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Kheti Kaise Kare: जानिए कैसे मिट्टी और बीज हैं हमारे अन्नदाता की ताकत, क्या है देसी खेती का विज्ञान और विरासत?

Legacy of Soil and Seeds: मिट्टी और बीज की विरासत” केवल अतीत की बात नहीं है, बल्कि यह भविष्य की टिकाऊ कृषि का आधार है।

Shivani Jawanjal
Published on: 4 Jun 2025 10:32 AM
Science of Traditional Indian Farming Tips Soil and Seeds Importance Kheti Kaise Kare
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Science of Traditional Indian Farming Tips Soil and Seeds Importance Kheti Kaise Kare

Indian Farming Tips: भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है जहाँ सदियों से मिट्टी और बीज की पारंपरिक विरासत ने न केवल अन्न उपजाया है, बल्कि एक संपूर्ण सभ्यता को पोषित किया है। आधुनिक वैज्ञानिक कृषि के आगमन से पहले भारत में देसी बीजों और प्राकृतिक मिट्टी पर आधारित खेती का ही बोलबाला था। इस विरासत में केवल खाद्यान्न उत्पादन की तकनीक ही नहीं थी, बल्कि प्रकृति के साथ सामंजस्य की गहराई से समझ, पारिस्थितिकी का सम्मान और जैव विविधता की रक्षा भी निहित थी। यह लेख "मिट्टी और बीज की विरासत" को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयास है, जिसमें हम देसी कृषि पद्धतियों, उनके वैज्ञानिक पहलुओं और उनके संरक्षण की आवश्यकता पर चर्चा करेंगे।

मिट्टी की जैविक संरचना - जीवन से भरपूर धरती


मिट्टी केवल रेत, गाद और कणों का निर्जीव मिश्रण नहीं है, बल्कि यह एक जटिल और जीवित पारिस्थितिकी तंत्र है। इसमें बैक्टीरिया, फफूंद, केंचुए, कीट और अन्य सूक्ष्म जीवों की लाखों प्रजातियाँ निवास करती हैं, जो इसकी उर्वरता और पोषण क्षमता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन जीवों की सक्रियता से पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्राप्त होते हैं, जिससे उनकी वृद्धि बेहतर होती है। जैविक पदार्थ जैसे सड़े-गले पौधे, पशु अवशेष, गोबर और हरी खाद मिट्टी में मिलकर उसमें जैविक कार्बन और पोषक तत्वों का भंडारण करते हैं। इससे मिट्टी की संरचना और जलधारण क्षमता भी मजबूत होती है।

देसी कृषि पद्धतियों का योगदान

भारत की पारंपरिक कृषि प्रणालियाँ जैसे गोबर की खाद, हरी खाद और फसल चक्र, इन सूक्ष्म जीवों को संरक्षण देती हैं। यह न केवल मिट्टी के जीवन को बनाए रखती हैं, बल्कि लंबे समय तक उसकी उर्वरता और उत्पादकता को स्थिर बनाए रखती हैं। इन पद्धतियों में रसायनों का प्रयोग नगण्य होता है, जिससे मिट्टी का प्राकृतिक संतुलन बना रहता है।

मिट्टी का स्वास्थ्य और पारंपरिक ज्ञान

स्वस्थ मिट्टी न केवल पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करती है, बल्कि उसमें जल को रोकने की क्षमता, जड़ों को पकड़ने की शक्ति और रोगों से लड़ने की क्षमता भी अधिक होती है। पारंपरिक किसान मिट्टी के रंग, गंध और बनावट से ही उसकी गुणवत्ता का आकलन कर लेते थे। यह अनुभवजन्य ज्ञान पीढ़ियों से किसानों के बीच हस्तांतरित होता रहा है, जो वैज्ञानिक परीक्षणों से पहले ही सही दिशा में मार्गदर्शन करता है।

मिट्टी को समझने का वैज्ञानिक तरीका

मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों का अध्ययन मृदा विज्ञान (Soil Science) के अंतर्गत किया जाता है। इस विज्ञान में मिट्टी की जैविक संरचना को विशेष महत्व दिया जाता है क्योंकि यह मिट्टी की उत्पादकता और टिकाऊ कृषि का मूल आधार होती है। आधुनिक कृषि पद्धतियों में भी अब पारंपरिक ज्ञान और वैज्ञानिक शोध को मिलाकर मिट्टी के स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जा रही है, जिससे भावी पीढ़ियों के लिए भी उपजाऊ धरती सुरक्षित रहे।

