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Life Motivational Story: मुसाफ़िर हूं यारों........

Life Motivational Story: हर दिन को 'ऐसे जियो, जैसे की आखिरी हो' और खुद को मुसाफिर मानते रहो।

Anshu Sarda Anvi
Published on: 1 July 2025 5:27 PM IST
Life Famous Motivational Story
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Life Famous Motivational Story

"ज़िन्दगी तुझको कहीं पर तो ठहरना होगा।

रस्मे दुनिया को निभाते हुए मरना होगा।

पाँव थक जायें,बदन काँपे या दिल घबराये,

जलते सहरा से तो अब रोज़ गुज़रना होगा।

क्या वही मौजे बला, क्या वही मंझधार का ख़ौफ़,

ग़म के दरियाओं से अब पार उतरना होगा।

छोड़ दूँ कैसे अधूरा मैं कोई काम तिरा,

तेरे ख़ाके में मुझे रंग तो भरना होगा।

लाख हालात तुझे करते हों मजबूर 'सिया',

टूट कर अब कभी तुझको न बिखरना होगा।"

मशहूर गजलकार और प्रिय बड़ी बहन सिया सचदेव द्वारा लिखित यह गजल मुझे बहुत प्रिय है।

आज सुबह-सुबह एक परिचित की मृत्यु का समाचार मिला जो कि पिछली रात हार्ट अटैक से हो गई थी ,दिल सुबह से ही बड़ा द्रवित हो गया। परिचित एक घुमक्कड़ था ,जिसे घुमक्कड़ी का बहुत शौक था। गोवा जाना हो या बाबा बैजनाथ के दर्शन को, अपनी बाइक उठाई और निकल गया‌ दरअसल घुम्मकड़ी होती ही ऐसे ही है। अब वह फिर से निकल गया है एक अनंत, लंबी घुम्मकड़ी पर फिर वापस कभी न आने के लिए। हम सभी भी तो घुमक्कड़ ही हैं और इस जीवन की यात्रा पर आए हैं इस दुनिया में, चलते जा रहे हैं हर रोज जीवन का, साधनों का एक लक्ष्य लेकर। पर कौन जाने कब ,कहां यह यात्रा यू टर्न ले लेगी और चल देगी एक नए, अंतिम सफर पर इसके बारे में हम न सोचते हैं और न ही बात करना चाहते हैं और सच तो यह है कि करनी भी नहीं चाहिए।


पर जीवन का पहला और आखिरी सत्य यही है कि इस अंतिम यात्रा पर कौन, कब ,कहां साथ छोड़कर आगे बढ़ जाएगा कोई नहीं कह सकता। इसलिए हर दिन को 'ऐसे जियो, जैसे की आखिरी हो' और खुद को मुसाफिर मानते रहो। इसलिए हर दिन अपनी जिम्मेदारी को निभाने के साथ कुछ समय अपनी शौक के लिए जरूर रखना चाहिए, नहीं तो एक समय के बाद जब आपके पास बहुत कुछ करने को नहीं होगा तो यह शौक आपको जीने का सरोकार देगा।

आज 8 वर्ष पहले का अपना पहला छपास भी याद आ रहा है। यह नहीं सोचा था कि यह दौड़ कितनी लंबी दौड़नी है और इसे पूरा करना है या नहीं पर दौड़ना शुरू कर दिया। कॉलम लिखने की इस दौड़ में कुछ समय दौड़ने में तकलीफ होना तो अवश्यंभावी था, कुछ तकलीफ होनी ही थी पर वह तकलीफ अब सजा नहीं लगती है कि बल्कि उस तकलीफ या चुनौती कहना ज्यादा उपयुक्त शब्द होगा को पार पाने में अब एक रूहानी शांति महसूस होने लगी थी और असल में यह दौड़ उसके बाद ही शुरू हुई जब इसे दौड़ने का निश्चय कर लिया। तब खुद से एक प्रतिबद्धता की थी जितना दौड़ सकूंगी, दौड़ूंगी अवश्य ही। दरअसल कोई भी दौड़ अपने शुरुआती बिंदु से शुरू नहीं होती है वह शुरू तब होती है जब हम उसे पूरा करने का ठान लेते हैं। रसोई से राब्ता रखने वाला हर व्यक्ति जानता ही होगा कि सब्जियां लाना, मसाले के डब्बे प्लेटफार्म पर सजा लेना और डिश को बनाने के लिए सारी सामग्री को उसमें डाल देना ही डिश बनाना नहीं होता या तैयार हो जाना नहीं होता। दरअसल यह तो उसके पकने की शुरुआत भर होती है। वैसे ही किसी भी विधा में काम करना शुरू कर देना उस विधा का जानकार हो जाना या उस पर अधिकार हो जाना नहीं होता। भले ही आप दूसरों के सामने स्वयं को विनम्र, विनीत, नम्र दिखाएं, पर उस काम का निष्कर्ष तो एक लंबी यात्रा के बाद ही पता चलता है कि हम क्या अभूतपूर्व करने जा रहे हैं। स्वयं को विनम्र दिखाना किसी की आदत का हिस्सा या दिखावे का हिस्सा हो सकता है पर किसी क्षेत्र या विधा में खुद को बनाए रखना उस यात्रा का वह हिस्सा होता है जहां हम हर वक्त मुसाफिर ही रहते हैं, इसी तरह यह लेखन यात्रा भी रही।


