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Motivational Story: शोक प्रकट करें पर उसका दिखावा न करें
Motivational Story: 'दुःख ही जीवन की कथा रही' ऐसा लिखने वाले निराला का कहना था कि जीवन में केवल दुख ही रहा, क्या कहूँ जो आज तक नहीं कहा गया।
Hindi Poet Suryakant Tripathi Nirala (Image Credit-Social Media)
Motivational Story: आज निराला की 'सरोज स्मृति' याद आ रही है। हिंदी साहित्य का पहला लंबा शोक गीत 'सरोज स्मृति'। छायावाद के प्रमुख स्तंभ कवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा अपनी 19 वर्षीय पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु के पश्चात लिखा गया यह गीत एक करुण उद्गार है। इस गीत की विषय वस्तु भले ही नितांत निजी हो पर पढ़ने वाले को यह भावातिरेक में व्यथित कर, शोक संतृप्त और विव्ह्ल कर देती है। गीत की हर पंक्ति में जहां वात्सल्य का ज्वार होता है, वहीं एक आत्मग्लानि भी उपजती है। हर पंक्ति शोक संतृप्त कर जाती-
'धन्ये, मैं पिता निरर्थ था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका।
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनाशुक
रख सका न तुझे अतः दधिमुख।'
'दुःख ही जीवन की कथा रही' ऐसा लिखने वाले निराला का कहना था कि जीवन में केवल दुख ही रहा, क्या कहूँ जो आज तक नहीं कहा गया। 'सरोज स्मृति' उनकी सबसे मार्मिक रचनाओं में से एक है और यह पंक्ति उनके जीवन के अनुभवों का सार है, जो दुख और वेदना से भरा हुआ है।
यह पंक्ति मानव जीवन की उस सार्वभौमिक सच्चाई को भी दर्शाती है कि हर व्यक्ति के जीवन में सुख और दुख दोनों होते हैं। हमें दुखों का सामना करना चाहिए और उनसे सीखना चाहिए।
ऐसी शोकजनित परिस्थितियों में जब अतीत की स्मृतियां भी जुड़ जाती हैं तो शोक झकझोर कर रख देता है मानो। वह तो एक साहित्यकार थे, रचना के माध्यम से उन्होंने अपनी पुत्री के जाने के बाद अपने मन की वेदना को कविता रूप में ढाल कर लिखा और बेटी को श्रद्धांजलि दी। एक साधारण व्यक्ति भी जो कि शोकग्रस्त होता है, वह भी कभी-कभी अपने मनोभावों को लिख देता है। कभी सोशल मीडिया पर, कभी अपने व्हाट्सएप स्टेटस में, तो कभी किसी फोटो के माध्यम से, तो कभी किसी संदेश के माध्यम से। पहले जब इस तरह के शोक प्रसंग होते थे और मोबाइल का दौर नहीं था, तब 12-13 दिनों तक घर में परिजनों का एकत्र होना शोक संतृप्त व्यक्ति को, परिवार को इस दुख से उबरने का साहस देता था। घर-परिवार जनों के साथ रहने के जो सामाजिक नियम और कर्मकांड बनाए गए उनका एक ही अर्थ था, मृतक के इहलोक से परलोक तक जाने के बाद उसके निमित्त आखिरी क्रियाएं भली प्रकार से संपन्न हो जाए और शोकग्रस्त परिवार को अकेला महसूस न हो। अब जबकि हर त्योंहार, खास समारोह, शादी-विवाह, जन्मदिन, मुंडन आदि सब इवेंट संस्कृति में बदलते जा रहे हैं और सोशल मीडिया पर उसकी पोस्टिंग करना एक आवश्यक अंग हो चुका है, ऐसे में मृत्यु शोक भी उसको अपना एक हिस्सा बना चुका है। जब कोई अपने प्रियजन, परिवारजन की मृत्यु के बाद उसकी फोटो स्मृति के तौर पर सोशल मीडिया से साझा करता है तो वह उस फोटो में अपनी यादों को तलाशता है और तलाशता है उसका अर्थ।
कुछ लोग सोशल मीडिया पर अपने प्रियजन से संबंधित बड़ी लंबी पोस्ट लिखकर या कुछ लोग कम शब्दों में भी प्रियजन से अपने जुड़ाव से संबंधित जानकारियां या यादें लिखकर साझा करते हैं क्योंकि आज के इस डिजिटल होते युग में लोग आमने-सामने कम सोशल मीडिया पर ही अधिक मिला करते हैं। कहीं अपनी भावनाएं, अपनी यात्राएं, अपना सुख, अपनी खुशी, अपनी नौकरी, अपनी प्रगति साझा करते हैं तो क्या अपने दुख को वहां साझा करना गलत होता है? यह एक प्रश्न है कि क्या अपने दुख को, अपने मन की तकलीफ को, प्रियजन से जुड़े अपने शोक के दर्द को सोशल मीडिया पर साझा करना चाहिए या नहीं? कुछ का कहना होता है कि क्या ऑनलाइन दुख साझा करने से कम हो जाएगा, बल्कि इस तरह की पोस्ट से उस पर आती प्रतिक्रियाओं से आपका दुख और बढ़ जाएगा क्योंकि कई