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देख मैंने भी मनाई दिवाली: जब संवेदना ने अंधेरे में उजाला किया
गरीबों संग बांटी मिठाई, फुलझड़ियां और संवेदना; दिवाली बनी मानवता का उत्सव
ये गीत अत्यंत संवेदनशील, आत्मचिंतनशील और मानवीय करुणा से भरा हुआ है, जिसमें न केवल सामाजिक यथार्थ झलकता है बल्कि एक सच्चे "मानव धर्म" का दर्शन भी मिलता है।
देख मैंने भी मनाई दिवाली......
जिनका दुःख लिखने की ख़ातिर
मिली न इतिहासों को स्याही,
क़ानूनों को नाखुश करके
मैंने उनके पक्ष में दी गवाही
पदलोभी आलोचक कैसे करता दर्द पुरस्कृत मेरा
मैंने जो कुछ गाया उसमें करुणा थी श्रृंगार नहीं था|
मैंने चाहा नहीं कि कोई
आकर मेरा दर्द बंटाये,
मेरी मगर ढिठाई मैंने
फटी कमीज़ों के गुन गाये,
दोषी है, तो बस इतने की
दोषी है मेरी तरुणाई,
लोग चले जब राजभवन को
मुझको याद कुटी की आई
आज भले कुछ भी कह लो तुम, पर कल विश्व कहेगा सारा
मैं उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नहीं था|
अपनी परंपरागत दिवाली मनाते समय ये पंक्तियां अनायास मन मानस में गूंजने लगीं। भाई धीरज गुप्ता के साथ लइया- मिठाई और फल के पैकेट लेकर शाम को जब निकला तो बड़ा आश्चर्य हुआ, पिछली दिवाली रेलवे स्टेशन के सामने जहां सैकड़ों पैकेट कम पड़ गए थे , वहां एक भी गरीब व वंचित बालक नहीं । धीरज भाई से कहां कि धर्मशाला ओवरब्रिज के नीचे चलें वहां गरीब मित्र मिलेंगे । महानगरों में ओवरब्रिज अमीरों की कारों का रास्ता होता है लेकिन गरीबों के लिए रैन बसेरा होता है, वह बेघरों का छत होता है । वहां भी कोई नहीं मिला, और दो चार जगह हम लोग, दीनदयाल की कृपा से दीन नहीं मिले । मन खुश हुआ कि क्या गरीबी मिट गई , अचानक मन में ख्याल आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि गरीबी मिटी न हो, पुलिस द्वारा छुपाई गई हो क्योंकि यहां सूबेदार साहब यानी माननीय मुख्यमंत्री रहते हैं । थोड़ा शहर के बाहरी इलाके की ओर बढ़े तो एक व्यक्ति पीठ पर कूड़े वाला बोरा लादे डगमगाते कदमों से चला जा रहा था । उसके बगल में कार रोकी गई , मैंने उसके कांधे पर हाथ रखा तो कांधा पीछे ले जाने लगा गोया हम अछूत हों । नाम पूछने पर उसने कंपकंपाते होठों से कोई पाल बताया, मुझे पाल ही समझ में आया ।
नामचीन तो बड़े लोगों के होते हैं, गरीब ज्यादातर बेनाम, बदनाम या गुमनाम होते हैं । लोग कूड़े वाला, सफाई वाला, जूते वाला, ये , वो आदि शब्दों से पुकारते हैं । पाल महोदय को दो पैकेट दिया, धीरज बाबू ने अलग से लड्डू दिए । आधा लड्डू हहुहार बानर की तरह खाया , आधा गिर गया । वो मिट्टी में गिरे आधे लड्डू को बिनने लगा तो मैंने उसे उठाया और गिरे हुए लड्डू को उठाने से मना करने लगा । धीरज ने उसे लड्डू का पूरा डिब्बा दिया । धीरज को पता नहीं कैसे मेरे मन की बातें पता चल जाती है । मेरे कई मित्र पूर्व जन्म के पुण्य के फल हैं तो कई मेरे पापों के फलन भी हैं, धीरज प्रथम श्रेणी वाले हैं । मैंने फिर एक नोट निकाली उसे उसी श्रद्धाभाव से दिया जैसे कभी कभी पूजा में ईश्वर को समर्पित करता हूँ । पाल महोदय कांपने और रोने लगे । भूख और खुशी दोनों में व्यक्ति कांपने लगता है । ऐसा लगा कि पहली किसी ने उनसे सलीके से बात की हो या वे पहली बार लड्डू खा रहे हों ।
वहां से फिर बाहर वाली सड़क पर पहुंचे तो सैकड़ों गरीब अपने परिवार के साथ फुटपाथ पर बसे हुए मिले ।पांच -दस मिनट सभी आस - पास एकत्र हो गए । उनके बच्चों के दिवाली गिफ्ट दिया । फुलझडियां और अनार जलाए । खिलखिलाते बच्चों को देखकर लगा कि ईश्वर खिल कर हंस रहे हैं और मुझसे कह रहे हैं, दीपक मैं तुझसे प्रसन्न हूँ । यह शोहरत और यह यश उन्हीं की तो कृपा है । उन्होंने संवेदना, संसाधन और समय दिया तभी तो हमारे हाथों ऐसे काम होते दिख रहे हैं , दरअसल हम तो ' निमित्त मात्रम् भव" मात्र हैं, कर्ता तो कोई और है । वही मेरे रूप में देता है और वही वंचित बनकर लेने आता है । तुलसी बाबा की एक बात भले हमारे मुख्यमंत्रीजी भूल जाएं , मैं सदैव याद रखने की कोशिश करता हूँ-
सियाराम मय सब जग जानी
करहूं प्रणाम जोर -जुग पानी
मैं याचक भाव से देता हूँ और दाता भाव से याचना करता हूँ। हम तो सर झुका कर आंखे नीची रख यथाशक्ति यथासंभव अपने समय को सार्थक करते हैं । अब्दुर्रहीम के शब्दों में -
देनहार कोउ और है देवत है दिन रैन
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन
काश कोई दिवाली ऐसी भी हो, मैं घर से निकलूं तो कोई मिले ही नहीं जिसे देकर ऐसा पोस्ट लिखने बैठूं। आप चाहे मुझे आत्म प्रशंसक या तस्वीरबाज जो बोलें , लेकिन आग्रह है कि मेरी जैसी दिवाली मनाएं, ताकि किसी की कली रात में उजाला हो ............
रात से जीत नहीं पाता पर तुम्हारा दीपक
रात से लड़ने का ऐलान बहुत करता है
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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