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Dhola -Maru Ki Prem Kahani: कौन थे धोला और मारु और क्या थी इनकी प्रेम कहानी ? जानिए राजस्थान के रेत में बसी प्रेम की इस अनमोल विरासत को!

Dhola -Maru Ki Prem Kahani: ढोला-मारू आज भी लोकविश्वास में अमर प्रेमी माने जाते हैं, जो सच्चे प्रेम की मिसाल बनकर स्वर्ग में वास करते हैं।

Shivani Jawanjal
Published on: 30 Jun 2025 10:42 PM IST
Dhola -Maru Ki Prem Kahani: कौन थे धोला और मारु और क्या थी इनकी प्रेम कहानी ? जानिए राजस्थान के रेत में बसी  प्रेम की इस अनमोल विरासत को!
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Love Story Of Dhola & Maru: जब हम प्रेम की गहराइयों को समझने के लिए भारतीय लोककथाओं के झरोखों में झांकते हैं, तो हमें एक ऐसी अमर प्रेम गाथा दिखाई देती है जो केवल रोमांच और भावना नहीं, बल्कि नारी शक्ति, आत्मबल, और अटूट समर्पण का प्रतीक बन चुकी है। यह कहानी है - धोला-मारू की। राजस्थान(Rajasthan)की रेतीली धरती पर जन्मी यह लोककथा आज भी लोकगीतों की धुन, लोकनाट्यों की भाव-भंगिमा और चित्रकला की रेखाओं में धड़कती है। यह सिर्फ एक प्रेम कहानी नहीं बल्कि संघर्ष, धैर्य और नारी की अदम्य शक्ति का उत्सव है जिसने समय और समाज की सीमाओं को लांघ कर खुद को अमर कर दिया।

आइये जानते है इस अनोखी प्रेम कथा के बारे में !

धोला-मारू कौन थे?


धोला-मारू(Dhola – Maru) की प्रेमगाथा की शुरुआत होती है एक ऐसे बालविवाह से जो उस समय की सामाजिक परंपरा का हिस्सा था। ढोला, नरवर (कुछ कथाओं में मालवा या मारवाड़) के राजा नल का पुत्र था, जिसका वास्तविक नाम साल्हकुमार बताया जाता है। वहीं मारू पूंगल देश की राजकुमारी थी जो वर्तमान में राजस्थान के बीकानेर क्षेत्र में स्थित है और राजा पिंगल की पुत्री थी । जब ढोला मात्र तीन वर्ष के थे और मारू लगभग डेढ़ वर्ष की थी तब दोनों का विवाह संपन्न हुआ था। लेकिन समय के साथ राजनीतिक उलझनों और सामाजिक परिस्थितियों के चलते यह विवाह मात्र एक औपचारिक बंधन बनकर रह गया और दोनों वर्षों तक एक-दूसरे से अलग रहे। यही दूरी आगे चलकर एक अद्भुत प्रेम कथा की नींव बनी जिसमें पुनर्मिलन की इच्छा और प्रेम की ताकत ने समाज की सारी सीमाएं तोड़ दीं।

धोला का दूसरा विवाह और विस्मरण

समय बीतने के साथ जब ढोला अपने राज्य नरवर लौट आया तो उसका पुनर्विवाह मलवणी (या मालवणी) नामक राजकुमारी से कर दिया गया। यह नया संबंध ढोला के अतीत की स्मृतियों पर पर्दा डालने का प्रयास था लेकिन प्रेम की सच्ची भावना समय और दूरी से नहीं मिटती। जब मलवणी को यह पता चला कि ढोला का बचपन में ही मारू नामक राजकुमारी से विवाह हो चुका है तो उसके मन में ईर्ष्या और असुरक्षा की भावना गहराने लगी। इस द्वंद्व और भय के कारण उसने न सिर्फ इस सच्चाई को ढोला से छुपा लिया बल्कि मारू द्वारा वर्षों तक भेजे गए प्रेम संदेशों और दूतों को भी जानबूझकर रोक दिया ताकि ढोला को उसके अतीत की याद न आए और वह मारू से कभी न मिल सके। मारू ने अपने प्रेम की पुकार को कविता, विरह गीतों और संदेशवाहकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया लेकिन उसकी आवाज़ नरवर की राजमहल की दीवारों से टकराकर रह गई। फिर भी लोककथा के अनुसार मारू के हृदय में ढोला की स्मृति कभी धुंधली नहीं हुई वह प्रेम न समय से बंधा था और न ही परिस्थिति से।

