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UP Politics News: राम हर जगह जीते, राम कहीं नहीं हारे!

UP Me BJP Ki Har Ka Karan: चुनाव रूपी युद्ध आपने लड़ा और उसके परिणाम को राम के साथ जोड़ दिया? ये कैसी समीक्षा, परिभाषा है? यह सर्वथा गलत है। राम अपने जीवन में न तो हारे न जीते।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 20 Jun 2024 1:56 PM GMT
BJP Ram Mandir Agenda in UP Lok Sabha Election 2024
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BJP Ram Mandir Agenda in UP Lok Sabha Election 2024 (Photo- Newstrack)

UP Politics News: वैसे तो राम के जीवन में संघर्ष ही संघर्ष है। युद्ध ही युद्ध है। वह खुद से भी लड़ते हुए नज़र आते हैं। यह किसी भी इंसान के जीवन की भांति है जो सतत संघर्ष से भरा हुआ होता है। हर युद्ध या संघर्ष में हार या जीत होती है। जीवन के युद्ध में ही यही होता है। पर राम ने जितने भी युद्ध लड़े वह कोई सामान्य युद्ध नहीं थे। वह अलग थे। उनमें हार जीत की जगह कुछ नई स्थापना हुई। कहीं मूल्य की, कहीं मानव की, कहीं पुरुष की, कहीं प्रकृति की तो कहीं आदर्शों और मर्यादाओं की।

राम से जोड़ कर एक युद्ध राम की धरती पर 2024 के लोकसभा चुनाव में भी लड़ाया गया। और अब चुनाव के नतीजों को "युद्ध" के नतीजे सरीखा बताया जा रहा है। खुद को हिंदुत्व या सनातनी कहने वाले हों, चाहे इनके विरोधी। दोनों अपने अपने दावे कर रहे हैं कि राम हारे। राम जीते।

चुनाव रूपी युद्ध आपने लड़ा और उसके परिणाम को राम के साथ जोड़ दिया? ये कैसी समीक्षा, परिभाषा है? यह सर्वथा गलत है। राम अपने जीवन में न तो हारे न जीते। इसी तरह 2024 के चुनाव में भी न तो राम हारे न वह जीते। भला चुनाव से राम का क्या लेना देना? राम को इन सबसे अलग ही रखें यही बेहतर रहेगा।

भगवान की नगरी अयोध्या में भाजपा के उम्मीदवार लल्लू सिंह की पराजय को लोग राम युद्ध का आधार बना रहे हैं। पर हक़ीक़त यह है कि वहां अवधेश जीते हैं। वहाँ संविधान बदलने का असत्य कहने वाला दावा हारा। यानी सत्य जीता। असत्य हारा। जो लोग असत्य से राम का रिश्ता जोड़ रहे हैं, उनकी बलिहारी है।

Photo- Social Media

बहरहाल, 2024 के चुनाव नतीजों को बारीकी से देखने में कई चीजें निकल कर आती हैं, खास कर उत्तर प्रदेश में। उत्तर प्रदेश बहुत खास है क्योंकि यहीं की 80 सीटें केंद्र की सत्ता का निर्धारण करती है और इस मर्तबा भी यही हुआ है।

खैर, विश्लेषण के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में भाजपा के वोट पिछले चुनाव की तुलना में तक़रीबन 8.5 फ़ीसदी घट गए। इस बार भाजपा को 41.31 फ़ीसदी वोट मिले जबकि 2019 के चुनाव में 49.98 फ़ीसदी वोट हाथ लगे थे। पिछली बार से सीटें भीं घट कर 33 रह गयीं। 29 सीटें अकेले भाजपा की ही कम हो गयीं।

