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भगवद् गीता: खुद पर घमंड नहीं करना सीखाती है गीता, जानें श्रीकृष्ण का उपदेश
Bhagavad Gita Gyan Quote: भगवद् गीता में अहंकार से बचने और संतुलन के लिए कृष्ण के गीता श्लोक समझे...
Bhagavad Gita Gyan Quote: अहंकार और घमंड व्यक्ति तब आता है जब वो खुद को औरो से अलग समझता है।मैं और मेरा के भाव जब मन में घर कर जाये तो अहंकार आता है। आपको बता दें भगवान कृष्ण ने भागवत गीता के श्लोक के माध्यम से अर्जुन को समझाते है निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड के बारे में बताया है कि इस मनुष्य क्यों नहीं छोड़ पाता ? भगवद गीता में, अहंकार को बहुत सी समस्याओं का मूल माना गया है। अहंकार के कारण ही व्यक्ति में लोभ, मोह, क्रोध, और अन्य नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को अहंकार से मुक्त होने की सलाह देते हैं और बताते हैं कि सच्चा ज्ञान और मुक्ति केवल तब संभव है जब व्यक्ति अपने अहंकार को छोड़ देता है और आत्मा की सच्ची पहचान को समझता है।
गीता के कुछ श्लोकों में अहंकार के बारे में बताया गया है
भगवद गीता 2.71: "विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:। निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥" अर्थात: जो मनुष्य समस्त इच्छाओं को त्याग कर, 'मैं' और 'मेरा' के भाव से रहित और अहंकार से मुक्त होकर रहता है, वही शांति प्राप्त करता है।
भगवद गीता 3.27: "प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥" अर्थात: प्रकृति के गुणों द्वारा सभी कर्म स्वाभाविक रूप से होते हैं, परंतु अहंकार से भ्रमित आत्मा सोचती है कि वह कर्ता है।
इस प्रकार, गीता में अहंकार को आत्मज्ञान और मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक माना गया है और इसे छोड़ने की सलाह दी गई है।
घमंड और अहंकार में अंतर
घमंड और अहंकार दोनो ही एक समान लगते है परतु इनमे अंतर बहोत है। घमंड ताकत और व्यक्तित्व का होता है। अहंकार ज्ञान का होता है । अहंकार अच्छे में परिवर्तन हो सकता है परंतु घमंड नहीं होता। यदि दुसरे आपकी तारीफ करे तो वह आपके लिए अहंकार कहलाता है और यदि आप आपनी तारीफ खुद करे तो वह घमंड कहलाता है ।घमंड एक ऐसी बला है जिससे हमेशा दूर रहना चाहिए। अहंकार जब किसी के सिर चढ़कर बोलता है तो स्वयं उसी का विनाश कर देता है।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च , न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ( अध्याय 18 श्लोक 35 )
यया-जिससे; स्वप्नं-स्वप्नम्; भयम्-भय; शोकम्–शोक; विषादम्-दुख; मदम्-मोह; एव–वास्तव में; च-और; न कभी नहीं; विमुञ्चति-त्यागती है; दुर्मेधा-दुर्बुद्धि; बृति:-संकल्प; सा-वह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; तामसी-तमोगुणी।
अर्थ - हे पार्थ ! दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धृति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड को भी नहीं छोड़ता, वह धृति तामसी कहलाती है।
अर्थ - तामसी धारणशक्ति के द्वारा मनुष्य ज्यादा निद्रा, बाहर और भीतर का भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड इनका त्याग नहीं करता। प्रत्युत इन सबमें रचा पचा रहता है। वह कभी ज्यादा नींद में पड़ा रहता है। कभी मृत्यु, बीमारी, अपयश, अपमान, स्वास्थ्य, धन आदि के भय से भयभीत होता रहता है। कभी शोक चिन्ता में डूबा रहता है तो कभी दुःख में मग्न रहता है और कभी अनुकूल पदार्थों के मिलने से घमण्ड में चूर रहता है।
निद्रा, भय, शोक आदि के सिवाय प्रमाद, अभिमान, दम्भ, द्वेष, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों को तथा हिंसा, दूसरों का अपकार करना, उनको कष्ट देना, उनके धन का किसी तरह से अपहरण करना आदि दुराचों को भी मान लेना चाहिये। इस प्रकार निद्रा, भय आदि को और दुर्गुण दुराचारों को पकड़े रहने वाली अर्थात् उनको न छोड़ने वाली धृति तामसी होती है। भगवद गीता के 18वें अध्याय के श्लोकों से संबंधित है, जिसमें तीन प्रकार की धृतियों (दृढ़ता या धैर्य) का वर्णन किया गया है: सात्त्विक, राजसिक, और तामसिक।
जिस व्यक्ति की बुद्धि बुरी है, जो अज्ञान और मूर्खता से भरा है, वह कभी भी नींद, भय या दुःख जैसी भावनाओं को नहीं छोड़ पाता। वह इनमें स्वाभाविक रूप से उलझा रहता है। ऐसे व्यक्ति को दुर्मेधा कहा गया है, यानी जिसकी बुद्धि बुरी है।
राजसिक गुणों वाले व्यक्ति के अंदर भी अपनी इच्छाओं को पूरा करने का लालच होता है, इसलिए वह फल की इच्छा रखता है। वह कर्म करता तो है, पर उसके पीछे कोई न कोई स्वार्थ होता है। इसलिए, उसे फलाकांक्षी कहा गया है, यानी जो फल की इच्छा रखने वाला है।
सात्त्विक धृति सबसे अच्छी मानी गई है। सात्त्विक गुणों वाला व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है, यानी उसे कर्म के फल की कोई लालसा नहीं होती। वह अपने कर्तव्य को कर्तव्य समझकर करता है। यही कारण है कि सात्त्विक धृति के वर्णन में कर्ता का उल्लेख नहीं किया गया है। इसका मतलब यह है कि सात्त्विक व्यक्ति कर्म तो करता है, लेकिन उसमें अहंकार या कर्तृत्व का भाव नहीं होता। वह स्वयं को उस कर्म का कर्ता नहीं मानता, बल्कि खुद को सिर्फ एक माध्यम समझता है।सरल शब्दों में, राजसिक और तामसिक व्यक्ति कर्म करते समय उसमें पूरी तरह से लिप्त होते हैं, जबकि सात्त्विक व्यक्ति कर्म करते हुए भी निर्लिप्त रहता है।
गीता में कहा गया है कि हर व्यक्ति को स्वयं का आंकलन करना चाहिए। हमें खुद हमसे अच्छी तरह और कोई नहीं जानता, इसलिए अपनी कमियों और अच्छाईयों का आंकलन कर खुद में एक अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए।
गीता के अनुसार – ‘क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि व्यग्र जब व्यग्रता बढ़ेगी तब बिनाश होता है, व्यक्ति का पतन शुरू हो जाता है.’ तो आप समझ ही गए होंगे कि किस तरह आपका गुस्सा आपको और आपके जीवन को प्रभावित कर नुकसान पहुंचता है। इसलिए अगली बार जब भी आपको गुस्सा आए, खुद को शांत रखने का प्रयास करें।एक तरह से गुस्से से अहंकार और घमंड का जन्म होता है।
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