीं, उस स्थान को ‘मस्तानी महल’ (Mastani Mahal) के नाम से जाना गया।

हाल के वर्षों में जब हिंदी फ़िल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ (Baji Rao Mastani) प्रदर्शित हुई और लोकप्रियता की ऊँचाइयों तक पहुँची, तब लोगों में मस्तानी और उनके निवास स्थान को लेकर जिज्ञासा और बढ़ गई। पर्यटक अब उस ऐतिहासिक इमारत को देखने के लिए उमड़ते हैं, जो एक समय मराठा साम्राज्य का राजनीतिक और प्रशासनिक केंद्र हुआ करती थी।

शनिवार वाड़ा लगभग 67 वर्षों तक मराठा सत्ता (Maratha Satta) का हृदयस्थल रहा। लेकिन आज जो यात्री यहाँ आते हैं, उन्हें केवल इसके विशाल प्रवेशद्वार, ऊँची दीवारें और कुछ नींव-स्तंभ (प्लिंथ) ही दिखाई देते हैं। क्योंकि 21 फ़रवरी, 1828 को वाड़ा एक भीषण आग की चपेट में आ गया था, जिसमें समस्त इमारत और उसकी भव्यता जलकर खाक हो गई।

इस विनाश के बाद अब यह जानना अत्यंत कठिन हो गया है कि समृद्धि और वैभव के दिनों में शनिवार वाड़ा वास्तव में कैसा दिखता रहा होगा। यद्यपि इस विषय पर ऐतिहासिक प्रमाण कम ही बचे हैं, लेकिन प्रसिद्ध इतिहासकार दत्तात्रेय बलवंत पणनिस (1870–1926) ने अपनी प्रतिष्ठित पुस्तक ‘Poona in Bygone Days’ (1921) में शनिवार वाड़ा का उल्लेख विस्तार से किया है। उनकी यह पुस्तक आज भी उस कालखंड को समझने के लिए एक प्रामाणिक स्रोत मानी जाती है।

शनिवार वाड़ा का निर्माण: वैभव की एक ऐतिहासिक शुरुआत

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

पेशवा बाजीराव प्रथम के पिता, बालाजी विश्वनाथ, मराठा सम्राट छत्रपति शिवाजी महाराज के पौत्र और सतारा के राजा छत्रपति साहू के प्रधानमंत्री यानी पेशवा (Peshwa) थे। उनका परिवार पुणे से लगभग 32 किलोमीटर दूर स्थित सस्वाद के एक पारंपरिक वाड़े में निवास करता था।

सन 1720 में बालाजी विश्वनाथ का अचानक निधन हो गया। इसके बाद, मराठा सत्ता के केंद्र छत्रपति साहू ने केवल 20 वर्षीय युवा बाजीराव प्रथम को मराठा साम्राज्य का नया पेशवा नियुक्त कर दिया। यह नियुक्ति न केवल साहसिक थी, बल्कि मराठा राजनीति के लिए एक निर्णायक मोड़ भी सिद्ध हुई।

बाजीराव प्रथम के कार्यकाल में मराठा साम्राज्य ने अद्वितीय सैन्य सफलताएँ हासिल कीं और उसकी सीमाएँ मालवा, गुजरात, बुंदेलखंड होते हुए लगभग दिल्ली के दरवाज़े तक पहुँच गईं।

पुणे में शनिवार वाड़ा की नींव

सन 1730 में बाजीराव ने सस्वाद स्थित अपने पुश्तैनी वाड़े को छोड़कर पुणे को अपनी नई राजधानी बनाने का निर्णय लिया। उन्होंने पुणे के एक छोटे से गाँव में रहने वाले मछुआरों और बुनकरों से लगभग पाँच एकड़ ज़मीन खरीदी और उन्हें बदले में मंगलवार पेठ क्षेत्र में बसाया।

शनिवारवाड़ा नामकरण

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

शनिवार, 10 जनवरी 1730 को, एक पवित्र दिन मानते हुए, बाजीराव ने इस नई हवेली की नींव रखी। महल की वास्तुशिल्पीय योजना दो मंज़िल और तीन बड़े चौकों पर आधारित थी। यह महल सिर्फ दो वर्षों में बनकर तैयार हुआ और इसके निर्माण में मात्र 16,110 रुपये की लागत आई, जो उस समय एक बड़ी राशि मानी जाती थी।

