Adi Shankaracharya Jayanti 2025: मानवता के संरक्षक जगद्गुरु आदिशंकराचार्य की जयंती पर जानिए क्या है इस दिन का इतिहास और महत्त्व

Adi Shankaracharya Jayanti 2025: आज से लगभग तीन हजार वर्ष पहले वैशाख शुक्ल पंचमी को जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था।

Sanjay Tiwari
Published on: 2 May 2025 2:41 PM IST
Adi Shankaracharya Jayanti 2025
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Adi Shankaracharya Jayanti 2025 (Image Credit-Social Media)

Adi Shankaracharya Jayanti 2025: जगद्गुरु आदि शंकराचार्य अलौकिक प्रतिभा, प्रकाण्ड पाण्डित्य, प्रचण्ड कर्मशीलता के धनी थे। इस धराधाम में आज से लगभग तीन हजार वर्ष पहले वैशाख शुक्ल पंचमी को उनका अवतरण हुआ था। आज उनकी जन्मजयंती सनातन जगत मना रहा है। युधिष्ठिर पंचांग के अनुसार आद्य पुरुष का आविर्भाव ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व हुआ था। यद्यपि आंग्ल इतिहासकारों ने उनके जन्म के समय को लेकर कई भ्रांतियां पैदा कर दी हैं।

मानवता के संरक्षक जगद्गुरु आदिशंकराचार्य

असाधारण प्रतिभा के धनी आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदों के अध्ययन मनन में पारंगतता हासिल कर ली थी। उन्होंने शैशव में ही संकेत दे दिया कि वे सामान्य बालक नहीं है। सात वर्ष के हुए तो वेदों के विद्वान, बारहवें वर्ष में सर्वशास्त्र पारंगत और सोलहवें वर्ष में ब्रह्मसूत्र- भाष्य रच दिया।


विष्णु सहस्र नाम के शांकर भाष्य का श्लोक है:-

श्रुतिस्मृति ममैताज्ञेयस्ते उल्लंध्यवर्तते।

आज्ञाच्छेदी ममद्वेषी मद्भक्तोअ पिन वैष्णव।।

उक्त श्लोक में भगवान् विष्णु की घोषणा है कि श्रुति-स्मृति मेरी आज्ञा है, इनका उल्लंघन करने वाला मेरा द्वेषी है, मेरा भक्त या वैष्णव नहीं। आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व भगवान् परशुराम की कुठार प्राप्त भूमि केरल के ग्राम कालड़ी में जन्मे शिवगुरू दम्पति के पुत्र शंकर को उनके कृत्यों के आधार पर ही श्रद्धालु लोक ने 'शंकरः शंकरः साक्षात्' अर्थात शंकराचार्य तो साक्षात् भगवान शंकर ही है घोषित किया। अवतार घोषित करने का आधार शुक्ल यजुर्वेद घोषित करता है:

'त्रियादूर्ध्व उदैत्पुरूषः वादोअस्येहा भवत् पुनः।

अर्थात् भक्तों के विश्वास को सुद्दढ़ करने हेतु भगवान अपने चतुर्थांशं से अवतार ग्रहण कर लेते हैं। अवतार कथा रसामृत से जन-जन की आस्तिकता को शाश्वत आधार प्राप्त होता है।


आद्य जगद्गुरु भगवान शंकराचार्य ने शैशव में ही संकेत दे दिया कि वे सामान्य बालक नहीं है। सात वर्ष के हुए तो वेदों के विद्वान, बारहवें वर्ष में सर्वशास्त्र पारंगत और सोलहवें वर्ष में ब्रह्मसूत्र- भाष्य रच दिया। उन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना शिष्यों को पढ़ाते हुए कर दी। लुप्तप्राय सनातन धर्म की पुनर्स्थापना, तीन बार भारत भ्रमण, शास्त्रार्थ दिग्विजय, भारत के चारों कोनों में चार शांकर मठ की स्थापना, चारों कुंभों की व्यवस्था, वेदांत दर्शन के शुद्धाद्वैत संप्रदाय के शाश्वत जागरण के लिए दशनामी नागा संन्यासी अखाड़ों की स्थापना, पंचदेव पूजा प्रतिपादन उन्हीं की देन है।

32 वर्ष में इहलोक का त्याग कर देने वाले किसी भी व्यक्ति से इतने कामों की अपेक्षा स्वप्न में भी संभव नहीं है। अल्पायु में इतने अलौकिक कार्य विचारकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं और स्वीकार करना पड़ता है कि उनकी वाणी और लेखन में साक्षात् सरस्वती विराजती थी। इसीलिए भगवान् शंकराचार्य अपनी अलौकिक प्रतिभा, प्रकाण्ड पाण्डित्य, प्रचण्ड कर्मशीलता, सर्वोत्तम त्याग युक्त अगाध भगवद्भक्ति और योगैश्वर्य से सनातन धर्म की संजीवनी सिद्ध हुए।


