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पानी को रेंगना ना सिखाएं , भुल जाता है चलना - मीणा
Water Crisis: पानी को दौड़ने ना दें, चलने ना दें, रेंगनें ना दें, आखिर क्यों? पानी का स्वभाव, मिजाज, प्रकृति है। हम चाहें जो कहें, चाहें जो नारा दें, चाहें जो कानून कायदे बनाएं, पानी पानी हैं। प्राकृतिक संसाधन ( नदी, पहाड़, पेड़, वनस्पतियों ) इन सब की अपनी तासीर होती है, इनके स्वभाव को बदलने के लिए बड़े जोस के साथ पिछले दो तीन दशकों से विशेष अभियान चलाया जा रहा, विकास के नाम जंगलों को साफ़ किया जा रहा है, निर्माण व रा मेटेरियल के नाम पहाड़ों को ब्लास्ट कर नष्ट कर रहे हैं
Water Crisis: वर्षा ऋतु और मानसून कि सक्रियता अच्छी वर्षा होने पर बहुत से बांधों, जोहड़ में पानी नहीं पहुंच पाना चिंताजनक, चिंतनीय है। अनेकों नदियों के कंठ आज भी प्यासें हैं, कल भी प्यासें थें, शायद आगे भी प्यासें रह सकते हैं, लेकिन आगे मानसून पर निर्भर करता है कि वह रास्ता भुल चुके जल को चलना सिखाता है या दौड़ना, क्योंकि सब कुछ प्रकृति स्वमं कंट्रोल करतीं हैं, मानव केवल उसके रास्ते में विकास के नाम, खेत का पानी खेत में के नाम, जल संरक्षण के नाम, विधुत उत्पादन आदि आदि नामों से उसे रोक सकता है, रास्ता भटका सकता है, लेकिन हमेशा के लिए कैदी नहीं बना सकता। पानी का अपना स्वाभिमान है, वो क़ैद क्यों होगा ? और हो भी जाए तो कुछेक दिनों, महिनों, सालों के लिए रुक कर चल सकता है, रैंग सकता है, एकत्रित हो सकता है, जिसके भी परिणाम मानव, वनस्पतियों, वन्यजीवों और स्वमं प्रकृति के लिए हानिकर तथा हानि पहुंचाने वाले होते हैं। इसका यह मजार हर उस बड़े बांध से देख सकते हैं, जहां वो बना है, उस नदी से देख सकते हैं, जहां उसे रोका गया, टोका गया या बांधा गया हो। जहां भी ऐसा हुआ उसके अगल बगल उपर नीचे जरुर प्रकृति ने कहर बरपाया, पानी को टोकने का विपरीत प्रभाव पड़ा। पानी को दौड़ने ना दें, चलने ना दें, रेंगनें ना दें, आखिर क्यों? पानी का स्वभाव, मिजाज, प्रकृति है। हम चाहें जो कहें, चाहें जो नारा दें, चाहें जो कानून कायदे बनाएं, पानी पानी हैं।
प्राकृतिक संसाधन ( नदी, पहाड़, पेड़, वनस्पतियों ) इन सब की अपनी तासीर होती है, इनके स्वभाव को बदलने के लिए बड़े जोस के साथ पिछले दो तीन दशकों से विशेष अभियान चलाया जा रहा, विकास के नाम जंगलों को साफ़ किया जा रहा है, निर्माण व रा मेटेरियल के नाम पहाड़ों को ब्लास्ट कर नष्ट कर रहे हैं, भूगर्भीय जल स्तर बढ़ा ने के लिए जल को बांधा जा रहा है, नदियों के रास्ते में कंक्रीट के बांध बना दिया, छोटे नालों को अनदेखी कर मिटा दिया, ऊंची सड़कें बना दिया, शहर बसा दिया, यह सब कार्य हमारे वर्तमान के जल वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, ठेकेदारों, कुछ पानें की लालसा रखने वाले