Entertainment: अभिव्यक्ति के नाम पर फैलती अश्लीलता और मर्यादा का चीरहरण

Entertainment: नारी की मर्यादा को तार-तार करने वाले सीरियल व विज्ञापन आम जन के लिऐ बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है।

Om Prakash Mishra
Published on: 7 May 2025 9:45 PM IST
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Entertainment: मनुष्य के लिए भोजन, वस्त्र, निवास, चिकित्सा व शिक्षा के बाद मनोरंजन की भी जरूरत रहती है। आदिकाल से पुराना पत्थर काल से ही आदमी चाहे समूह नृत्य या स्वयं स्फूर्त वर्गो में मनोरंजन ढूँढ लेते थे। सम्भवतः समूहों में जीवन जीने में पक्षियों के कलरव, कभी-कभी जँगली पशुओं के शिकार के समय व बाद में अपने प्रकार से मनोरंजन हो ही जाता रहा होगा। जब आदमी अपनी मूलभूत आवश्यकता पूरी कर लेता है, तब मनोरंजन की विधि की खोज करता था। कभी नदी, झरनों, तलाबों में स्नान के समय भी मनोरंजन की तलाश करता होगा। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे मनुष्य कृषि कार्य करने लगा, गाँव आदि बसने लगे, तभी से एक आयोजित रूप से सामूहिक भोजन की परम्परा ने नृत्य/संगीत आदि के माध्यम विकसित होते गये। वस्तुतः, समय की शिला पर सब कुछ बदलता ही है।

धीरे-धीरे समाज में छोटे उत्सवों के किसी न किसी प्रकार आरम्भ हुआ। यहीं से आपसी भाईचारा, प्रेम, मैत्री आदि से समाज-व्यवस्था में परिवर्तन होने लगे, इससे मनोरंजन के नये-नये प्रकार प्रारम्भ हुए।

मनोरंजन के विभिन्न साधनों में भाँति-भाँति के तरीके व प्रकार विकसित हुये। अभिव्यक्ति के स्तर पर गुणात्मक परिवर्तन भी साथ-साथ होते गये। मनोरंजन के साधनों की अभिव्यक्ति में ध्वनियों, चित्रों, शब्दों, दृश्यों व संगीत की अभिव्यक्ति ही प्रस्तुतित हुई। गीत व संगीत निश्चित सबसे अग्रणी साधन बने थे। अभिव्यक्ति के अन्य साधनों से पहले ही संगीत व गीत की परम्पराएं चलती रहीं।

मुद्रण, कागजो के प्रयोग ने पुस्तको व पत्रिकाओं का प्रचलन बढ़ाया। हमारे बचपन में चम्पक आदि पत्रिकायें, कार्टून की किताबों से काफी पहले आयी थी।

मुद्रित पुस्तकों व पत्रिकाओं से कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि के द्वारा साहित्य के माध्यम में मनोरंजन की परम्परा अभिव्यक्ति के स्तरीय व मर्यादित स्वरूप में श्रेष्ठ रूप दिखाई पड़ा।

आम शिक्षित घरों में कहानियों के संग्रह, उपन्यास, कविता संग्रह, पत्रिकायें पढ़ी जाती थी। हम लोगों के बचपन से लेकर काफी समय कई दशकों तक स्वस्थ मनोरंजन के लिए पुस्तकों व पत्रिकाओं को पढ़ने की आदत थी। प्रेमचन्द की कहानियाँ व उपन्यास, गुलशन नन्दा के उपन्यास, इब्ने सफी व कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यास आम घरों मे खूब पढ़े जाते थे। अब यह परम्परा बहुत कम या यों कहें लगभग खत्म सी होती जा रही है। स्वस्थ मनोरंजन का प्रमुख माध्यम साहित्य था। अब तो बस मोबाइल या लैपटाप पर एक/दो मिनट की क्लिप देखना ही रह गया है। यह एक बौद्धिक ट्टष्टि से मनोरंजन की गुणवता में बहुत कमी ला रहा है।

मनोरंजन के साधनों में दृश्य/श्रव्य माध्यमों में सबसे पहले नाटक फिर फिल्में आयीं। ज्ञान के साथ-साथ जानकारी भी बढ़ाता है। भारतेन्दु हरिश्चंद की लघु नाटिका “अन्धेर नगरी” का मंचन अद्भुत उदाहरण है। नाटकों का मंचन आज भी होता है, किन्तु देखने वालों की संख्या कम ही रहती है।

फिल्में लम्बे समय से मनोरंजन का माध्यम रही है। पहले ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि, देश प्रेम की फिल्में ज्यादा बनती थी। धार्मिक फिल्मों की संख्या भी पहले ज्यादा बनती थी। कामेडी फिल्में, हॉरर फिल्में भी बनती रही हैं। शुद्ध मनोरंजन को केंद्र में रखकर भी फिल्में बड़ी संख्या में बनती रही है। उनमें भी आम जनता अच्छा मनोरंजन कर पाती थी।

