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मानव व्यवहार के मनोविश्लेषण के प्रभाव
Effects of Psychoanalysis of Human Behavior: लोग अपने बचपन में जिन खाद्य या पेय पदार्थों का अनुभव करते हैं, उनके साथ भावनात्मक संबंध बना लेते हैं।
Effects of Psychoanalysis of Human Behavior (Image Credit-Social Media)
Effects of Psychoanalysis of Human Behavior: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, नेस्ले (Nestlé) ने जापान के नये बाज़ार में कॉफी को लोकप्रिय बनाने का लक्ष्य रखा। नेस्ले ने अपने उत्पाद को हर दृष्टि से उत्कृष्ट बनाया — बेहतरीन स्वाद, किफायती दाम और आकर्षक पैकेजिंग — लेकिन इसके बावजूद कॉफी की बिक्री अत्यंत निराशाजनक रही। पारंपरिक मार्केटिंग तरीकों से कोई लाभ नहीं हुआ।
नेस्ले ने विज्ञापन पर और पैसा खर्च करने के बजाय एक साहसिक निर्णय लिया। उन्होंने क्लोताएर रपाए (Clotaire Rapaille) को नियुक्त किया, जो एक फ्रेंच मनोविश्लेषक और विपणन विशेषज्ञ थे। उनका कार्य यह पता लगाना था कि जापानी लोग कॉफी क्यों नहीं पीते।
रपाए के शोध ने एक महत्वपूर्ण सत्य को उजागर किया — लोग अपने बचपन में जिन खाद्य या पेय पदार्थों का अनुभव करते हैं, उनके साथ भावनात्मक संबंध बना लेते हैं। जापान में कॉफी से जुड़ी कोई बचपन की यादें नहीं थीं। वहां की पारंपरिक संस्कृति में चाय और अन्य पेय प्रमुख रहे हैं। कॉफी का कोई ऐतिहासिक या भावनात्मक अस्तित्व नहीं था।
रपाए ने एक अत्यंत नवीन और साहसी सुझाव दिया — कॉफी वयस्कों को न बेचें, बल्कि बच्चों को कॉफी-स्वाद वाली मीठी वस्तुएँ दें। यह रणनीति उस समय की पारंपरिक विपणन सोच के विपरीत थी।
रपाए की सलाह पर चलते हुए नेस्ले ने बाजार में ऐसे उत्पाद पेश किए:
• कॉफी-स्वाद वाली टॉफियाँ
• कॉफी से बने जिलेटिन जैसे डेज़र्ट
• कॉफी युक्त चॉकलेट
• कॉफी की हल्की सुगंध और स्वाद वाले मीठे स्नैक्स
इन सभी उत्पादों का एक ही उद्देश्य था — बच्चों को कॉफी का स्वाद बचपन में ही परिचित कराना। यह एक दीर्घकालिक रणनीति थी, जिसके परिणाम तत्काल नहीं आने वाले थे। 1980 के दशक तक वे बच्चे बड़े हो चुके थे और कार्यबल में प्रवेश कर चुके थे। वे पहले से ही कॉफी के स्वाद से परिचित थे, और अब उन्हें वास्तव में कैफीन की आवश्यकता भी महसूस होने लगी थी। तेज़ जीवनशैली और कार्य का तनाव — इन सबसे निपटने के लिए उन्हें ऊर्जा के लिए कैफीन चाहिए था।
नेस्ले ने जापान में इंस्टेंट कॉफी को फिर से लॉन्च किया — और इस बार उसे ज़बर्दस्त सफलता मिली। 2014 तक जापान में कॉफी की खपत रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच चुकी थी। आज जापान हर वर्ष 5 लाख टन से अधिक कॉफी आयात करता है, और नेस्ले वहाँ का निर्विवाद मार्केट लीडर है।
बचपन के अनुभव संस्कृतिक आदतों और जीवनभर की पसंद को आकार देते हैं। इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम बच्चों को क्या सिखाते हैं — कौन-सी भाषा, कौन-से खाद्य पदार्थ, कौन-से अनुभव — इन सबके प्रति हम अत्यधिक सजग रहें, क्योंकि यही सब अंततः उनकी संस्कृति का निर्माण करते हैं। “जो लोग दूसरों की संस्कृति को प्रभावित करना चाहते हैं, उनके लिए असली रणभूमि बच्चों का मन है!”
क्या आपने महसूस किया है कि हमारे साथ भी ऐसा ही हो चुका है?
उदाहरण के लिए — “केक = उत्सव” यह विचार हमारे मन में इतनी गहराई से बैठ चुका है कि अब हम हर बात पर केक मंगाते हैं — न केवल जन्मदिन पर, बल्कि परीक्षा में सफलता, विवाह, पदोन्नति, सेवानिवृत्ति — हर मौके पर। जबकि सौ साल पहले भारत में 90% लोग केक का नाम तक नहीं जानते थे।
आज जब हम बच्चों को मैकडॉनल्ड्स ले जाते हैं, या पिज़्ज़ा और कोक/पेप्सी मंगाकर किसी बात का जश्न मनाते हैं, तब हम उनके मन में स्थायी बचपन की यादें बना रहे होते हैं… और अनजाने में इन कंपनियों के लिए आजीवन ग्राहक भी बना रहे होते हैं।
आज कई कॉर्पोरेट कंपनियाँ और अन्य पेशेवर भी इन मनोवैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग अपने उपभोक्ताओं या दर्शकों को प्रभावित या भटकाने के लिए कर रहे हैं। तो क्या यह कहना गलत होगा कि — “परंपरागत समाजों की सांस्कृतिक या सामाजिक क्षरण एक उप-उत्पाद है उपभोक्तावाद की इस रणनीति का?” शायद यह सोचने लायक बात है!असल में यह सब एक सरल प्रक्रिया है — conditioning के माध्यम से सीखना। कोई गहरा मनोविश्लेषण नहीं।
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