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Motivation Story in Hindi: हर चाहत पहुंच में नहीं होती
Motivation Story in Hindi: आखिर क्या है कि धीरे-धीरे करके हमारे पहाड़ खाली होते जा रहे हैं और जो नई पीढ़ी है वह उन पहाड़ों में, उन गांव में रहना नहीं चाहती है?
Not every Desire is within Reach (Image Credit-Social Media)
Motivation Story in Hindi: जीवन के हर दौर में कवितायेँ हमें प्रेरित करतीं हैं साथ ही मनोरंजक ढंग से कई तरह की सीख भी देतीं हैं। आज हम आपको ऐसी ही कुछ रोचक और जीवन के उतार चढ़ाव से भरपूर कवितायेँ लेकर आये हैं।
हर चाहत पहुंच में नहीं होती
'ख्वाब है तू, नींद हूं मैं,
दोनों मिले, रात बने,
रोज यही मांगू दुआ,
तेरी मेरी, बात बने, बात बने'
'फटा पोस्टर निकला हीरो' फिल्म का यह गाना आतिफ असलम और चिन्मया श्रीपदा ने गाया है, जिसे इरशाद कामिल ने लिखा है और संगीत प्रीतम ने दिया है। यह गाना यूं तो एक रोमांटिक कपल सॉन्ग है पर यहां इस गाने को युवाओं के लिए प्रयोग किया है। हरेक युवा का स्वप्न होता है कि वह बड़े शहर में जाए, रोजगार करें और खूब पैसा कमाए और जिसको अपने इन ख्वाबों को सच करने का धरातल मिल जाता है उसकी बात बन जाती है। एक कुमांऊनी लघु फिल्म देखी 'घरबार' जिसमें माता-पिता कुमायूं , उत्तराखंड के एक गांव में रहते हैं और उनका बेटा देहली में एक प्राइवेट जॉब करता है। वह जब अपने गांव आता है डेढ़ साल के बाद तो उसे बहुत अच्छा लगता है, अपने गांव की मिट्टी, गांव के बच्चों को देखकर।
उसके माता-पिता उससे शादी के लिए बात करते हैं कि उसे अब शादी कर लेनी चाहिए। वह भी चाहता है कि वह शादी कर ले और जिससे उसके माता-पिता को एक ऐसी बहू मिल जाए जो कि उसकी अनुपस्थिति में उसके माता-पिता को संभाल सके। वह अपनी माता को भी यह विश्वास दिलाता है कि मैं ऐसी ही बहू लेकर आऊंगा जो कि उनकी संभाल कर सके क्योंकि उसने अपनी जिंदगी बहुत काम किया है और अब उसे भी आराम मिलना चाहिए। उसको दो लड़कियों के नंबर दिएं जाते हैं जिसके साथ उसकी कुंडली मिली है। वह एक से फोन पर बात करता है और उस लड़की को कहता है जो कि 12वीं पास थीं और जब उसका फोन गया तब वह अपनी गाय को चारा ही डाल रही थी, कि आपकी और हमारी कुंडली भिड़ गई है अर्थात मिल गई है और आपका जो चिन् आया है यानी जो फोटो आई है वह मुझे पसंद है तो क्या हम एक दूसरे से शादी के बारे में बात कर सकते हैं। तो लड़की कहती है, हां। तब वह उसे कहता है कि तुम्हें मेरे मां-बाप की सेवा करनी होगी, उनके साथ यहीं गांव में रहना होगा। तो वह लड़की कहती है कि मुझे तो घर का काम नहीं आता है, मैंने 12वीं की पढ़ाई करी है और मैं उस लड़के से शादी करूंगी जो मुझे यहां पहाड़ों से दूर शहर में ले जाएगा। तो वह कहता है कि ठीक है मैं अपने मां-बाप को पूछ कर बताता हूं।