22 जनवरी 1732, दिन शनिवार, को विधिवत हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार गृहप्रवेश किया गया। यही शुभ संयोग महल के नामकरण का कारण भी बना– और इस प्रकार इसे नाम मिला "शनिवार वाड़ा" (Shaniwar Wada)।

मस्तानी और शनिवार वाड़ा

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

सन 1728 में बाजीराव ने बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल बुंदेला की बेटी मस्तानी (Mastani) से विवाह किया। यद्यपि यह विवाह प्रेम और सम्मान का प्रतीक था, लेकिन बाजीराव के परिवार और पुणे के रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज ने इसे कभी भी पूर्णतः स्वीकार नहीं किया।

मस्तानी जब शनिवार वाड़ा में रहने आईं, तो उनके लिए महल के एक किनारे पर अलग कक्ष बनाए गए, जिसे "मस्तानी महल" कहा जाता था। मस्तानी के प्रवेश के लिए जो विशेष द्वार उपयोग में लाया जाता था, वह आज भी "मस्तानी दरवाज़ा" के नाम से प्रसिद्ध है और इतिहास की साक्षी बनकर खड़ा है।

महल के अंदरूनी वातावरण में फैली साजिशों और विरोध के कारण बाजीराव ने मस्तानी के लिए वाड़े से कुछ दूरी पर स्थित कोठरुड़ क्षेत्र में एक अलग निवास स्थान बनवाया। मस्तानी ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक वहीं निवास किया और 1740 में उनका निधन हुआ।

नाना साहेब पेशवा और शनिवार वाड़ा का उत्कर्ष काल

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

1740 में बाजीराव प्रथम के निधन के बाद उनके पुत्र बालाजी बाजीराव (Balaji Baji Rao), जिन्हें इतिहास में "नाना साहेब" (Nana Saheb I) के नाम से जाना जाता है, अगले पेशवा बने। उनके शासनकाल में मराठा साम्राज्य (Maratha Empire) ने असाधारण विस्तार किया– उत्तर में एटक से लेकर दक्षिण में तंजावुर (तंजोर) तक इसकी सीमाएँ फैल गईं।

नाना साहेब के नेतृत्व में पुणे, मराठा साम्राज्य की राजनीतिक राजधानी के साथ-साथ एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र भी बन गया। उन्होंने शनिवार वाड़ा को और अधिक भव्य बनाने के लिए अपने संसाधनों और ज्ञान का भरपूर उपयोग किया।

उनके कार्यकाल में महल में कई सुंदर निर्माण किए गए, जिनसे इसकी स्थापत्य कला और वैभव में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। दस्तावेज़ों के अनुसार उस समय शनिवार वाड़ा परिसर में दस प्रमुख महल और पाँच गेस्ट हाउस थे। पेशवा परिवार के लगभग बीस सदस्य उस समय वाड़े में निवास करते थे।

नाना साहेब के कार्यों ने शनिवार वाड़ा को केवल एक शाही निवास नहीं, बल्कि मराठा संस्कृति, प्रशासन और स्थापत्य का प्रतीक बना दिया।

शनिवार वाड़ा की त्रासदीपूर्ण गाथा: विश्वासराव से नारायणराव तक

शनिवार वाड़ा, जो कभी मराठा वैभव का प्रतीक रहा, धीरे-धीरे शोक और रक्तरंजित घटनाओं का गवाह बनता गया। जनवरी 1761 में इस ऐतिहासिक वाड़े पर दुखों का ऐसा पहाड़ टूटा, जिससे मराठा साम्राज्य भी हिल उठा।

उस वर्ष, पानीपत की तीसरी लड़ाई में नाना साहेब पेशवा के सबसे बड़े पुत्र विश्वासराव और उनके चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ ने अहमदशाह अब्दाली की सेनाओं से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की। इस अपार क्षति से नाना साहेब का ह्रदय टूट गया। पुत्र और पराक्रमी सेनापति के वियोग में डूबे नाना साहेब ने भी कुछ ही महीनों बाद, 23 जून 1761 को इस संसार को अलविदा कह दिया।

उनकी मृत्यु के उपरांत, उनके द्वितीय पुत्र माधवराव पेशवा को सिंहासन पर बैठाया गया। उस समय वे मात्र 16 वर्ष के थे और उन्हें न केवल शासन की कठिनाइयों का, बल्कि अपने ही चाचा रघुनाथराव की लगातार हो रही साज़िशों का भी सामना करना पड़ा।

