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रोज़ रावण की पूजा में खलल डालता था ये शरारती वानर, राम से हुई शिकायत तो बना बलराम का शत्रु
रोज़ रावण की पूजा में खलल डालने वाला वानर द्विविद पहले श्रीराम की सेना का हिस्सा था और बाद में बलराम का शत्रु बन गया। जानिए इस शरारती वानर की रहस्यमयी कथा जो रामायण और महाभारत दोनों युगों को जोड़ती है।
Dvivida Vanara story (Image Credit-Social Media)
Dvivida Vanara Story: अनगिनत किस्से और नायकों को समेटे हुए रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में कई ऐसे अद्भुत पात्र हैं जिनका नाम बहुत कम लोग जानते हैं। जिनकी कथाएं उतनी ही रोमांचक और रहस्यमयी हैं। ऐसा ही एक पात्र था वानर द्विविद (या द्वीत) जो पहले श्रीराम की सेना का हिस्सा था, फिर रावण का उपद्रव करने लगा और अंततः महाभारत काल में बलराम से युद्ध करके मारा गया। द्विविद की कहानी न केवल उसकी शक्ति और शौर्य की मिसाल है बल्कि यह भी बताती है कि असंयम और अहंकार कैसे किसी महान योद्धा के पतन का कारण बन जाते हैं।
आइए जानते वाल्मीकि रामायण में दर्ज वीर वानर द्विविद से जुड़े कथानक के बारे में -
महावीर और स्वभाव से अत्यंतउत्पाती वानर था द्विविद
वाल्मीकि रामायण और अन्य पुराणों में वर्णन मिलता है कि द्विविद किष्किन्धा नगरी का निवासी था और राजा सुग्रीव का निकट सहयोगी। उसका भाई मैन्द सुग्रीव का मंत्री था। दोनों भाइयों में असाधारण बल था। कहा जाता है कि प्रत्येक में दस हजार हाथियों के बराबर शक्ति थी।
कपि जाति के ये वानर अत्यंत पराक्रमी माने जाते थे। वे पर्वतों को उठा सकते थे, समुद्र लांघ सकते थे और आकाश में उड़ान भर सकते थे। द्विविद का स्वभाव विद्रोही था। उसे उत्पात मचाना, दुश्मनों को छेड़ना और रात के समय शत्रु शिविरों में प्रवेश कर विघ्न डालना अच्छा लगता था।
सीता की खोज में जब राम ने बनाई थी वानर सेना
जब श्रीराम ने सीता माता की खोज और रावण से युद्ध के लिए वानर सेना का गठन किया, तब सुग्रीव ने अपने श्रेष्ठ योद्धाओं को भेजा। उनमें हनुमान, नल, नील, जामवंत, अंगद, मैन्द और द्विविद प्रमुख थे।
युद्ध के दौरान दिन में श्रीराम और रावण की सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध होता था, लेकिन सूर्यास्त के बाद युद्ध विराम का नियम था। सब योद्धा अपने-अपने शिविरों में लौट जाते थे।
रावण की शिव-पूजा में विघ्न डालता था द्विविद
स्वभाव से उत्पाती वानर द्विविद को सूर्यास्त के बाद युद्ध विराम का नियम पसंद नहीं था। वह रात्रि के समय चोरी-छिपे लंका नगरी में घुस जाता और वहां उत्पात मचाता। कहा जाता है कि रावण हर रात भगवान शिव की आराधना करता था क्योंकि वही उसे शक्ति प्रदान करते थे। द्विविद को शायद यह देखना सहन नहीं हुआ कि रावण जैसे अधर्मी को शिव की कृपा मिले।
इसलिए वह उसकी पूजा के समय अचानक प्रकट होकर शोर मचाता, रावण की मूर्तियों को गिरा देता, दीपक बुझा देता और कई बार पूरे यज्ञ मंडप को तहस-नहस कर देता।
रावण इस उत्पात से बेहद परेशान हो गया। उसने समझा कि श्रीराम की सेना का कोई अनुशासन नहीं है। अंततः उसने श्रीराम को एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा है कि, 'हे राम! दिन में हम युद्ध करते हैं, पर रात युद्धविराम का समय होता है। परंतु तुम्हारा वानर द्विविद हर रात मेरे शिवपूजन में बाधा डालता है। यह युद्ध के नियमों के विरुद्ध है। कृपया उसे रोको।'
जब समझाने के लिए जब श्रीराम ने दिया था द्विविद को बुलावा