इसी तरह से वह दूसरी लड़की को फोन करता है और वही सब बातें कहता है तो दूसरी लड़की कहती है कि मैं अभी अपने बी ए की पढ़ाई पूरी कर रही हूं और मुझे आगे और पढ़ाई करनी है अगर मैं घर का कामकाज करूंगी तो मैं अपनी पढ़ाई में कैसे ध्यान दूंगी और मैं शहर जाना चाहती हूं। तब लड़का उसको भी वही उत्तर देता है और उसके बाद में वह तीसरी लड़की से मिलता है और तीसरी लड़की को भी वही कहता है , तब वह उत्तर देती है कि मुझे आपके माता-पिता के साथ रहने और उनकी सेवा करने में कोई परहेज नहीं है। पर अंत में शादी के 1 महीने बाद जब लड़का वापस देहली जा रहा होता है तब लड़की को भी अपने साथ ले जाता है कि इसको भी वहीं कहीं नौकरी करा दूंगा और माता-पिता फिर अकेले रह जाते हैं अपने आंसुओं को पोंछते हुए।
आखिर क्या है कि धीरे-धीरे करके हमारे पहाड़ खाली होते जा रहे हैं और जो नई पीढ़ी है वह उन पहाड़ों में, उन गांव में रहना नहीं चाहती है? क्योंकि वहां पर बहुत सारी असुविधाएं हैं और जहां शहर के लोग कुछ समय के लिए छुट्टियां बिताने के लिए पहाड़ पर जाते हैं वहीं पहाड़ का युवा धीरे-धीरे करके सरकते हुए शहरी क्षेत्र में आ जा रहा है। छोटे गांव का युवा अल्मोड़ा आकर रहने लगता है, अल्मोड़ा का युवा हल्द्वानी रहता है, हल्द्वानी का युवा दिल्ली जाकर रहने लगता है और इस तरह से एक क्षेत्र विशेष की बोली, संस्कृति, वाणी, लोकगीत सब खत्म होने लगते हैं। यह ठीक है कि वह अपने साथ पहाड़ की कुछ तो निशानियां बड़े शहर में ले गया होगा। लेकिन पहाड़ अब बूढ़े होते जा रहे हैं और बूढ़े होते माता-पिता उन बूढ़े पहाड़ों पर अकेले होते जा रहे हैं, गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं, उसका युवा बाहर निकल जा रहा है। ठीक उसी तरह जैसे राजस्थान के छोटे-छोटे गांवों के युवा बाहर निकल गए हैं और अधिकांश हवेलियां खाली पड़ी हैं। सिर्फ स्मृति चिन्ह के रूप में, या पूर्वजों की ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में ही सिर्फ सुरक्षित हैं, जिसमें उनके परिवार अब वापस शायद कभी भी ना आए उन हवेलियों में रहने के लिए।
अब हमारी लोक भाषाएं, बोली आदि को बोलने और समझने वाले कम होते जा रहें हैं। विडंबना यह है कि वर्तमान पीढ़ी अब अपनी भाषा, अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही है। आज की शिक्षा युवाओं को सिर्फ जीविकोपार्जन की व्यवस्था के लिए पढ़ा रही है,सीखने के लिए या कुछ जानने के लिए नहीं। लोक कथाओं और कहावतों के माध्यम से क्षेत्रीय बोलियां और भाषाएं जीवित रहती हैं पर आज हम उन्हें भी कितना बचा पा रहे हैं। आश्चर्य होता है कि जिस क्षेत्रीयता को बचाने के लिए या जिस भाषा को बचाने के लिए हमारे अलग-अलग राज्यों के राजनेता बड़ी ही ओछी टिप्पणियां कर रहे हैं, ओछी हरकतों पर आमदा है और अपनी राजनीति की गोटियां सेकने के लिए वे भाषा को हथियार बना रहे हैं। पर वे यह जानते ही नहीं है कि जब उनके अपने क्षेत्र का युवा वहां से बाहर निकल कर चला जाएगा तो किसको वे वहां की संस्कृति, वहां का साहित्य, वहां की भाषा सिखाएंगे।