भाजपा सबसे अधिक वोटों से गौतमबुद्ध नगर में जीती। वहाँ भाजपा उम्मीदवार महेश शर्मा ने 5.59 लाख से अधिक वोटों से इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार को हराया। जीत का अंतर देखें तो हाथरस में 2.47 लाख, मथुरा में तकरीबन तीन लाख, पीलीभीत व कैंसरगंज में क्रमश: 1.64 लाख व 1.48 लाख वोटों से भाजपा जीती। झाँसी, लखनऊ, वाराणसी, गोरखपुर आदि सीटों पर जीत हार का अंतर एक - डेढ़ लाख का रहा।

पर कई जगह जीत का अंतर बहुत कम रहा, इतना कम कि जीत तो हुई लेकिन बेस्वाद रह गई। जैसे कि,भाजपा के अरुण गोविल को मेरठ से सिर्फ 10585 वोटों से विजय हासिल हुई। अलीगढ़ से सतीश गौतम सिर्फ 15647 वोटों से जीते, फ़र्रुख़ाबाद से मुकेश राजपूत 2678 वोटों से, फूलपुर में प्रवीण पटेल 4332 वोटों से और बांसगांव से कमलेश पासवान सिर्फ 3150 वोटों से ही जीत दर्ज करा सके।

ऐसा भी नहीं रहा कि बेस्वाद जीत सिर्फ भाजपा को मिली। इंडियन गठबंधन के हिस्से में भी बेस्वाद जीत का योगदान रहा। इंडिया गठबंधन के धौरहरा से आनंद भदौरिया 4449 वोटों से जीते। हमीरपुर पुर से सपा के अजेंद्र सिंह लोदी भी मात्र 2629 वोट से जीत सके।सलेमपुर से सपा के रामशंकर राजभर 3573 वोट से जीते।

वैसे, इंडिया गठबंधन ने 15 सीटों पर एक लाख से अधिक वोटों से जीत दर्ज कराई। इनमें नगीना, मुरादाबाद, संभल, मैनपुरी, रायबरेली, अमेठी, कन्नौज, कौशांबी, बाराबंकी, अंबेडकरनगर, बस्ती, आज़मगढ़,घोसी, जौनपुर, मऊ और सोनभद्र शामिल हैं।

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टिकट बंटवारे में ही फेल

चुनावी राजनीति में बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले उत्तर प्रदेश में जिस तरह भाजपा ने टिकटों का बँटवारा किया वह हैरतअंगेज और बेहद ख़राब था ही। ज़िलों में पार्टी के कोई पर्यवेक्षक नहीं भेजे गये, क्षेत्रीय अध्यक्ष से पूछा नहीं गया, प्रदेश चुनाव समिति की कोई बैठक तक नहीं हुई। सिर्फ अध्यक्ष से कह दिया गया की पैनल दे दें। संगठन का हाल ये था कि पार्टी अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी इस मलाल में रहे कि उनके रहते जयंत चौधरी से समझौते की ज़रूरत क्या है। संगठन मंत्री उत्तर प्रदेश के बारे में पूरी तरह अनभिज्ञ थे क्योंकि प्रदेश को जानने के लिए जितना समय चाहिए था, वह उन्हें मिल ही नहीं सका।

चुनाव मैदान में 36 ऐसे लोग उतारे गये जो दूसरे दलों से आये हुए थे। ठाकुरों को चुनाव के बीच ही नाराज़ कर दिया गया। खुद योगी आदित्य नाथ भी नाराज़ ठाकुरों को मना नहीं पाये। ब्राह्मण समुदाय राज्य की जातीय राजनीति से ऊब कर उदास बैठ गया, उसे बूथ तक पार्टीवाले नहीं ला पाये। पिछड़ों ने तो अखिलेश यादव की ओर रुख़ किया। मायावती भाजपा की "बी टीम" हैं, ये खुलकर सामने आ गया। ये सब के सब कारक सेल्फ़ गोल करने की गवाही दे रहे थे।

हिट विकेट आउट होने वाले खिलाड़ियों की टीम भी पदक पाने की हक़दार हो जाये तो इसे क्या कहेंगे? भगवत् कृपा ही तो।