युवावस्था में ही माधवराव ने अद्भुत परिपक्वता और संगठन क्षमता का प्रदर्शन किया, लेकिन दुर्भाग्यवश वे तपेदिक (टीबी) जैसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो गए और 1772 में उनका भी निधन हो गया।

हत्या और त्रासदी की कालिमा

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

माधवराव की मृत्यु के बाद पेशवा की गद्दी उनके छोटे भाई नारायणराव को सौंपी गई, जो उस समय भी बहुत कम उम्र के थे। लेकिन शनिवार वाड़ा के इतिहास में सबसे भीषण और रक्तरंजित अध्याय जल्द ही लिखा गया।

30 अगस्त 1773, गणेशोत्सव की अनंत चतुर्दशी के पावन दिन, शनिवार वाड़ा का वातावरण अचानक अत्याचार और हत्या से कंपित हो उठा। महल के भीतर, एक सोची-समझी साज़िश के तहत पेशवा नारायणराव की निर्मम हत्या कर दी गई।

यह कांड उस समय घटित हुआ जब महल में गणेशोत्सव की अंतिम रात का उत्सव चल रहा था। महल के गार्ड्स के कमांडर सुमेर सिंह गर्दी ने अपने सशस्त्र साथियों के साथ अंदर प्रवेश किया और पेशवा नारायणराव पर आक्रमण कर दिया।

नारायणराव, जिन्हें अपने चाचा रघुनाथराव से खतरे की आशंका पहले से थी, ने अंतिम क्षणों में मदद की गुहार लगाई। किंवदंती है कि उन्होंने चीखकर कहा – "काका, मला वाचवा!" (चाचा, मुझे बचाइए!), लेकिन यह पुकार व्यर्थ गई।

इस भयावह हत्याकांड के दौरान, केवल नारायणराव ही नहीं, बल्कि महल के दस से अधिक सेवकों की भी निर्दयता से हत्या की गई। पूरा घटनाक्रम लगभग डेढ़ घंटे तक चला और वाड़े का हर कोना रक्त से भीग गया।

जांच-पड़ताल के बाद यह स्पष्ट हुआ कि इस षड्यंत्र के पीछे स्वयं रघुनाथराव का हाथ था। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने गुप्त पत्र में "धरा" (पकड़ो) शब्द को "मारा" (मारो) में बदलवा दिया, जिससे सुमेर सिंह और उसकी टोली ने हत्या कर दी।

यह त्रासदी न केवल एक शासक की क्रूर हत्या थी, बल्कि मराठा साम्राज्य की नींव को भी हिलाने वाली घटना बन गई। शनिवार वाड़ा, जो कभी वैभव, सत्ता और संस्कृति का गढ़ था, अब एक रक्तरंजित षड्यंत्र का स्थायी साक्षी बन चुका था।

शनिवार वाड़ा की विरासत में साया बनकर लौटे भूत और टूटती मराठा चमक

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

जब पेशवा नारायणराव की नृशंस हत्या शनिवार वाड़ा में हुई, उस समय उनकी पत्नी गंगाबाई गर्भवती थीं। इस क्रूरता के बीच एक उम्मीद का दीप जला—कुछ ही सप्ताहों बाद, उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। इस नवजात को ही आगे चलकर सवाई माधवराव के नाम से जाना गया।

नाना फड़नीस के नेतृत्व में मराठा साम्राज्य के मंत्रिपरिषद ने, मात्र चालीस दिन के उस शिशु को ही नए पेशवा के रूप में घोषित कर दिया।

एक और त्रासदी: अज्ञात मृत्यु का रहस्य

हालांकि यह उत्सव अधिक दिन नहीं चला। अक्टूबर 1795 में, शनिवार वाड़ा एक बार फिर त्रासदी की छाया में आ गया। पेशवा सवाई माधवराव की रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि वे वाड़े की तीसरी मंज़िल की बालकनी से नीचे फव्वारे पर गिर पड़े थे। यह मौत दर्दनाक और रहस्य से घिरी हुई थी।

