अफगानिस्तान का मौन संकट: तालिबान के दमन की क्रूर तस्वीर उजागर करता संयुक्त राष्ट्र का नया रिपोर्ट

Afghanistan's Silent Crisis: संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन इन अफगानिस्तान (UNAMA) की हालिया रिपोर्ट ने कुछ चौंका देने वाले खुलासे किये हैं जिसमें महिलाओं और इस्माइली समुदाय पर बढ़ते अत्याचार की रिपोर्ट दी है।

Newstrack Network
Published on: 19 May 2025 4:20 PM IST
Afghanistans Silent Crisis
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Afghanistan's Silent Crisis (Image Credit-Social Media)

Afghanistan's Silent Crisis: जब वैश्विक ध्यान दुनिया के अन्य संकटों पर केंद्रित है, ऐसे समय में संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि तालिबान शासन के तहत अफगानिस्तान एक गंभीर और बढ़ते हुए मानवाधिकार संकट का सामना कर रहा है। खासकर अल्पसंख्यकों और महिलाओं के खिलाफ हो रहे व्यवस्थित अत्याचारों को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में लगभग नजरअंदाज किया जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन इन अफगानिस्तान (UNAMA) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, लाखों अफगान नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के निरंतर उल्लंघन का शिकार हो रहे हैं। यूएनओएमए के पर्यवेक्षकों ने न केवल महिलाओं के खिलाफ हो रही लैंगिक हिंसा और सार्वजनिक रूप से की जा रही कोड़ों की सजा की घटनाओं को उजागर किया है, बल्कि इस्माइली समुदाय पर बढ़ते अत्याचार की भी रिपोर्ट दी है।

अल्पसंख्यक इस्माइली समुदाय पर अत्याचार


इस्माइली, जो शिया इस्लाम की एक शाखा है, अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक हैं, जहां अधिकांश आबादी सुन्नी इस्लाम का पालन करती है। अधिकतर इस्माइली बदख्शां और बगलान प्रांतों में रहते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ बदख्शां में ही कम से कम 50 मामलों में इस्माइली समुदाय के लोगों को जबरन सुन्नी इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया गया। जिन्होंने विरोध किया, उन्हें शारीरिक यातना दी गई और मौत की धमकी दी गई। तालिबान अधिकारियों ने कथित रूप से केवल सुन्नी मुसलमानों को इस्लाम का वैध अनुयायी माना है। 2021 में सत्ता में आने के बाद से तालिबान ने सामाजिक जागरूकता और सहिष्णुता की वकालत करने वाले इस्माइली नेताओं — जैसे यासना — पर ईशनिंदा (blasphemy) के आरोप लगाए हैं, जिससे धार्मिक असहिष्णुता और बढ़ी है।

महिलाओं के अधिकारों की दुर्दशा


अफगान महिलाओं की स्थिति बेहद खराब हो चुकी है। तालिबान ने महिलाओं की स्वतंत्रता पर व्यापक प्रतिबंध लगा दिए हैं, जिससे आधी आबादी को सार्वजनिक जीवन से लगभग मिटा दिया गया है। लड़कियों को छठी कक्षा के बाद स्कूल जाने की अनुमति नहीं है, और इस बात का कोई संकेत नहीं है कि उन्हें कभी फिर से उच्च विद्यालय या विश्वविद्यालय जाने की अनुमति मिलेगी या नहीं। पश्चिमी शहर हेरात में तालिबान अधिकारियों ने ऑटो रिक्शा जब्त कर लिए हैं और चालकों को चेतावनी दी गई है कि वे महिलाओं को तब तक न ले जाएं जब तक उनके साथ कोई पुरुष रिश्तेदार न हो। इससे महिलाओं की स्वतंत्रता और आवाजाही और अधिक सीमित हो गई है।

शरणार्थियों की जबरन वापसी

इस संकट को और भी जटिल बना रहा है अफगान शरणार्थियों की जबरन वापसी। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, केवल अप्रैल माह में ही पाकिस्तान से 1,10,000 से अधिक अफगानों — जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं — को जबरन वापस भेजा गया है। ईरान ने भी बड़ी संख्या में अफगानों को वापस भेजा है, जिससे वे एक अनिश्चित और खतरनाक भविष्य की ओर लौटने को मजबूर हैं।


मीडिया और अभिव्यक्ति पर शिकंजा

तालिबान ने स्वतंत्र मीडिया पर सख्त नियंत्रण स्थापित कर दिया है। कई मीडिया संस्थानों को बंद कर दिया गया है या उन्हें सरकार के अधीन लाया गया है। जो पत्रकार तालिबान शासन की आलोचना करने का साहस करते हैं, उन्हें गिरफ्तारी और धमकियों का सामना करना पड़ता है, जिससे सूचनाओं का स्वतंत्र प्रवाह लगभग रुक गया है।

आर्थिक स्थिति और मानवीय संकट

अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति भी बेहद भयावह है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि देश की 41.5 करोड़ आबादी में से 64% लोग गरीबी में जी रहे हैं। आधी से अधिक आबादी मानवीय सहायता पर निर्भर है और 14% लोग भुखमरी के खतरे में हैं।


वैश्विक उपेक्षा और अपील

इस गंभीर स्थिति के बावजूद अफगानिस्तान का मानवाधिकार संकट वैश्विक मंच से लगभग गायब हो चुका है। मानवाधिकार संगठनों और संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि वे अफगानिस्तान पर पुनः ध्यान केंद्रित करें, मानवीय सहायता बढ़ाएं और तालिबान पर बुनियादी मानवाधिकारों के सम्मान के लिए दबाव बनाएं।

संयुक्त राष्ट्र की यह ताज़ा रिपोर्ट हमें यह कठोर सच याद दिलाती है कि अफगानिस्तान में करोड़ों लोग — विशेषकर महिलाएं और अल्पसंख्यक — ऐसे शासन के अधीन जीवित रहने और सम्मान के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो मानवाधिकारों के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं रखता।

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