मेरी अपनी भाषा - हिन्दी

हिन्दी दिवस पर केवल औपचारिक उत्सव नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा के प्रति सच्चा प्रेम और सम्मान ज़रूरी है।

Shyamali Tripathi
Published on: 13 Sept 2025 4:16 PM IST (Updated on: 13 Sept 2025 4:35 PM IST)
Hindi Diwas
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Hindi Diwas (Image Credit-Social Media)

Hindi Diwas: इधर हिन्दी दिवस मनाने का चलन इतना अधिक बढ़ गया है कि लगता है जैसे कोई उत्सव मनाया जा रहा हो। विद्यालयों में भाषण, काव्य प्रतियोगिताएं इत्यादि होते हैं। अखबारों, पत्रिकाओं में हिंदी दिवस विशेषांक आते हैं। देख के ऐसा लगता है कि वाकई शायद हिंदी भाषा का सुनहरा युग आने को है।

लेकिन देखा जाए तो ये वैसे ही है जैसे हम मदर्स डे और फादर्स डे मनाते हैं। जिसमें सोशल मीडिया पर तरह तरह की भावपूर्ण पोस्ट करते हैं, लेकिन अपने माता पिता को बोझ समझ कर उनका निरादर करते हैं, उनका सम्मान तक नहीं करते। 26 जनवरी, 15 अगस्त को देशभक्ति से ओतप्रोत दिखते हैं, हाथों में झंडा लेकर जयहिंद का नारा बुलंद करते हैं, बाद में वही झंडे सड़कों में, नालियों में उपेक्षित पड़े होते हैं। तो आइए सोचते हैं कि क्या हम वाकई अपनी इस भाषा से प्रेम करते हैं? क्या हम वाकई इसका सम्मान करते हैं?


हिन्दी भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से हुई, जिसका विकास प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के माध्यम से हुआ। यह 1000 ई. के आसपास अपभ्रंश से स्वतंत्र रूप से उभरी और समय के साथ अरबी, फ़ारसी और तुर्की जैसी भाषाओं से शब्द ग्रहण कर समृद्ध हुई। इसका उद्भव किसी विशेष योजना के तहत नहीं हुआ, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों का परिणाम है। बोलचाल की भाषा में स्वाभाविक रूप से होने वाले बदलावों के कारण संस्कृत से प्राकृत, फिर प्राकृत से अपभ्रंश और अंततः अपभ्रंश से आधुनिक हिन्दी का जन्म हुआ। भारत में अरबी, फ़ारसी और तुर्की संस्कृतियों के प्रभाव के कारण हिन्दी में इन भाषाओं के अनेक शब्द, ध्वनियाँ और शब्दावली जुड़ गईं, जिससे यह भाषा अधिक समृद्ध और विविधतापूर्ण बनी। समय के साथ बढ़ती जटिलताओं और सामाजिक परिवर्तनों के कारण लोगों को संचार के लिए एक नई और व्यापक भाषा की आवश्यकता महसूस हुई।

अमीर खुसरो, विद्यापति जैसे कवियों ने अपनी रचनाओं में इस उभरती भाषा का प्रयोग किया, जिससे इसके विकास में तेजी आई। हिन्दी ने अन्य कई भारतीय और विदेशी भाषाओं से भी शब्द उधार लिए हैं, जिससे इसकी शब्दावली का विस्तार हुआ। कुल मिलकर देखा जाए तो हिन्दी के रूप में एक सहज सरल भाषा का ईजाद किया गया जो सर्वग्राह्य हो सके। हिन्दी ने तमाम भाषाओं के शब्दों को ऐसे आत्मसात किया जिसके कारण ये सबके लिए अपनी सी हो गई। भारतेंदु, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, निराला आदि ने इसे विश्व में एक ऐसी पहचान दिलाई कि सारी दुनिया इसे सम्मान की दृष्टि से देखने लगी। जितने भी बाहरी लोग आते गए खास कर मुग़ल, उनकी भाषा को भी हिंदी के शब्द समुद्र ने अपने अंक में भरकर स्नेह के साथ अपनाया। किन्तु अंग्रेज़ अपने साथ अपनी भाषा भी लेकर आए जो हिंदी के सम्मुख अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए खड़ी हो गई। हिन्दी ने उसके भी कुछ शब्दों को अपनाने की कोशिश की मगर अंग्रेज़ी अपने गुरूर में हमेशा तनी रही। हम भारतीयों ने अंग्रेज़ी को अपनाने में देर नहीं की और नतीजा ये हुआ कि अंग्रेज़ों से तो भारत 1947 में आज़ाद हो गया मगर अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत से आज़ादी आज तक नहीं मिली और हमने चाही भी नहीं। धीरे धीरे शिक्षा में अंग्रेज़ी ने इस प्रकार अपने पैर पसारे कि हमारी मातृभाषा हिंदी को ही अपदस्थ कर दिया। आज हमारे बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ते हैं, फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते हैं मगर न हिंदी की संख्या पहचानते हैं न हिंदी महीने जानते हैं। मेरा दावा है कि हिंदी पट्टी के आज कल के अधिकतर बच्चे नहीं जानते होंगे कि रविवार या गुरुवार किस दिन को कहते हैं।