कुछ लोगों ने इसे दुर्घटना बताया, अन्य ने इसे आत्महत्या कहा, तो कईयों का मानना था कि उन्हें धक्का देकर गिराया गया था। यह रहस्य आज तक अनसुलझा है, लेकिन यह निश्चित था कि मराठा साम्राज्य को यह दूसरा बड़ा झटका लग चुका था।

भूत का भय और पेशवाशाही का अंत

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

सवाई माधवराव की मृत्यु के बाद, उनके चाचा रघुनाथराव के पुत्र बाजीराव द्वितीय को सिर्फ़ 18 वर्ष की उम्र में पेशवा घोषित किया गया। कहा जाता है कि बाजीराव द्वितीय पर नारायणराव के भूत का भय मंडराता रहता था। इस डर ने उन्हें इतना आतंकित कर दिया कि उन्होंने शनिवार वाड़ा को स्थायी रूप से छोड़ दिया। इसके स्थान पर उन्होंने पुणे में शुक्रवार वाड़ा, बुधवार वाड़ा, और विश्रामबाग महल जैसे नए भवनों का निर्माण कराया और वहीं रहने लगे।

शनिवार वाड़ा, जो कभी मराठा सत्ता का केंद्र और संस्कृति का गौरव था, अब वीरान और भयभीत गलियों का प्रतीक बन गया। इसके साथ ही, शनिवार वाड़ा के गौरवमय युग का अंत हो गया।

शनिवार वाड़ा महल मराठा साम्राज्य का राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा है। इस महल की रचना और इसकी भव्यता का आभास इसके विभिन्न चौकों, दरबारों और सभागारों से होता है। यहाँ चार प्रमुख दरबार और कई "दीवानख़ाने" (सभागार) थे जिनके नाम ही उनकी शान-ओ-शौकत का संकेत देते हैं:-

गणपती रंग महल– यह आम दरबार था जहाँ प्रमुख राजकीय गतिविधियाँ और गणेश उत्सव आयोजित किए जाते थे।

नचाचा दीवानख़ाना– यह नृत्य सभागार था, जहाँ नृत्य प्रस्तुतियाँ होती थीं।

आर्से महल– शीशों से सुसज्जित सभागार, जो आभिजात्य का प्रतीक था।

जूना आर्से महल– शीशों का पुराना सभागार, पूर्ववर्ती काल की भव्यता का साक्षी।

दादा साहेब आंचा दीवानख़ाना– यह रघुनाथराव पेशवा का व्यक्तिगत दरबार था।

थोरल्या राय आंचा दीवानख़ाना– यह पहले पेशवा (बालाजी विश्वनाथ) के लिए निर्मित सभागार था।

नारायण राव आंचा महल– यह नारायणराव पेशवा के निवास और कार्यस्थल के रूप में कार्यरत था।

हस्ती दांती महल– हाथी दांतों से सुसज्जित यह महल विलासिता और दुर्लभ सौंदर्य का प्रतीक था।

महल के पांच प्रमुख प्रवेश द्वार थे:-

दिल्ली दरवाज़ा– यह मुख्य द्वार उत्तर दिशा में दिल्ली की ओर स्थित था।

गणेश दरवाज़ा– पास स्थित गणेश मंदिर के कारण इसका नाम पड़ा।

मस्तानी दरवाज़ा– मस्तानीबाई के नाम पर समर्पित।

खिड़की दरवाज़ा– एक संकीर्ण खिड़कीनुमा प्रवेश द्वार।

जांबुल दरवाज़ा– निकट खड़े जामुन के पेड़ के कारण यह नाम पड़ा।

शनिवार वाड़ा एक विशाल आवासीय परिसर था। इसमें विभिन्न परिवारों के लिए अलग-अलग कक्ष थे, जबकि कुछ क्षेत्र सामूहिक उपयोग के लिए निर्धारित थे। यहाँ राजकोष, स्टोररूम, रिकॉर्ड कक्ष, पुस्तकालय, जवाहरख़ाना (आभूषण कक्ष), शस्त्रागार और औषधि भंडार जैसी सुविधाएँ मौजूद थीं। लगभग 500 सुरक्षा कर्मी दिन-रात इसकी सुरक्षा में तैनात रहते थे। प्रत्येक विभाग के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त किए गए थे जो पूरे प्रबंधन को संचालित करते रहे। यहीं से शनिवार वाड़ा के गौरवशाली युग का अंत आरंभ हुआ।

Admin 2

Admin 2

Next Story