उनके जीवन की अलौकिक घटनाओं में उल्लेख्य है: माता से जीवन रक्षार्थ संन्यास की आज्ञा, नर्मदातट पर दीक्षार्थ गोविन्द भगवत्पाद के दर्शन, काशी में चाण्डाल रूप में भगवान् विश्वनाथ के दर्शन तथा विप्ररूप में भगवान् वेद व्यास के दर्शन पूर्णानदी में स्नान करते हुए मगरमच्छ ने पैर पकड़ लिए। इकलौते पुत्र के मृत्यु मुख में देख माता हाहाकार करने लगी। शंकरचार्य ने कहा कि आप मुझे संन्यास की आज्ञा दे दो, मगरमच्छ मुझे छोड़ देगा। मगर से मुक्त हो गए। उन्होंने कहा कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं उपस्थित हो जाऊंगा।

केरल से चलकर नर्मदा तट पर उन्हें गुरुचरण के दर्शन हुए। गोविन्द भगवत्पाद से दीक्षा और उपदिष्ट मार्ग से साधना कर थोड़े ही समय में शंकराचार्य योगसिद्ध महात्मा के रूप में गुरुदेव के आदेश से काशी चल दिए। वहाँ उनकी ख्याति के साथ ही लोग उनके शिष्य बनने लगे। प्रथम शिष्य बने सनन्दन (पद्मपादाचार्य) वहीं शंकराचार्य जी को चांडाल रूप में दर्शन देकर भगवान् शंकर ने उन्हें एकात्मवाद का मर्म समझाया और ब्रह्मसूत्र भाष्य लिखने का आदेश दिया।

आद्य शंकराचार्य जी को स्वयं भगवान् वेद व्यास ने दर्शन देकर अद्वैत के प्रचार की आज्ञा दी और उनकी आयु 16 वर्ष बढ़ा दी। उन्होंने नेपाल पहुंचकर वहां के लोगों में प्रचलित सत्तर संप्रदायों का समन्वय किया। भारत में शाक्त, गाणप्त्य, कापालिकों के अत्याचार को नष्ट कर प्रतिद्वन्दी मतों को सनातन धर्म में मिला लिया या वे भारत-भू से पलायनकर गए।


भगवान् शंकराचार्य धर्म युद्ध की भूमि कुरुक्षैत्र होते हुए श्रीनगर (कश्मीर) पहुंचे। सिद्धपीठ शारदा देवी में ब्रह्मसूत्र भाष्य प्रमाणित कराया। वहां से बद्रिकाश्रम जाकर भगवान् विष्णु की मूर्तिनारद कुण्ड से निकालकर विधि विधान से प्रतिष्ठा करके दक्षिण के रावल को बद्रीनाथ जी की पूजा अर्चना के लिए नियुक्त किया।

प्रयाग में आचार्य कुमारिल भट्ट प्रायश्चित स्वरूप भूसे की आग में बैठे थे कि शंकराचार्य जी उनके पास पहुंचे। उन्होंने अपने सुयोग्य शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ के लिए माहिष्मती नगरी जाने को कहा। यहां भगवान् शंकराचार्य के शिष्य सुदेश्वराचार्य दक्षिण के शांकर श्रृंगेरी मठ में शंकराचार्य अभिषिक्त हुए।


माता की मृत्यु का समय जान भगवान् शंकराचार्य उनकी अंत्येष्टि के लिए पहुंचे। वहां से लौटकर वे गुजरात में (पश्चिम) शारदा द्वारका मठ स्थापित करके असम जाते हुए गोवर्धन मठ (पूरब) की स्थापना करके कामरूप के तांत्रिकों से शास्त्रार्थ कर असम को तांत्रिक अत्याचारों से बचाकर बद्रीकाश्रम लौटे। यहां ज्योतिर्मठ (उत्तर) स्थापित करके तोटकाचार्य को यहां का उत्तराधिकारी बनाया। शंकराचार्य साक्षात् शंकर के पास केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन को पहुंचे। कुछ दिन वहां रहकर दशनामी नागा संन्यासियों के सात अखाड़ों की स्थापना की ताकि धर्म सनातन को सदा जाग्रत रखें। वे 32वें वर्ष में यहां साक्षात् शंकर से तदाकार हो गए। शास्त्र मंथन के अमृत से सनातन धर्म को अनुप्राणित करके आद्य जगद्गुरु हमारे पूज्य हो गए। सनातन राष्ट्र की एकता-अखंडता और संप्रभुता के लिए समर्पित ऐसे महान विश्व गौरव , मानवता के पथ प्रदर्शक आद्य श्री शंकराचार्य जी के श्री चरणों में कोटि कोटि प्रणाम।

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