द्विविद के उत्पात से जुड़े रावण के शिकायती पत्र को पाकर श्रीराम मुस्कुराए, लेकिन साथ ही वे चिंतन में भी पड़ गए। पत्र पढ़ने के बाद उन्होंने सुग्रीव से कहा, 'जाकर पता करो, वह कौन वानर है जो ऐसी हरकतें कर रहा है।' ध्यान में देखने पर श्रीराम को सब ज्ञात हुआ कि वही उत्पाती वानर द्विविद है। उन्होंने उसे बुलवाया और स्नेहपूर्वक समझाया कि, 'द्विविद, युद्ध का अपना धर्म होता है। रात विश्राम का समय है। शत्रु की आराधना में विघ्न डालना वीरता नहीं कहलाता।' लेकिन द्विविद ने अपनी आदत नहीं छोड़ी। उसने कहा कि वह रावण को चैन से नहीं बैठने देगा। तब श्रीराम ने आदेश दिया कि, 'इस वानर को अब युद्ध से मुक्त करो। इसे किष्किन्धा भेज दो।'
द्विविद का भ्रम और शत्रुता का जन्म
श्रीराम से मिले आदेश के बाद जब द्विविद को शिविर से बाहर किया गया, तो उसके मन में यह भ्रम बैठ गया कि सुग्रीव और हनुमान ने उसकी शिकायत की है।
उसने सोचा कि उसकी वीरता से ईर्ष्या करके ये लोग उसे युद्ध से अलग करवा रहे हैं।
इस गलतफहमी ने उसके भीतर गहरी कटुता भर दी। जिसके उपरांत वह न तो किष्किन्धा लौटा और न ही श्रीराम के पास गया।
बल्कि इसके बाद द्विविद ने अपने एक अलग मार्ग पर चलना शुरू किया। अब वह न रामपक्ष में रहा, न रावणपक्ष में। अब वह अधर्म के मार्ग पर चल निकला था।
रामायण से लेकर महाभारत काल तक जिंदा रहा था द्विविद
द्विविद एक विलक्षण वानर था। जिसकी आयु बहुत लंबी थी। कालांतर में, वह महाभारत काल तक जीवित रहा। कहा जाता है कि वह उस समय के असुर नरकासुर (भौमासुर) का मित्र बन गया था। द्विविद ने असुरों के साथ मिलकर कई बार यदुवंशियों को परेशान किया। वह पौंड्रक वासुदेव यानी नकली कृष्ण का भी सहयोगी था, जिसने स्वयं को भगवान विष्णु घोषित कर दिया था।
द्विविद का बलराम से युद्ध और अंत
अपनी एक बार द्विविद ने द्वारका नगरी के निकट भारी उत्पात मचाया। उसने लोगों के घर जलाए, समुद्र तटों पर आग लगाई और पर्वतों को फेंककर नगरों को नष्ट करने की कोशिश की। भगवान श्रीकृष्ण उस समय किसी अन्य कार्य में व्यस्त थे, इसलिए बलराम ने स्वयं आगे बढ़कर उसे रोकने का निश्चय किया। कहा जाता है कि बलराम ने द्विविद से पहले शांति से कहा कि, 'वानरश्रेष्ठ, तुमने जो वीरता श्रीराम के लिए दिखाई थी, वही यदि आज धर्म की रक्षा में लगाते तो तुम्हारा यश अमर हो जाता। पर तुमने अधर्म का मार्ग चुना है।'
परंतु द्विविद ने व्यंग्य करते हुए कहा कि, 'तुम तो बस कृष्ण की छाया हो, असली वीरता तो मैं दिखाऊंगा।'
यह सुनकर बलराम ने अपना हल (मूसल) उठाया। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। कहा जाता है कि द्विविद ने पर्वत फेंके, पर बलराम ने उन्हें अपने हल से रोक दिया।
अंततः बलराम ने अपने प्रहार से उसे परास्त कर दिया और वहीं उसका वध हुआ। इस प्रकार द्विविद का अंत उसी के अहंकार से हुआ।
वानर द्विविद का अंत यह संदेश देता है कि अत्यधिक शक्ति यदि संयम और मर्यादा से न जुड़ी हो, तो विनाश का कारण बनती है।
श्रीराम ने उसे अनुशासन का पाठ पढ़ाया, पर उसने नहीं माना और वही उसका पतन बन गया।
इन पौराणिक और लोककथाओं में आज भी मौजूद है द्विविद का स्थान
वाल्मीकि रामायण में द्विविद और मैन्द का उल्लेख सुग्रीव के सेनानायकों के रूप में हुआ है। ब्रह्मवैवर्त पुराण और भागवत पुराण में बलराम द्वारा द्विविद वध की कथा मिलती है।
कुछ लोककथाओं में कहा गया है कि द्विविद ने हनुमान से भी मुकाबला करने की कोशिश की थी, पर सफल नहीं हुआ। द्विविद का चरित्र रामायण और महाभारत दोनों युगों को जोड़ता है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि, वानर जाति कितनी प्राचीन और दीर्घायु थी।
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