संदेश पहुंचाने की चतुर चाल


जब मारू के भेजे गए अनेक संदेश और पत्र भी मलवणी की ईर्ष्या के कारण ढोला तक नहीं पहुँच पाए, तब मारू ने प्रेम की पुकार को एक नई चाल के साथ व्यक्त किया। उसने एक सपेरे या सारंगी वादक को नरवर भेजा जो ढोला के महल के बाहर बैठकर एक विरह गीत गाने लगा "मारू तके बाट, पिया घणी दिनां सूं..."। इस करुण गीत की तान जैसे ही ढोला के कानों तक पहुँची उसका अंतर्मन जाग उठा। वर्षों पुरानी स्मृतियाँ, बचपन का विवाह और मारू की छवि उसके मन में फिर से जीवित हो उठी। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि किसी ने जानबूझकर उससे मारू की खबरें छुपाई थीं। सच्चाई का एहसास होते ही ढोला की आत्मा व्याकुल हो उठी और वह बिना समय गँवाए अपने पहले प्रेम अपनी पत्नी मारू से मिलने के लिए पूंगल की ओर निकल पड़ा। यही वह क्षण था जब प्रेम ने पुनः दिशा पकड़ी और नियति को नया मोड़ मिला।

मारू की अग्निपरीक्षा और प्रेम का समर्पण

जब मलवणी को पता चला कि ढोला पूंगल की ओर मारू से मिलने जा रहा है तो उसके भीतर की ईर्ष्या फिर से जाग उठी और उसने ढोला को रोकने का हरसंभव प्रयास किया। लेकिन ढोला ने शांति से मलवणी से क्षमा मांगी और अपने पहले प्रेम को अपनाने के अपने निर्णय पर अडिग रहा। अंततः प्रेम की सच्चाई के आगे मलवणी का विरोध भी पिघल गया। जब ढोला पूंगल पहुँचा तो वर्षों की प्रतीक्षा में डूबी मारू की आँखों से खुशी के आँसू बह निकले। वर्षों की दूरी, पीड़ा और बाधाओं के बाद आखिरकार दोनों प्रेमी एक-दूजे से मिल पाए। उनके मिलन का यह क्षण राजस्थान की लोकगाथाओं में अमर हो गया। कुछ लोककथाओं में यह भी कहा गया है कि दोनों ने अपने प्रेम को समाज के सामने पुनः स्वीकार किया । कहीं इसे भव्य पुनर्विवाह कहा गया तो कहीं मात्र पुनर्मिलन के रूप में चित्रित किया गया है। किंतु मूल भावना यही है कि ढोला और मारू अंततः एक साथ रहने लगे और उनका प्रेम लोकगीतों में अमर बन गया।

दुष्ट उमर सूमरा का प्रवेश

ढोला-मारू की प्रेमगाथा केवल मिलन की कहानी नहीं बल्कि एक साहसिक संघर्ष और रोमांच से भरी कथा भी है। इस प्रेम में सबसे बड़ा व्यवधान बना सिंध का एक राजा - उमर सूमरा जो मारू की अप्रतिम सुंदरता पर मोहित हो गया था। उसने मारू का अपहरण करने और ढोला से उसे अलग करने का षड्यंत्र रचा। जब ढोला-मारू पुनर्मिलन के बाद साथ निकल पड़े तो उमर सूमरा ने अपने सैनिकों के साथ उनका पीछा किया और उन्हें घेर लिया। इस तनावपूर्ण क्षण में ढोला और मारू एक ऊँट पर सवार होकर थार के रेगिस्तान में भाग निकले। राजस्थान की संस्कृति में ऊँट सिर्फ एक सवारी नहीं बल्कि जीवन और संघर्ष का प्रतीक है। इस लोककथा में ऊँट न सिर्फ भौगोलिक यात्रा का साधन बना बल्कि प्रेम, विश्वास और भाग्य के प्रतीक रूप में भी उभरा। यह स्पष्ट करता है कि ढोला-मारू की कथा केवल प्रेम नहीं बल्कि सामाजिक चुनौती, नारी की स्वतंत्रता और प्रेम की रक्षा के लिए उठाए गए साहसी कदमों की दास्तान है।

ऊंट की उड़ान और अमर प्रेम


ढोला-मारू की प्रेमगाथा का अंतिम चरण न केवल अत्यंत रोमांचक है बल्कि उसमें दिव्यता और प्रतीकात्मकता का भी अद्भुत संगम दिखाई देता है। जब उमर सूमरा ने उन्हें घेर लिया और दोनों की मृत्यु निश्चित जान पड़ी तब मारू ने गहन श्रद्धा और विश्वास के साथ ईश्वर से प्रार्थना की। लोककथाओं के अनुसार उनके सच्चे प्रेम की पुकार सुनकर ईश्वर ने चमत्कार किया और उनके ऊँट को आकाश में उड़ने की शक्ति प्रदान की। इस अद्भुत दृश्य में ढोला और मारू ऊँट पर सवार होकर आकाश की ओर उड़ गए। और आज भी यह माना जाता है कि वे दोनों स्वर्गलोक में अमर प्रेमी के रूप में जीवित हैं। और इस तरह यह उड़ान प्रेम की विजय, विश्वास की ताकत और चमत्कारिक हस्तक्षेप का प्रतीक बन गई। राजस्थान, गुजरात और सिंध की लोकसंस्कृति में यह कथा अत्यंत लोकप्रिय है। लोकगीतों में यह प्रेम स्वर्गलोक तक पहुंच गया है चित्रकलाओं में यह दृश्य अमर बना हुआ है और लोकनाट्यों में यह प्रसंग हर बार दर्शकों को प्रेम की शक्ति का एहसास कराता है।