अच्छी फिल्मों की श्रंखला में सत्यकाम, मुगले आजम, उपकार, अनुभव, सारांश, अर्थ, 1942 ए लव स्टोरी आदि के नाम लिए जा सकते है। मनोज कुमार ने देश प्रेम के विषय पर कई फिल्में बनायी थी।

पुस्तकों में कहानियों तथा उपन्यासो में सामाजिक कुरीतियों कि विरूद्ध संघर्ष में आयाम जुड़ते थे तथा सेवासदन और गोदान आदि का उल्लेख करना समीचीन होगा।

अब तो दृश्य/श्रव्य माध्यमों, जिसमें खासकर टी0 वी0 को ही प्रमुख माध्यम माना जाना है। पहले दूरदर्शन पर ‘रामायण‘ व ‘महाभारत‘ जैसे लोकप्रिय सीरियलों का प्रदर्शन हुआ । ‘हम लोग‘ और ‘नीम का पेड़‘ जैसे सीरियल दिखाये जाते थे। अब तो सास-बहू के झगडे़, परिवार के मध्य ही षड़यन्त्रों के आधार पर बनायी गयी कहानियों के सीरियल ज्यादातर दिखाये जाते है। मनोरंजन के नाम पर परिवारों को तोड़ने वाले कथानक के सीरियल और अपराधों की पृष्ठभूमि वाले सीरियल भी बहुतायत हैं।

विभिन्न सीरियलों के बीच में तथा एक ही सीरियल में मध्य बार-बार जो विज्ञापन दिखायें जाते है, उनमें से कई बहुत अश्लील, द्विअर्थी एवं सामाजिक मर्यादा का मात्र उल्लंघन ही नहीं करते हैं, वरन् मर्यादा को तहस-नहस व विध्वंस कर रहे है। कई विज्ञापनों में अश्लीलता तो ऐसी है कि कोई अपनें बाल-बच्चों के साथ देख नहीं सकता है। नारी की मर्यादा को तार-तार करने वाले सीरियल व विज्ञापन आम जन के लिऐ बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है।

हमारे यहाँ की परम्परा है-

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”

यानी जहाँ नारी को सम्मान मिलता है, वह घर-समाज देवत्व के आसपास की होती है। “दुर्गासप्तशती” के ग्यारहवें अध्याय के छठवें श्लोक में समस्त देवता गण आदिशक्ति/(नारीशक्ति की प्रतीक) से कहते है।

“देवी! सम्पूर्ण विद्यायें तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत मे जितनी भी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही प्रतीक हैं। मूर्तियाँ है।” इसका अर्थ यह है कि समस्त नारी जाति में देवी का ही रूप है। हमारे यहॉ तो नवरात्रि में ’कन्यापूजन’ की परम्परा है। जहाँ मातायें और बहनें समाज की रीढ़ है। ये सीरियल व विज्ञापन उस परम्परा को नष्ट करनें में लगे हुये है।

इधर के वर्षों में स्टैण्डअप कामेडियन का एक नया वर्ग सामने आया है, भाेंडे हास्य, द्विअर्थी संवादों, अश्लीलता की पराकाष्ठा तक चले जाते हैं। उनके शो को देखने वाली नई पीढ़ी नष्ट होने की राह पर है। जहाँ एक ओर एक स्टैण्ड अप कामेडियन माता-पिता के बारे में ऐसी भद्दी टिप्पणी, भाेंडे मजाक बोलते हैं तथा शो में बैठे लोग हँसते हैं, उससे समाज के पतन का अन्दाजा लगता है।

कार्यक्रमों में युवक व युवतियाँ मनोरंजन के नाम पर परिवार संस्था को नष्ट कर रहे हैं और संस्कारों को भ्रष्ट कर रहे हैं। ऐसे कार्यक्रम मे उपस्थिति न हो, इसके लिए केवल सरकारें तथा न्यायपालिका ही जिम्मेदार नही है। समाज अपनी जिम्मेदारी से भाग नही सकता । हम अपने परिवार में और विद्यालयों में इस प्रकार के आयोजनों के विरूद्ध युवा वर्ग, बालक और बालिकाओं को सचेत व जागरूक नही कर रहें है और उम्मीद करते हैं कि हमारे बच्चे आदर्श बन जायगें। हो सकता है वे औपचारिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर लें, यह भी संभव है कि वे सरकारी या प्राइवेट नौकरी पा जायें, व्यवसाय में अर्जन करनें लगें, इसमें मुझे बहुत शंका है । इस जन जागरण और विशेषतः युवा वर्ग को जागरूक करने की महती आवश्यकता है। इसे महत्वपूर्ण मानकर अभिभावकों और शिक्षकों को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।