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मीडिया ने भी भद्द पिटवाई

पार्टी ने जो किया सो किया, मीडिया ने भी खूब लुटिया डुबोई, अपनी वो हालात कर ली कि लोकतंत्र का तथाकथित चौथा स्तंभ ध्वस्त हो कर मज़ाक का पात्र बन गया, बची खुची विश्वसनीयता भी खो बैठा

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हवाई लंतरानियों की इंतहा सुधीर चौधरी, अर्नब गोस्वामी, रजत शर्मा, अवनीश देवगन,अंजना ओम कश्यप, रुबिका लियाक़त, नाविका कुमार, सुशांत सिन्हा सरीखे "पत्रकारों" ने तो तब कर दी जब वे एग्जिट पोल के नाम पर भाजपा के चार सौ पार का दावा ठोंकते नहीं थक रहे थे।

ये कैसी पत्रकारिता?

इन दिग्गज "पत्रकारों" को जनता की नब्ज का कोई आता पता ही नहीं था, सोशल मीडिया पर जो दुनिया देख रही थी वह इन्हें नजर ही नहीं आ रहा था। इन्हें ये तक नहीं मालूम था कि 16 मार्च 2024 से 30 मई 2024 तक यू ट्यूब पर कांग्रेस की 613 मिलियन और भाजपा की 150 मिलियन उपस्थिति थी। चार गुने का फर्क!

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इंस्टाग्राम पर कांग्रेस की औसत लाइक 1,22,000 और भाजपा की 26,945 रही। एक्स पर कांग्रेस की औसत पसंद 2500 से 3000 जबकि भाजपा की 260 से 300 रही। फ़ेसबुक पर कांग्रेस की पोस्ट को औसतन तकरीबन 1200 -1500 लोगों ने पसंद किया। जबकि भाजपा की पोस्ट्स को सिर्फ 150 से 250 लोगों द्वारा ही पसंद किया गया।

कार्यकर्ता ने खींच लिए हाथ

भाजपा ने ये सब जरूर नोटिस किया होगा लेकिन तब तक तो रेलगाड़ी बहुत आगे निकल चुकी थी, चुनावी सफर के पड़ाव निकलते जा रहे थे। आलम ये हो गया कि बदहवासी में पूरा चुनाव विपक्ष के पिच पर लड़ने की मजबूरी हो गई। कार्यकर्ता निराश था। यह निराशा एक ओर चार सौ पार का दावे के चलते थी, तो दूसरी तरफ़ पाँच साल लगातार इवेंट्स कार्यक्रम देकर के उसे थका दिया गया था। कार्यकर्ता दस साल से उपेक्षा का दंश झेल रहा था। वही नहीं, पूर्व विधायकों व पूर्व अध्यक्षों तक से कोई राय ही नहीं ली गई। उन्हें कोई काम भी नहीं दिया गया। पार्टी के सांसदों, विधायकों, नेताओं को नरेंद्र मोदी व योगी आदित्य नाथ ने श्रीहीन कर रखा था। दस साल से कार्यकर्ताओं को राज्य व केंद्र के इन श्रीहीन नेताओं के संग समय गुज़ारना पड़ा था।कार्यकर्ताओं को यह अहसास ही नहीं हुआ कि यह हमारी सरकार है। सो, कार्यकर्ता उदासीन हो कर हाथ पैर खींच कर बैठ गए।

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पता नहीं इस बार के कौन चाणक्य रणनीतिकार थे कि अपनी चुनावी पिच तैयार ही नहीं कर पाए। उल्टे, विपक्ष की पिच पर खेलने को मजबूर अपनी ही बदौलत हो गए। विपक्ष की पिच ऐसी रही कि बाबा साहब की किताब बदल देने और आरक्षण छीन लेने के उसके आधारहीन प्रचार को भाजपा काउंटर नहीं कर पाई।