धोला-मारू की कथा के प्रतीक

ढोला-मारू की प्रेमगाथा केवल एक भावुक कहानी नहीं बल्कि उसमें छिपे गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक और स्त्री-शक्ति के संदेशों के कारण यह कथा आज भी उतनी ही प्रभावशाली है। मारू की वर्षों तक की प्रतीक्षा इस कथा का केंद्रीय स्तंभ है। एक ऐसा प्रेम जो परिस्थितियों, दूरी और छल के बावजूद कभी डगमगाया नहीं। यही समर्पण अंततः उसकी विजय का कारण बना। लेकिन मारू केवल प्रतीक्षा करने वाली स्त्री नहीं थी वह साहसी, बुद्धिमान और रणनीतिक भी थी। सपेरे के माध्यम से संदेश भेजने की उसकी योजना यह सिद्ध करती है कि प्रेम में भी चेतना, सक्रियता और आत्मबल की आवश्यकता होती है। यह कथा नारी के साहस और उसकी निर्णायक भूमिका को रेखांकित करती है। साथ ही यह लोककथा यह भी दर्शाती है कि छल, लालसा और असत्य चाहे जितना भी प्रयास करें, अंत में सत्य, प्रेम और विश्वास की ही जीत होती है।

धोला-मारू - लोकगीतों में जीवित प्रेम

ढोला-मारू की प्रेमगाथा आज भी राजस्थान और आसपास के क्षेत्रों में पूरी जीवंतता के साथ लोकसंस्कृति का हिस्सा बनी हुई है। यह कथा केवल ग्रंथों तक सीमित नहीं रही बल्कि लोकगीतों, लोकनाट्यों, कठपुतली नृत्य और पिंगल काव्य परंपरा के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी जीवंत बनी रही है। ग्रामीण स्त्रियाँ उत्सवों, विवाहों और पारिवारिक समारोहों में "ढोला रे ढोला, माही मारू री याद सतावे...” जैसे भावपूर्ण गीत गाकर न सिर्फ इस प्रेम कथा को जीवित रखती हैं बल्कि उसे अपनी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा भी मानती हैं। “ओढणिया लहराए, थारो नाम धरती पर अमर हो जाए...” जैसी पंक्तियाँ लोकगीतों के माध्यम से प्रेम की अमरता का संदेश देती हैं। यह कथा विशेष रूप से पिंगल शैली और मारवाड़ी लोककथाओं में प्रमुख स्थान रखती है। जहाँ इसे केवल एक प्रेमकथा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक गर्व और लोकजीवन के भावों की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है।

धोला-मारू की प्रेमकहानी का सांस्कृतिक प्रभाव

राजस्थान की लघु चित्रकला परंपरा में ढोला-मारू की प्रेमगाथा को विशेष स्थान प्राप्त है। बीकानेर, जोधपुर और जयपुर स्कूल्स की मिनिएचर पेंटिंग्स में इस कथा के दृश्य बार-बार चित्रित किए गए हैं जो इसकी लोकप्रियता और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाते हैं। इन कलाकृतियों में अक्सर ऊँट पर आकाश की ओर उड़ते ढोला-मारू, विरह में डूबी मारू की प्रतीक्षा करती छवि और महल के बाहर सारंगी बजाता लोकगायक जैसे भावपूर्ण दृश्य देखने को मिलते हैं। ये चित्र केवल सौंदर्य नहीं बल्कि प्रेम, प्रतीक्षा, और लोक आस्था के प्रतीक भी बन गए हैं। राजस्थान की चित्रकला की लगभग सभी प्रमुख शैलियों में इस कथा को विभिन्न रंगों और रूपों में चित्रित किया गया है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि ढोला-मारू न केवल शब्दों की कथा है बल्कि रंगों और रेखाओं की भी अमर कहानी है। इसके अलावा राजस्थान की जीवंत संस्कृति जैसे सारंगी की तान, ऊँट की यात्रा, मरुस्थल की पृष्ठभूमि, रंगीन परिधान और लोकगीतों की मिठास इन सभी प्रतीकों के माध्यम से यह कथा न केवल प्रेम का संदेश देती है बल्कि एक पूरे सांस्कृतिक संसार का चित्र भी प्रस्तुत करती है।

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