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दरगाह में मनाई होली-ब्रज सा दिखा नजारा, वारिस अली का पैगंबर से रिश्ता
बाराबंकी: मथुरा, ब्रज और काशी की होली के बारे में तो आप जानते ही हैं। लेकिन बाराबंकी में भी होली खास है। सूफी फकीर हाजी वारिस अली शाह की दरगाह में होली की रौनक देखते ही बनी। देशभर से हाजी बाबा के मुरीद देवा शरीफ में होली खेलने पहुंचे।
यहां कब से होली होती है, इसकी सही-सही जानकारी तो किसी के पास नहीं। हाजी वारिस अली शाह का रिश्ता पैगम्बर मोहम्मद साहब के खानदान से माना जाता है।
सफेद रंग की दरगाह के आंगन में हर तरफ रंग उड़ रहे थे, लाल, पीले, हरे, गुलाबी और सूफी फकीक रंगों में रंगे हुए थे। यह सूखे रंगों से होली खेलते हैं।
हिंदू-मुस्लिम एक साथ खेलते हैं होली
दरगाह के चारों तरफ रक्स करते हुए गुलाल उड़ाते हैं। दरगाह पर रहने वाले सूफी फकीर गनी शाह वारसी कहते हैं, "सरकार का फरमान था कि मोहब्बत में हर धर्म एक है। उन्हीं सरकार ने ही यहां होली खेलने की रवायत शुरू की थी। सरकार खुद होली खेलते थे और उनके सैकड़ों मुरीद, जिनके मज़हब अलग थे, जिनकी जुबानें जुदा, वे उनके साथ यहां होली खेलने आते थे।"
हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर कई जायरीन मिले, जो महाराष्ट्र, दिल्ली और देश के कई अन्य जगहों से आए थे। यहां कई किन्नर भी होली खेलने दिल्ली से आए थे। वह बताते हैं कि वह पहले कभी होली नहीं खेलते थे, लेकिन जब से बाबा की मज़ार की होली देखी, हर साल यहां होली खेलने आते हैं।
खूब उड़े गुलाल
सूफियों का दिल इतना बड़ा था कि उसमें सारा जहां समा जाए। होली की एक समृद्ध परंपरा उनके कलमों में मिलती है। बुल्ले शाह लिखते हैं, "होरी खेलूंगी कह-कह बिस्मिल्लाह, बूंद पड़ी इनल्लाह।" इसे तमाम शास्त्रीय गायकों ने गाया है। सूफी शाह नियाज का कलम आबिदा परवीन ने गाया है, जिनकी होली में पैगंबर मोहम्मद साहब के दामाद अली और उनके नातियों हसन और हुसैन का जिक्र है। वह लिखते हैं, "होली होय रही है अहमद जियो के द्वार, हजरात अली का रंग बनो है, हसन-हुसैन खिलद"। और खुसरो अभी भी गाए जाते हैं, "खेलूंगी होली ख्वाजा घर आये" या फिर "तोरा रंग मन भायो मोइउद्दीन।"
दूसरे राज्यों से भी आते हैं सैकड़ों लोग
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