जातीय एजेंडा भारी पड़ा

भाजपा नेताओं ने बहुसंख्यक राजनीति को परे धकेलते हुए जातीय राजनीति को एजेंडे में लिया। यह भी भारी पड़ा। इस चुनाव में कुर्मी मतदाता सबसे स्मार्ट निकला। उसने अपनी बिरादरी को वोट दिया। पार्टी नहीं देखी। तभी तो अखिलेश यादव के दस में से आठ कुर्मी प्रत्याशी जीतने में कामयाब रहे।

उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोटों की समझ भी भाजपा हाई कमान की दस साल के बाद भी सही नहीं बन पाई। उसने एक तो ओबीसी की कुछ जातियों को लेकर जातीय राजनीति कर रहे छोटे दलों पर भरोसा कर लिया। उन्हें गठबंधन का साथी बना लिया। उसने विज्ञान के उस सिद्धांत को नज़र अंदाज किया जिसका यह निष्कर्ष है कि जब भी कोई छोटा पिंड, बड़े पिंड के संपर्क में आता है तो बड़े पिंड की उष्मा को अवशोषित कर लेता है। छोटे दलों ने भाजपा से ही शक्ति ली। इन दलों को साथ लेने के बाद भाजपा इन ओबीसी जातियों के अपने नेता तैयार नहीं कर पाई। इन्हें साथ लेते समय भाजपा यह भूल गयी कि पंद्रह बीस सालों से लगातार सियासत कर रहे ये ये दल विधानसभा तक में प्रवेश नहीं कर पाये हैं?

अलग ही है सियासी चौसर

भाजपा हाई कमान उत्तर प्रदेश की ओबीसी के सियासी चौसर को समझने को तैयार नहीं दिखा। मसलन, उत्तर प्रदेश में कुर्मी समाज की पांच बेल्ट हैं। पहली, बाराबंकी से बहराइच। दूसरी वाराणसी से फ़तेहपुर। तीसरी बुंदेलखंड। चौथी बरेली, पालीभीत आदि। पाचंवी, अंबेडकर नगर से श्रावस्ती के बीच। इन पाँचों बेल्ट में कुर्मी समाज के अलग अलग नेता होते रहे हैं। मसलन, बेनी प्रसाद वर्मा की सपा में बड़ी हैसियत थी। पर वह बाराबंकी के बहराइच तक के ही कुर्मियों के ही नेता रहे। इसी तरह निषाद समाज की तीन बेल्ट है।

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एक, गोरखपुर से सुल्तानपुर तक। दूसरी, वाराणसी से सोनभद्र तक। तीसरी बुंदेलखंड तक। फूलन देवी भी तीनों निषाद बेल्ट की लीडर नहीं हो पाईं। पर इस हक़ीक़त को पता नहीं क्यों समझने की ज़रूरत नहीं समझी गई। इसी के साथ जातीय राजनीति करने वाले बड़े चेहरों को छोटे चेहरों से प्रतिस्थापित करने की कोशिश भी रंग नहीं ला पाई। मसलन, लोध समाज के बड़े दिग्गज नेता कल्याण सिंह के बाद बीएल वर्मा के नाम से लोध समाज को साधने की कोशिश हुई। वह भी तब, जब उमा भारती मौंजूद थीं। विनय कटियार, पंकज चौधरी सरीखे कुर्मी समाज के नेता हैं। पर उस अनुप्रिया पटेल को सामने किया गया, जिसके लिए अपना चुनाव जीतना भी मुश्किल काम है।

बहुत कुछ अच्छा भी रहा

वैसे तो कहा जता है केंद्र सरकार के चुनाव का राज्यों से कोई लेना देना नहीं होता है। जब भाजपा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र में ही बड़ी पराजय की शिकार हुई तब राज्य सरकारों के काम काज की विवेचना ज़रूरी हो जाती है। क्योंकि "मोदी सरकार, चार सौ के पार", भाजपा की नहीं मोदी की सरकार, व्यक्ति केंद्रित राजनीति, अति आत्म विश्वास जैसे गुण दोष तो पूरे देश में रहे। फिर भी उड़ीसा में भाजपा ने सरकार बनाई।