व्यक्तियों की देन है, जिन्हें जल का व्यवहारिक ज्ञान नहीं है, उसके तासीर का पता नहीं है, वहां की भौगोलिक आंतरिक व बाहरी संरचनाओं के बारे में जानकारी नहीं है। एक दौर था जब हमारी संस्कृति, समाज, समाज विज्ञानी जल प्रबंधन की जानकारी देते थे, जल से छेड़छाड़ करने से मना करते थे, नदियों को उनके स्वभाव से बहने देने की बात करते थे। समाज में जल भागीरथ, जल यौद्धाओं की कमी नहीं थी, समाज वैज्ञानिक ही जल विशेषज्ञ होते थे, जो नदियों को बहने देने की बात करते थे, आज स्थिति विपरीत है। इस दोर के जल वैज्ञानिकों, जल यौद्धाओं, जल भागीरथों, जल प्रेमी यों, जल संरक्षकों, जल प्रहरी यों चाहें जो भी, सब बहते जल को रोकने, टोकने, बांधने की बात करते हैं, इसी का परिणाम है कि राजस्थान के दर्जनों बांध पिछले दो दशकों से सूखें रह जातें हैं, 80 प्रतिशत बांधों का पानी मई जून में सुख जाता है, उनका अपना अस्तित्व ख़तरे में होता है, इसके चलते अनेकों बांध, नदियां अतिक्रमण की चपेट में हैं। वेंटीलेटर पर सांसें गिन रहीं हैं। उनके मरने के अंतिम दिन है, यह सब ज्यादातर देन वर्तमान के जल प्रबंधकों की तानाशाह की है, ना की प्रकृति, मौसम, मानसून ।
राजस्थान में अलवर , जयपुर, सीकर, कोटपुतली - बहरोड़, खैरथल - तीजारा की अधिकता नदियां वेंटिलेटर पर है, जयसमंद बांध, छितोली का बांध, बुचारा का बांध, रामगढ़ बांध, रामपुर का बांध जैसे दर्जनों बांध पानी को तरस रहे हैं वहीं रूपारेल नदी अपने स्वभाव को भुल चूंकि है, गुमनाम नदी वेंटीलेटर पर है, गिरिजन नदी को मारने की साज़िश रची जा चुकी हैं, बाण गंगा और साबी अपने अस्तित्व को बचाने में ना कामयाब हैं, सोता नाला गंदगी की मार झेलने लगा है। ऐतिहासिक बांध, ऐतिहासिक नदियां, नालें जो यहां की पारिस्थितिकी सिस्टम को बनाने, वन्य जीवों के संरक्षण, भू गर्भीय जल स्तर को बनाए रखने में अपना योगदान दिया करते थे आज स्वमं अपने को बचाने की गुहार लगा रहे हैं। हमें उन जल भागीरथों की आवश्यकता है, जो गंगा जैसी नदियों को सरंक्षण दिये, उन जल यौद्धाओं की आवश्यकता है, जो पानी को चलना सिखाते, उन जल प्रेमी यों की आवश्यकता है, जो भौगोलिक परिस्थितियों तथा नदियों के महत्व और जनता की आवश्यकता को मध्य नज़र रखते हुए बांधों का निर्माण करते रहे, उस संस्कृति और सभ्यता की आवश्यकता है, जो जल जंगल जमीन को जीवन का आधार बताते रहे, ना कि उन भागीरथो, प्रहरियों, यौद्धाओं की आवश्यकता है, जों जल को बांधने की बात करते हैं, कंरीट के बांध बनाने की बात करते हैं, नदियों को रोकने और जोड़ने की बात करते हैं। अतः हमें नदियां के रास्ते को ख़ाली करना होगा, पानी को उसके स्वभाव से चलने देना होगा, तब ही ऐतिहासिक बांध पानी से लबालब हो सकेंगे, नदियां बच सकेंगे। लेखक के अपने निजी विचार है।
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