लोगों को सार्वजनिक रूप से इस तरह शोक व्यक्त करना गलत लगता है। उनका आशय है कि पब्लिक प्लेटफॉर्म पर दुख जाहिर करना और सैड इमोजी के माध्यम से शोक जताना मृतक के प्रति आपकी श्रद्धांजलि नहीं बल्कि उसके साथ आपके संबंधों का दिखावा है। वहीं कुछ लोगों का मानना होता है कि शोक को सार्वजनिक कर देने से शोक कम हो जाता है। फेसबुक या सोशल मीडिया पर शोक व्यक्त करना, मृतक के प्रति अपनी संवेदना भरी पोस्ट या फोटो शेयर करना यह दूसरों तक इस समाचार को पहुंचाने का, अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का, मृतक के साथ अपने जुड़ाव को बनाए रखने और बताने का एक साधन है, बशर्ते इसको वाकई एक शोक व्यक्त करने की भावना से या अपना जुड़ाव प्रकट करने की भावना से लिखा और पोस्ट किया जाए।
एकाकी होती इस दुनिया में लोगों से सोशली जुड़े रहने का सोशल मीडिया अब एकमात्र माध्यम बनता जा रहा है। ऐसे में अगर व्यक्ति अपनी किसी भी तरह की भावनाएं सुख की या दुख की वहां पोस्ट कर रहा है तो उसे सामान्य रूप से लेना चाहिए क्योंकि अगर भावनाओं को दबाया या छिपाया जाता है तो वह ज्वार बन जाती है। शोक को भी सोशल मीडिया पर उसी तरह से स्वीकार किया जाना चाहिए जिस तरह से सुख को। बस दोनों की अतिरेक आती पोस्ट कहीं भी स्वीकार्य करने योग्य नहीं हो पाती। कई लोगों की पोस्ट देखने में आती है कि वह अपने प्रियजन की मृत्यु के पश्चात एक बहुत लंबे समय तक उससे जुड़ी पोस्ट को, अपने शोक को लिखकर लगातार डालते रहते हैं। शायद उन्हें यह महसूस होता है कि उनकी इस पोस्ट के माध्यम से व्यक्त की गई भावनाएं उनके प्रियजन तक पहुंच पा रही हैं। पर वे यह नहीं जानते कि अतिरेक शोक प्रकट करना भी एक तरह का दिखावा करना या अपनी इमेज मैनेजमेंट करने जैसा लगने लगता है। इस तरह से आप सोशल मीडिया पर अपने दोस्तों के बीच अपनी पोस्ट के प्रति एक ऊब पैदा करते हैं। और मृतक के प्रति उनके श्रद्धांजलि को एक चिढ़ में।
दरअसल शोक पोस्ट लिखते समय व्यक्ति अत्यधिक भावुक हो जाता है और वह यह चाहता है कि लोग उसके दुख को, दर्द को समझें, उससे जुड़े और इस तरह की प्रक्रिया उसको लोगों की सांत्वनाओं से जोड़ती है और अपने दुख में वह खुद को अकेला नहीं पाते हैं और यह लोगों की फेसबुक पर प्रतिक्रियायें उनको इस दुख से बाहर आने का संबल दे जाती हैं। और तो और अगर किसी के प्रति आप शोक नहीं दिखाते हैं तो लोग आपके सोशल मीडिया एकाउंट को खंगाल डालते हैं कि लगता है आपको कोई फर्क नहीं पड़ा इसलिए आपने शोक नहीं दिखाया है। कुछ लोग शोक से अपने आप को उबरता हुआ दिखाने के लिए अपनी नई गतिविधियों को बहुत जल्द न केवल अपना भी लेते हैं बल्कि उनको पोस्ट कर यह भी जताते हैं कि वह अब सामान्य होने की ओर बढ़ चुके हैं। हालांकि इसमें भी कोई बुराई नहीं है कि आप जल्दी सामान्य हो जाएं, कम से कम आज के व्यावहारिक युग में तो यह आवश्यक है। पर कभी-कभी शोक पोस्टों की अधिकता शोकाकुल होने वाले को एकदम से उघाड़ देती है। यह ठीक है कि शोकाकुल व्यक्ति के अंदर वियोग उस इकट्ठा हुए पानी की भांति होता है, जिसको जहां भी छिद्र मिले वहां से रिसकर निकलने को आतुर होता है। शोकाकुल को जहां से भी संवेदना मिलना प्रतीत होता है, वहां-वहां पर वह अपने भीतर के इस अवसाद से मुक्ति पाने के लिए उसे बाहर निकालता रहता है। उसमें चाहे प्रिय जन की मृत्यु के बाद का विलाप हो या चाहे सोशल मीडिया पर उसकी पोस्ट। पर जब वह एक दिन रो- धोकर थक जाता है और वह जान जाता है कि शोक की दुनिया में अब कोई उसे सहारा देने वाला नहीं तो वह व्यावहारिक दुनिया में वापस आने लगता है और शोक करना बंद करने लगता है। अंत में अंबर पांडेय की यह पंक्ति-
' जले हुए होंठों या आंखों में जल की तरह व्याप्त होता है शोक। पहले भी था, मृतक के जीवन में आने के दिन की प्रथम रात्रि से उसके अनंत वियोग का शोक जल की तरह भीतर-भीतर रिसने लगता है।'
शोक करिए पर उसका दिखावा मत करिए।
( लेखिका प्रख्यात स्तंभकार हैं।)
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