मीडिया और खासकर सोशल मीडिया का रोल, इस दिशा में अभी तक पूरी तरह से गैर जिम्मेदाराना रहा है। प्रिंट मीडिया, फिर भी बहुत संयमित रहा है। अभी हाल में एक अत्यन्त विवादास्पद शो जिसमें माता पिता के लिए अशोभनीय/अपमानजनक शब्दो का उच्चारण किया था, उसे शायद कुछ सौ/हजार लोग देखे हो, सोशल मीडिया ने उसका इतना प्रचार किया कि लाखों/संभवतः करोड़ लोग उसका नाम जान गए होगें। अब तो ऐसे शो में अनगिनत लोग जायेंगें। मीडिया अगर इस बात को न बताता तो अधिसंख्य लोग उसका नाम भी नहीं जानते थे।

मेरा विचार है कि जैसे फिल्मों के प्रदर्शन के पहले सेंसर बोर्ड़ कि अनुमति की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार स्टैण्ड अप कामेडियन आदि के लिए भी नियामक नियमावली, स्क्रीनिग आदि की प्रक्रिया बनायी जानी चाहिए, वह प्रेस कौन्सिंल ऑफ इण्डिया जैसी संस्था बनायी जा सकती है। आखिर अभिव्यक्ति की कुछ तो मर्यादा निर्धारित की ही जानी चाहिए। यह आज के समय की महती आवश्यकता है।

मनोरंजन हेतु, वास्तविकता और सत्य की खोज इतनी कठिन नहीं है, जितनी कुछ दशकों से फिल्मों, दृश्य-श्रव्य माध्यमों में व्यक्त रूप से उसे अधिक मर्यादित और सुंदर तरीके से व्यक्त किया जा सकता है। सच ही कहा गया है,

“सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात,

नहि ब्रूयात सत्यम अप्रियम।”

ये मनोरंजन के लिए बनाये गये सीरियल एवं सोशल मीडिया (खासकर स्टैण्ड अप कामेडियन भी दृश्य- श्रव्य माध्यम को ही अंग है) भी यदि इन मर्यादाओं को मानें या ऐसे नियामक प्रधिकारी उसे सुनिश्चित कर सकें तो अश्लीलता, फूहड़ता आदि से मुक्ति पाई जा सकती है।

यदि आप पशु-पक्षियों से प्रेरणा प्राप्त करना चाहते हो तो देखे कि कोयल भले ही देखने में काली हो और उसमें तथा कौए मे ज्यादा फर्क नही दिखाई पड़ता। परन्तु कोयल की कूक किसे प्रसन्न नही करती। कौए की आवाज किसी को अच्छी नहीें लगती।

दृश्य- श्रव्य माध्यम, सोशल मीडिया, स्टैण्डअप कामेडियन आदि कोयल बनना चाहिए।

उसी बात को अच्छे शब्दो में व्यक्त किया जा सकता है तो फिर अश्लील, अमर्यादित शब्दो व भावों पर पूरी तरह नियंत्रण करने कि आवश्यकता है। इस हेतु समाज व नियामक संस्थाओं को गम्भीरता से विचार करना होगा।

आज के मूल्यहीन मनोरंजन ने परिवार-संस्था, समाज-व्यवस्था की तार-तार करने कि दिशा में जो करना शुरू किया है, उससे माता-पिता व बच्चों के बीच परिवारिक सम्बन्ध भी कमजोर हो रहे है। पश्चिमी सभ्यता ने पहले हमारे समाज मे विश्रखंलन पैदा किया। स्त्री-पुरूष का एक दुसरे का सहयोगी बल्कि शत्रुभाव उत्पन्न करने का कार्य आरभ्भ किया। बच्चों को बोझ के रूप में देखने का स्वभाव विकसित करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है।

हमें अपने मूल संस्कारों, परिवार की संस्था व समाज-व्यवस्था को बचाने की जरूरत है। जब ‘लिव-इन-रिलेशन‘ को मान्यता खासकर समाज में मिलने लगेगी तो दाम्पत्य जीवन का क्या होगा ? जब एक विवाहित पुरूष व दूसरे पुरूष की विवाहिता पत्नी के मध्य विवाहेतर सम्बन्ध अपराध नही रह गये तो समाज को ही जागरूक होना ही होगा। इन बुराइयों मे हमारें भाँति-भाँति के मनोरंजन के उपादान भी जिम्मेदार है। इस बात को समझने व समझाने की आवश्यकता है। यह पूरे समाज के लिए चिंता का विषय है। इस पर पूरे समाज को जुटना होगा कि ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक लगे।

ओम प्रकाश मिश्र

पूर्व रेल अधिकारी एवं

पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र विभाग

इलाहाबाद विश्वविद्यालय,

66, इरवो संगम वाटिका, झलवा प्रयागराज(उ0प्र0)

पिन कोड़-211012

मोबाइल-7376582525

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