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दक्षिण में केरल व तमिलनाडु में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चार राज्यों को छोड़ कर हर जगह बेहतर प्रदर्शन किया। ख़राब प्रदर्शन वाले चार राज्यों की बात की जाये तो महाराष्ट्र में भाजपा उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री नहीं देख पा ही थी। जबकि एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया। हरियाणा में अपनी स्थिति का भाजपा को इलहाम था तभी तो मुख्यमंत्री बदल कर डैमेज कंट्रोल की कोशिश हुई हालाँकि सफल नहीं हो पाई।

यूपी में सब गड़बड़ हो गया

केवल उत्तर प्रदेश ही इकलौता ऐसा राज्य रहा जहां सब कुछ ठीक होने के बाद भाजपा ने काफ़ी कुछ गँवा दिया। हाँ, चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री बदलने की अफ़वाह को छोड़ दिया जाये तो उत्तर प्रदेश में कुछ भी महाराष्ट्र, राजस्थान व हरियाणा सरीखा नहीं रहा। इसलिए उत्तर प्रदेश की समीक्षा अलग से करनी होगी।

  • सरकार ने राज्य कर्मचारियों को बेहद नाराज़ किया। 8 दिसंबर, 2021 को मुख्य सचिव के साथ राज्य कर्मचारियों की बैठक का एक भी एजेंडा लागू नहीं हुआ। इसमें कोविड के दौरान रोके गये सीसीए यानी नगर भत्ता की बहाली की माँग भी थी।
  • चुनाव के बीच में 26 अप्रैल 2024 को पचास साल से ऊपर के कर्मचारियों की छंटनी का आदेश जारी कर बिजली महकमे ने राज्य के सभी कर्मचारियों में खलबली मचा दी। हालाँकि इसे वापस ले लिया गया।
  • तकरीबन 57 लाख युवा जिन पुलिस, समीक्षा अधिकारी व सहायक समीक्षा अधिकारी की भर्ती परीक्षा में बैठे थे। उन परीक्षाओं के पर्चे आउट होने के बाद अधिकारियों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया गया। पुनः तारीख़ का भी ऐलान नहीं किया गया।
  • बाबा का बुलडोज़र लोगों को पक्षपात करता हुआ दिख रहा था।
  • विकास के दावे मुख्यमंत्री ने तो किये। पर उनके मंत्री उसे ज़मीन पर नहीं उतार पाये। मसल, गड्डा मुक्त सड़कों के दावों को ही लें। सरकार में काम काज करना मायावती के कार्यकाल से काफी महँगा रहा।

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बहरहाल, तीसरी बार प्रधानमंत्री बनना आसान नहीं होता है। उम्मीदें बेशुमार होती हैं। मोदी ने तीसरी बार सरकार बनाई है। राम हारते तो तीसरी बार सरकार नहीं बनती। वह भी तब जब कोविड के बाद दुनिया में कोई भी सरकार रिपीट नहीं हुई है। मोदी सरकार रिपीट हुई यह राम की जीत है। अयोध्या की बात को तो सिर्फ़ इस नज़रिये से देखा जाना चाहिए कि मतदाता व्यक्तिगत आस्था और राजनीति व्यवहार के बीच अंतर करना जानता है।

इस चुनाव में सभी के लिए सीखने को बहुत कुछ है। यह बदलती राजनीति की करवट है जो आने वाले चुनावों में और भी गहरे रंग दिखाएगी। मतदाताओं की पीढ़ियां बदल रहीं हैं। जो अस्त्र बीस साल पहले काम आता था वह आगे शायद काम न आये। उम्मीद है इसे सब समझेंगे, यही परिपक्वता की निशानी होगी।

(लेखक पत्रकार हैं ।)

Shashi kant gautam

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