बीज - जीवन का स्रोत


देसी बीज बनाम संकर बीज - देसी बीज वे बीज हैं जिन्हें किसान पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित करते हैं। ये बीज स्थानीय जलवायु, मिट्टी और कीटों के अनुसार अनुकूलित होते हैं। देसी बीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है, स्वाद बेहतर होता है, और किसान इन्हें अगली फसल के लिए बचा सकते हैं। इनका उत्पादन संकर बीजों के मुकाबले कम हो सकता है, लेकिन गुणवत्ता, पोषण और स्थानीय अनुकूलन में ये आगे रहते हैं।

संकर बीज (हाइब्रिड बीज) वैज्ञानिक अनुसंधान और नियंत्रित परागण से विकसित किए जाते हैं। इनसे अधिक उपज मिलती है, लेकिन किसान को हर साल नए बीज खरीदने पड़ते हैं क्योंकि इनसे अगली पीढ़ी में वही गुण नहीं मिलते। संकर बीजों की खेती में रसायनों और सिंचाई पर निर्भरता अधिक होती है।

बीजों की विविधता

भारत में ऐतिहासिक रूप से चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा, दालें, तिलहन आदि की हजारों देसी किस्में थीं, जो अलग-अलग जलवायु और जरूरतों के अनुसार उपयुक्त थीं। उदाहरण के लिए, चावल की 1 लाख से अधिक देसी किस्में रही हैं। यह बीज विविधता कृषि तंत्र को रोग, सूखा, बाढ़ जैसी आपदाओं से बचाती थी क्योंकि हर किस्म की अपनी अनूठी प्रतिरोधक क्षमता और अनुकूलन शक्ति होती थी।

देसी कृषि का विज्ञान


मिश्रित खेती और फसल चक्र - देसी किसान कभी एक ही फसल पर निर्भर नहीं रहते थे। वे एक साथ कई फसलें उगाते थे जैसे बाजरा के साथ अरहर, या धान के साथ मछली पालन। इससे भूमि की उर्वरता बनी रहती थी और किसान को विविध आय प्राप्त होती थी।

फसल चक्र (Crop Rotation) एक और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तकनीक थी जहाँ एक सीजन में एक विशेष फसल के बाद दूसरी प्रकार की फसल बोई जाती थी। इससे मिट्टी के पोषक तत्वों का संतुलन बना रहता था और कीट व रोग भी नियंत्रित रहते थे।

जैविक खाद और प्राकृतिक कीटनाशक - पारंपरिक किसान गोबर, गोमूत्र, नीम, लहसुन और छाछ जैसे जैविक पदार्थों से खाद और कीटनाशक बनाते थे। इनका प्रयोग न केवल पर्यावरण के अनुकूल था, बल्कि मिट्टी और जल के लिए भी सुरक्षित था। "जीवामृत", "घनजीवामृत" और "अग्नियास्त्र" जैसे देसी फार्मूले आज भी वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हैं।

अनुभव आधारित ज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

भारतीय किसानों का ज्ञान केवल परंपरा पर आधारित नहीं था, बल्कि उनके अनुभवों और पर्यवेक्षण पर आधारित था। वे चंद्रमा की कलाओं, वायुमंडलीय संकेतों, पेड़ों की पत्तियों की चाल आदि से मौसम और कृषि से जुड़े निर्णय लेते थे। यह अनुभवजन्य ज्ञान आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी खरा उतरता है। वैदिक साहित्य, कृषि पराशर, अर्थशास्त्र जैसे प्राचीन ग्रंथों में कृषि संबंधी वैज्ञानिक दृष्टिकोण और व्यावहारिक सलाहें मिलती हैं। सिंधु घाटी और वैदिक काल से ही भारतीय किसान मौसम, मिट्टी, बीज और फसल चक्र की समझ रखते थे, जो आज के वैज्ञानिक सिद्धांतों से मेल खाते हैं।

लोकगीतों और कहावतों में विज्ञान

"आषाढ़ में न गाढ़ो बेल, सावन में कर ले मेल" जैसी कहावतें किसानों के अनुभवों का निचोड़ हैं, जो मौसम और कृषि कार्यों के तालमेल को दर्शाती हैं। ऐसी कहावतें और लोकगीत पारंपरिक कृषि ज्ञान की संचित पूंजी हैं, जिनका वैज्ञानिक आधार है।