आव्रजन एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें विभिन्न शहरों और प्रदेशों के लोग दूसरे शहरों और प्रदेशों में अपने जीविकोपार्जन के लिए आते-जाते रहते हैं। इसमें इस तरह की टिप्पणियां करना, अभद्र भाषा का प्रयोग कर वह कौन सी संस्कृति को बचा रहे हैं। इसकी जगह अगर वे अपने लोककाव्य , लोक संस्कृति, लोक रिवाजों को सहेजे तो शायद क्षेत्रीयतावाद ज्यादा मजबूत होगा। क्यों वह इस तरह के उपाय नहीं करते हैं कि उनके छोटे क़स्बों, गांवों का युवा निकलकर बड़े शहरों और दूसरे प्रदेशों की ओर न जाए। क्यों नहीं वहां गांव में रोजगार इस तरह का उत्पन्न कर देते हैं कि उनकी स्थानीयता भी बरकरार रहे और स्थानीय श्रम भी इधर से उधर न जाए।
हालांकि यह भारत देश एक है और यहां पर प्रत्येक नागरिक को किसी भी क्षेत्र में रहने और जीविकोपार्जन की पूरी स्वतंत्रता है, होनी भी चाहिए। लेकिन अपनी क्षेत्रीय राजनीति के बल पर, उसके सितारे को चमकाने के लिए, उसकी मिट्टी को मजबूत करने के लिए भाषा की राजनीति की जगह अगर भाषा को सहेजने की बात की जाए तो ज्यादा बेहतर होगा। किसी भी संस्कृति को, किसी भी सभ्यता को इस तरह से सहेज कर नहीं रखा जा सकता। यह युवा पीढ़ी है, एआई का दौर है, तकनीकें हर कम समय में ही बदल जा रही हैं, ऐसे में यह घातक राजनीति न केवल युवाओं को पथ भ्रमित करेंगी बल्कि उद्योग, व्यापार, औद्योगिक संस्थानों और शिक्षा सबको खत्म कर देंगी।
लड़के-लड़कियां खुद ही अपने गांव और अपनी जड़ों को छोड़ जा रहे हैं। उन बूढ़े पहाड़ों को अपने बूढ़े माता-पिता के साथ अकेला कर जा रहे हैं, जिन परिस्थितियों में वे पले-बड़े हैं उन परिस्थितियों में अब वे असहज हैं। पर फिर भी बहुत सारे युवा इस तरह के हैं जो वापस अपनी जड़ों की ओर, अपने गांवों की ओर लौट कर उन्हें सहेज रहें हैं, उन्हें और आगे बढ़ाते हैं, नवाचार से उन्हें सिद्ध करते हैं। पर जरूरी नहीं कि हर इंसान की चाहत उसकी मुट्ठी में हो लेकिन कोशिश करते रहना चाहिए और उस जिद को पूरी करना हमारा हुनर होना चाहिए। हो सकता है एक समय तक हम अपने जीविकोपार्जन के लिए अपनी जड़ों तक नहीं लौट सकें लेकिन उसके बाद एक स्थायित्व आने के बाद जरूर उन जड़ों पर काम करना चाहिए। हो भी सकता है हम पहाड़ों को और उजड़ते जा रहे गांवों को उस तरह न बसा सकें पर प्रयास अवश्य किये जाने चाहिए क्योंकि.....
इराक में दसवीं शताब्दी में एक प्रसिद्ध कवि हुए हैं, तैयब मुतनबी, जिनकी लिखी अमर पंक्तियां हैं -
'इंसान की हर चाहत उसकी पहुंच में नहीं होती
क्योंकि हवा के झोंके जहाज की ख्वाहिशों पर पानी फिर सकते हैं'।हर चाहत पहुंच में नहीं होती
( लेखिका प्रख्यात स्तंभकार हैं।)
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