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पर्व मनेगा और मनता ही रहेगा
त्योहार अब सिर्फ श्रद्धा नहीं, उपभोग और प्रदर्शन का प्रतीक बन चुके हैं। योगेश मिश्रा के इस विचारपूर्ण लेख में पढ़िए कैसे दीपावली से लेकर नए साल तक का पर्व बाज़ार, असमानता और उम्मीद के बीच मनाया जाता है—और क्यों पर्व मनेगा और मनता ही रहेगा।
Indian Festivals (Image Credit-Social Media)
Indian Festivals: त्योहारों का सीज़न है। दशहरा, दुर्गा पूजा हो गया, दीपावली अभी बीती है। रोशनी का पर्व मना लिया सभी ने। श्रद्धा के सहारे, उम्मीदों और कामनाओं के साथ। अब नए साल का इंतज़ार है।
लेकिन अब पर्व पर सिर्फ श्रद्धा से काम नहीं चलता। बहुत कुछ करना होता है, दिखाना भी जरूरी है। जो नहीं करना चाहते उन्हें बाजार और विज्ञापनों की बाढ़ और इर्दगिर्द का परिवेश मजबूर कर देता है। पर्व पर उपभोग हावी है। समां बांधा जाता है विज्ञापनों के सहारे।
पर्व से कुछ रोज़ पहले से ही अखबारों के पन्ने बढ़ने लगते हैं। अब तो रील,सीरियल और शॉर्ट्स का दौर है वो भी अखबारी पन्नों की तरह दिन दूने रात चौगुने होते जाते हैं।
पन्ने खबरें या जानकारियां समेटे नहीं होते बल्कि विज्ञापनों से भरपूर। कई कई पूरे पूरे पेज के महंगे विज्ञापन। विज्ञापन भी महंगी चीजों के। गोल्ड। आभूषण। लक्ज़री कारें। करोड़ी फ्लैट। सब शुभ हैं। खरीदना जरूरी है नहीं तो पर्व अधूरा रह जायेगा। पर्व करीब आते आते अख़बार मोटे होते जाते हैं। विज्ञापनों के सामने खबरें कम पड़ जाती हैं। बाजार में खबरें खत्म हो जाती हैं। खबरें होती भी हैं तो वो त्योहारी खरीदारी का लेवल बताती हैं। कितना टन सोना बिक गया। ज्वेलरी दुकानों में कितनी भीड़ उमड़ पड़ी। कितने करोड़ की कारें बिक गईं। किस नेता ने कितने करोड़ की कौन सी गाड़ी खरीद ली।
सोना - चांदी के दाम रिकार्ड लेवल पर होने की खबरों के बीच टनों गोल्ड ज्वेलरी बिक जाती है। सड़कों पर जगह नहीं लेकिन कारों की रिकार्डतोड़ बिक्री है। निर्बल आवास की कमी होगी तो होगी, यहां करोड़ों वाले फ्लैट की ओवर बुकिंग है। पर्व पर हाकिम - हुक्मरानों के यहां बेशुमार गिफ्ट्स की भरमार है। सज़दा करने वालों की कतार। मिठाइयों के डिब्बे नौकरों में रेवड़ी की मानिंद बांटने पर भी खत्म होने का नाम नहीं लेते।
ये है रोशनी के पर्व का बाजार। भगवान राम की अयोध्या वापसी का जश्न। सोना - चांदी - प्रॉपर्टी - कार की बरसात है। सरकारी खजाने से बोनसों की सौगात है।
लेकिन बरसात के इतर भी पर्व है। सड़क पर बीस रुपये के 25 दीये बेचते लोगों का पर्व। अलाय बलाय, प्लास्टिक की माला, सूरन, खील बताशा, गट्टा बेचने वालों का पर्व। 10 - 20 रुपये के सामान के लिए हुज्जत करते लोगों का भी पर्व। 20 - 30 हजार की नौकरी करने वालों का पर्व। उन लोगों का पर्व जिनके हिस्से में अब चांदी का सिक्का भी नहीं रहा। उन लोगों का भी जो बोनस तो दूर, तलवार की धार सरीखी नौकरी पर टिके हैं, कब कट जाए कुछ पता नहीं।
पर्व फिर भी मना। आगे भी मनेगा। 100 रुपये की झालर, एक आध किलो मिठाई, सूरन की सब्जी, खील बताशे, और डेढ़ दो सौ की लक्ष्मी गणेश की मूर्ति से। कोई गिफ्ट दे न दे, कहीं से एक आध सोन पपड़ी का डिब्बा तो आ ही जायेगा।
साल दर साल, दीपावली मनती है। लक्ष्मी पूजन पूरी शिद्दत और श्रद्धा से होता है। झोंपड़े से लेकर अट्टालिकाओं तक एक ही आस, कामना और प्रार्थना - वैभव, धन धान्य बना रहे, बढ़ता रहे। बढ़ता भी है लेकिन सबका नहीं। पूजा और श्रद्धा में कोई कमी नहीं लेकिन मोमबती से झोपड़ा या झालर से छोटा सा मकान रोशन करने वाले के यहां हर पर्व यूं ही गुजरता है। वैभव और धन की लालसा में साल दर साल पर्व गुजरते जाते हैं।मगर वैभव और धन किसी अलग ही लेवल पर बंट जाता है। धन ही क्यों, पर्व बुराई पर अच्छाई और असत्य पर सत्य की विजय का भी मनता है लेकिन महिषासुर खत्म होने की बजाए बढ़ते ही जाते हैं। गले मिलने, रंग बिखेरने के त्योहार भी जिंदगियों में रंग नहीं भर पाते। वो भी किसी अलग ही दुनिया को रंगीन करते जाते हैं।
हम फिर भी पर्व मनाते हैं, मनाते रहेंगे। ट्रेनों में बोरों की तरह ठूंस ठूंस कर भरे जाएंगे लेकिन रोशनी और छठ परब मनाने देस जरूर जाएंगे। तीन हजार वाला एयर टिकट 30 हजार में खरीद कर जाएंगे। क्रिसमस में मोजे भी टाँगेंगे। उम्मीद में कई सांता कुछ गिफ्ट लाएंगे।
आखिर हमें विश्वास है कि कुछ होगा, अच्छा होगा। आखिर ऊपर है कोई जो हमारे व्रत, हमारे पूजन से खुश होगा। नहीं देगा न सही, कम से कम जो है उसे तो नहीं छीनेगा। इसी उम्मीद में हम सब कुछ करेंगे। कुछ वैभव मिलेगा तो ईश कृपा से, नहीं मिलेगा तो हमारे इस जनम या पहले के जनम की करनी से।
बहुत जल्द नए साल में कदम रखेंगे। उम्मीद में, नाचते गाते, हुड़दंग मचाते, होशोहवास खोते हुए। होश में रहेंगे तो पर्व मना नहीं पाएंगे। हम आएंगे, जाएंगे लेकिन पर्व मनते आये हैं और मनते रहेंगे।
( लेखक पत्रकार हैं)
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