घाघ-भड्डरी जैसी लोककथाओं और कहावतों में मौसम, बीज, सिंचाई, फसल चक्र आदि से संबंधित वैज्ञानिक सलाहें मिलती हैं, जिन्हें आज भी किसान व्यवहार में लाते हैं।

आधुनिक कृषि और विरासत का टकराव


हरित क्रांति के दुष्परिणाम - हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका निभाई और विशेष रूप से गेहूं और चावल जैसी फसलों की उपज में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। हालांकि, इस क्रांति के साथ कई गंभीर दुष्परिणाम भी सामने आए, जिन्हें लंबे समय तक नजरअंदाज किया गया। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से मिट्टी की जैविक संरचना प्रभावित हुई और उसकी दीर्घकालिक उर्वरता में गिरावट आई। साथ ही, उच्च उत्पादकता वाली किस्मों को अधिक पानी की आवश्यकता होने के कारण सिंचाई और भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ, जिससे कई क्षेत्रों में जल स्तर चिंताजनक रूप से गिर गया। पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी यह क्रांति संतुलन तोड़ने वाली साबित हुई - रसायनों के उपयोग ने जल और मिट्टी को विषैला बना दिया, जिससे जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसके अलावा, किसानों की पारंपरिक बीजों और जैविक खादों पर निर्भरता घट गई और वे महंगे बाजार आधारित इनपुट्स के प्रति आश्रित हो गए, जिससे उनकी आत्मनिर्भरता कमजोर हुई और आर्थिक बोझ बढ़ा।

बीज कंपनियों पर बढ़ती निर्भरता

हरित क्रांति के पश्चात किसानों ने अधिक उत्पादन के उद्देश्य से उच्च उपज देने वाले संकर बीजों (HYV और Hybrid Seeds) का उपयोग करना शुरू किया, लेकिन यह बदलाव उनके पारंपरिक बीज संग्रहण और आत्मनिर्भरता की परंपरा के लिए घातक साबित हुआ। इन संकर बीजों की यह विशेषता रही कि वे पुनः उपयोग योग्य नहीं होते, जिससे किसानों को हर वर्ष कंपनियों से नए बीज खरीदने के लिए विवश होना पड़ा। देसी और पारंपरिक बीजों की जगह अब पेटेंटेड और बाज़ार आधारित बीजों का चलन बढ़ गया, जिनके साथ रासायनिक खाद और कीटनाशकों की खरीद भी अनिवार्य हो गई। इस पूरी प्रक्रिया ने न केवल किसानों की आर्थिक लागत को बढ़ाया, बल्कि उन्हें कंपनियों पर निर्भर भी बना दिया, जिससे उनका पारंपरिक ज्ञान, बीज संरक्षण की संस्कृति और आत्मनिर्भरता कमजोर होती चली गई।

विरासत का पुनर्जागरण - आशा की किरणें

बीज संरक्षण आंदोलन - देशभर में कई किसान और संगठन देसी बीजों को संरक्षित करने में जुटे हैं। 'Navdanya' (डॉ. वंदना शिवा द्वारा स्थापित), 'कृषि जैव विविधता मिशन', 'बीज यात्रा' जैसे आंदोलन किसानों को बीज स्वराज की ओर ले जा रहे हैं।

कृषि विज्ञान केंद्रों की भूमिका - अब कई कृषि विज्ञान केंद्र पारंपरिक पद्धतियों की वैज्ञानिक पुनरावलोकन कर रहे हैं और उन्हें नई पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं।

नीति निर्माताओं की पहल - सरकार भी अब "जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग" (ZBNF) जैसे मॉडल को बढ़ावा दे रही है, जो किसानों को रसायन रहित, देसी विधियों पर आधारित खेती की ओर प्रेरित करता है।

मिट्टी और बीज - सिर्फ संसाधन नहीं, संस्कृति हैं


भारतीय कृषि केवल अन्न उपजाने का तरीका नहीं, बल्कि जीवन दर्शन है। इसमें कृतज्ञता, प्रकृति का सम्मान, और सहजीवन का भाव समाहित है। बीज और मिट्टी हमारे पूर्वजों की धरोहर हैं जिन्हें संरक्षित करना हमारी जिम्मेदारी है।

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