बहुत कुछ दिया इसने, बहुत कुछ मिला इससे, बहुत कुछ लिया भी इसने पर जो दिया उसके सामने कभी-कभी क्या लिया यह बहुत तुच्छ हो जाता है। अब जबकि जुम्मा-जुम्मा यह 8 साल का चारों ओर के संसार को उत्सुक और जिज्ञासु भाव वाली अपनी आंखों से देखने वाला लेखन बन चुका है जो कभी-कभी भाषा से खेलता है तो कभी बिना किसी हूक के अपनी बात शांति से कह देता है, कभी-कभी बंधे-बंधाए नियमों से पार जाने का निश्चय कर साहसी हो जाता है तो कभी-कभी घोंगे की तरह अपने ही शैल में वापस मुंह दुबका लेता है। कभी यह विकल्प की तलाश करता है जो कि इसे सूझता भी नहीं है तो कभी उदास हो जाता है कि बेहतर किया जा सकता था पर हो नहीं पाया। कभी जब हार कर थकने लगता है तो मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियां याद कर लेता है कि 'नर हो न निराश करो मन को' । तो कभी यह लेखन लिख बैठता है खुद को एक प्रेम पत्र की तरह जहां भावनाएं बिखरती हैं और बयां कर जाती है सच्चाई दिल की, जो कि हमेशा बहुत कठिन होता है अभिव्यक्त करना।

कभी-कभी यह लेखन बन जाता है सपनों का या कल्पनाओं का वह हिस्सा जो कि लिखने वाला चाहता है पर अपना चाहा पूरा नहीं कर पा रहा है इसलिए लिख रहा है। कभी-कभी यह कॉलम होता है चाहने और न चाहने वाली विचारधाराओं की एक जद्दोजहद का मैदान जहां चाहना एक तरह का सपना होता है और न चाहने वाली चीजें या बातें या घटनाएं यथार्थ और दोनों इसी लेखन में टकराते भी हैं ,मिलते हैं , जिसमें अधिकांशतः जीत यथार्थ की होती है क्योंकि जो दमदार होता है वही जीतता है पर सपना है फिर भी खत्म नहीं होता और फिर इस लेखन के माध्यम से यथार्थ की इस अंधेरी सुरंग में दिये की टिमटिमाती रोशनी के सहारे स्वयं को खड़ा कर चलता है, उबारता है। कलम को भी तो आदत हो चुकी है इस लेखन की और वह है कमबख्त लिखना ही नहीं छोड़ती। हर बार कहती है कि अगली बार नहीं पर फिर खड़ी हो जाती है लिखने को, चाहे कोई साथ दे या न दे। वह भी जानती है कि सूर्य की चमकदार किरणें सुबह पहले जिस तरह अपना आभामंडल लेकर बिखरने को चली आती हैं वैसे ही यह कलम 'हर रात के बाद आएगा सवेरा' की तर्ज पर लिखने को खड़ी हो जाती है। सूर्य इसका साक्षी भी है ,साथी भी है।

पता नहीं कई बार सोचा कि सोच -समझकर इस लेखन को जाए। बड़े-बड़े, भारी-भारी हिंदी के कोश के शब्दों को निकाल कर, ढूंढ कर, सहेज कर उन्हें लिखा जाए जिसका अर्थ ढूंढने के लिए लोगों को हिंदी कोश का सहारा लेना पड़े या गूगल बाबा की मदद, पर हो न पाया क्योंकि जब भी लिखा एक आवेग में लिखा, कुछ तोड़ -मोड़ के भी लिखा, कुछ संघर्ष करके भी लिखा, पर लिखे वही शब्द जिनमें खुद भी सहज रह सकूं और दूसरा भी असहज न हो और न यह कहें कि आपने तो कमाल के चुन चुन कर, ढूंढ- ढूंढ कर खोए हुए शब्दों को लिखा है। लिखे वही शब्द जो आसानी से मुझे मिले, पकड़ में आए और अपना अर्थ दे गए। गूढ़ शब्द खुद को यथार्थ से दूर कर देते हैं ,फंस जाते हैं हलक में। वाही- वाही तो हो जाती है पर सहज नहीं हो पाते इसलिए इस कॉलम में जो रचा वह इसके हिस्से के सपनों ने रचा न कि मुठभेड़ कर किसी और के हिस्से का सपना रचा।

शायद यही सच है कि शब्द ही फिर आवाज बन जाते हैं, जुनून की हद तक जा पहुंचते हैं, बस मन न छूटे। विषय अपर्याप्त नहीं होते हैं बस उसको जीने का ढंग भर समझ आना चाहिए, बाकी बौद्धिक ज्ञान में क्या धारा है। यह कलम और लेखन जीवन के नए अर्थ खोजता रहे , संवाद उद्धृत करता रहे, दुःख और संवेदना की विडंबना को छूता रहे तो शिल्प या रचना प्रक्रिया से समझौता न करें और प्रेम की इस विविधता और इतने सारे राग- रंगों के बीच एक नया संसार बनाता, बसाता रहे जिसमें जीवटता हो , दुःखों का बखान नहीं हो पर सच्चाई की दीवार हो। पीड़ा शामिल हो पर प्रेम भी हो। सार्वजनिक विचारों और संदर्भों को उठाना हो तो आधुनिक और प्रगतिशील सोच भी रखें। जालीदार भाषा में नहीं फंसे (क्योंकि उसके लिखने वाले अचानक बढ़ गए हैं), एहसास हो समय के सच का जो भाव खंडित होता जा रहा है , उसे बचाना है, वैचारिकता हो और पठनीयता भी हो। हमेशा मुसाफिर बना रहे और कहता चले-----' मुसाफिर हूं यारों'........

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं ।)

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