हमारे देश के पूर्व या दक्षिण में चले जाएं तो वहां के लोग बाकायदा हिंदी से नफ़रत करते दिखते हैं। वो अपनी क्षेत्रीय भाषा के अलावा अंग्रेज़ी को ही तरजीह देते हैं हिंदी को नहीं। कहने को हम बड़े गर्व से कहते हैं कि भारत विविधताओं में एकता दिखाने वाला देश है लेकिन भाषा के स्तर पर ये कथन खोखला और रीढ़विहीन प्रतीत होता है। सोचने का विषय है कि हमारे देश में हमने अपने देश की किसी भाषा को सर्वजन की भाषा के स्थान नहीं दिया। जिसके कारण बाहर से आई हुई, हमें गुलाम बना कर रखने वालों की अंग्रेज़ी उस स्थान पर स्वतः विराजमान हो गई। और हम पूरी बेशर्मी के साथ अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में हिंदी दिवस मनाते हैं।

चिंतन करने का विषय ये है कि क्या हम वास्तव में देश से, उस देश की भाषाओं से प्रेम करते हैं? यदि हां तो हम उसके उत्थान के लिए क्या कर रहे हैं। हम अपने बच्चों को हिंदी की किताबें तक तो ला कर देते नहीं कि वे पढ़ें और अपनी भाषा को सीखें, उससे प्रेम करें। आज वो समय है जब बच्चे हिंदी में ' कि' और ' की' का अंतर नहीं समझते, मात्रा पाई की गलतियां ऐसी करते हैं कि मन व्यथित हो जाता है हिंदी की इस दुर्दशा को देखकर। हिन्दी की पाठयपुस्तकों में बे सिर पैर की कहानियां कविताएं पढ़कर खिन्नता सी आ जाती है।

मेरा मानना है कि हिंदी दिवस मनाने का दिखावा करने से बेहतर है कि हम अपने बच्चों को स्वयं हिंदी पढ़ाना शुरू करें। उन्हें हिंदी की किताबें दिलवाएं, पढ़कर सुनाएं, हिंदी की खूबसूरती, उसके अलंकारों से उनका परिचय करवाएं। निस्संदेह एक न एक दिन हो सकता है हमें हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता ही महसूस न हो।

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Shweta Srivastava

Shweta Srivastava

Content Writer

मैं श्वेता श्रीवास्तव 15 साल का मीडिया इंडस्ट्री में अनुभव रखतीं हूँ। मैंने अपने करियर की शुरुआत एक रिपोर्टर के तौर पर की थी। पिछले 9 सालों से डिजिटल कंटेंट इंडस्ट्री में कार्यरत हूँ। इस दौरान मैंने मनोरंजन, टूरिज्म और लाइफस्टाइल डेस्क के लिए काम किया है। इसके पहले मैंने aajkikhabar.com और thenewbond.com के लिए भी काम किया है। साथ ही दूरदर्शन लखनऊ में बतौर एंकर भी काम किया है। मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एंड फिल्म प्रोडक्शन में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। न्यूज़ट्रैक में मैं लाइफस्टाइल और टूरिज्म सेक्शेन देख रहीं हूँ।

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