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गांधी जी ने 22 साल बाद भारत लौटते ही पहले भाषण में किसे लगाई थी फटकार? जानें उनके आगमन की पूरी कहानी
Mahatma Gandhi 156th birth anniversary: महात्मा गांधी ने 22 साल विदेश में बिताने के बाद भारत लौटकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अपना पहला भाषण दिया। इस ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने किसानों और गरीबों के अधिकारों पर जोर दिया और देश के धनवान और संभ्रांत वर्ग को चेतावनी दी।
Mahatma Gandhi 156th birth anniversary: आज 2 अक्टूबर 2025 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 156वीं जयंती है। मोहनदास करमचंद गांधी वह नाम जो सिर्फ भारत की आज़ादी का नहीं बल्कि सत्य अहिंसा और सादगी का पर्याय बन गया। 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर गुजरात में जन्मे गांधीजी का जीवन एक खुली किताब है जिसने पूरी दुनिया को एक नई राह दिखाई। उनकी जयंती पर देश भर में स्कूल-दफ्तरों से लेकर हर जगह उन्हें याद किया जाता है। लोग स्वच्छता अभियान चलाते हैं उनके जीवन मूल्यों पर भाषण देते हैं और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित कर इस महान विभूति को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब वह एक लंबी विदेश यात्रा के बाद भारत लौटे थे तब देश की राजनीतिक हवा कैसी थी और उन्होंने अपने पहले सार्वजनिक भाषण में ही किन लोगों पर सीधा निशाना साधा था? आज उनकी 156वीं जयंती के अवसर पर आइए जानते हैं 22 साल विदेश में बिताकर लौटे मोहनदास करमचंद गांधी के 'महात्मा' बनने की शुरुआत और भारत के राजनीतिक मैदान में उनकी धमाकेदार 'पहली सार्वजनिक उपस्थिति' की पूरी कहानी।
24 की उम्र में गए 45 के होकर लौटे: एक अनुभवी वकील का भारत आगमन
गांधीजी का भारत लौटना कोई सामान्य घटना नहीं थी बल्कि यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। बात है साल 1893 की जब मात्र 24 साल की उम्र में मोहनदास करमचंद गांधी एक कानूनी मामले के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका चले गए थे। किसी ने नहीं सोचा था कि यह युवा वकील वहाँ 22 साल बिताएगा और एक साधारण वकील नहीं बल्कि सत्याग्रह और अहिंसक प्रतिरोध के सिद्धांत के साथ लौटेगा। पूरे 22 साल विदेश में गुजारने के बाद 9 जनवरी 1915 को जब वह भारत लौटे तब उनकी उम्र 45 साल हो चुकी थी और वह एक अनुभवी वकील के तौर पर जाने जाते थे। इन 22 सालों में भारत में बहुत कुछ बदल चुका था। देश मुश्किल दौर से गुजर रहा था लेकिन एक बदलाव यह था कि राजनीतिक चेतना काफी बढ़ गई थी। अंग्रेजों ने भले ही भारत की राजधानी कलकत्ता से बदलकर दिल्ली कर दी थी पर भारतीय राजनेता अब पहले से कहीं ज्यादा सक्रिय हो चुके थे।
भारत में 'बाल पाल और लाल' का दबदबा
जब गांधीजी भारत लौटे तब देश के राजनीतिक क्षितिज पर कुछ बड़े नाम छाए हुए थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शाखाएँ अब देश के प्रमुख शहरों और कस्बों तक पहुँच चुकी थीं। पार्टी ने 1905-07 के स्वदेशी आंदोलन के जरिए समाज के मध्य वर्ग के बीच अपनी विचारधारा को मजबूती से स्थापित कर लिया था। इस दौर ने कुछ ऐसे प्रमुख नेताओं को जन्म दिया जिनके नाम का डंका बजता था। इनमें महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक बंगाल के बिपिन चंद्र पाल और पंजाब के लाला लाजपत राय शामिल थे। ये तीनों नेता मिलकर 'बाल पाल और लाल' के नाम से प्रसिद्ध हुए और इनकी जोशीली राजनीति ने ब्रिटिश शासन को चैन की साँस नहीं लेने दी थी। यानी जब गांधीजी आए तब देश का राजनीतिक नेतृत्व इन्हीं 'गरम दल' के नेताओं के हाथों में था।
गोखले की सलाह: 'पहले भारत को समझो फिर लड़ो'
गांधीजी जब भारत लौटे तो उन्हें राजनीतिक मार्गदर्शन की ज़रूरत थी। उस समय वे दो महान नेताओं को बहुत मानते थे: गोपाल कृष्ण गोखले और मोहम्मद अली जिन्ना। यह दिलचस्प है कि ये दोनों ही नेता गांधीजी की तरह गुजराती मूल के थे और लंदन के अनुभवी वकीलों में शुमार थे। कहा जाता है कि गांधीजी इनसे राजनीतिक सलाह भी लिया करते थे। एनसीईआरटी की 12वीं इतिहास की किताब के अध्याय 'महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन' में बताया गया है कि गांधीजी के वापस आने के बाद उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें एक अमूल्य सलाह दी। गोखले ने उन्हें सीधे राजनीति में कूदने से पहले ब्रिटिश भारत को एक साल तक घूमने और समझने की सलाह दी। गोखले चाहते थे कि गांधीजी पहले पूरे देश की यात्रा करें आम लोगों से मिलें और उनकी वास्तविक परेशानियों को गहराई से समझें। इस सलाह को गांधीजी ने गंभीरता से माना और एक साल तक उन्होंने देश के कोने-कोने का दौरा किया।
बीएचयू का उद्घाटन और गांधीजी की 'पहली सार्वजनिक गर्जना'
गोखले की सलाह मानने के बाद गांधीजी ने भारत लौटने के एक साल बाद 1916 में पहली बार सार्वजनिक तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। यह मौका था बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के उद्घाटन समारोह का। यह समारोह बहुत ही भव्य था जिसमें राजा महाराजा और धनवान मानप्रेमी शामिल थे जिनके दान ने बीएचयू की स्थापना में मदद की थी। इस समारोह में कांग्रेस की महत्वपूर्ण नेता एनी बेसेंट भी मौजूद थीं। इसी मंच पर गांधीजी ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया। यह भाषण कोई औपचारिक धन्यवाद ज्ञापन नहीं था बल्कि भारत के एलीट क्लास के लोगों पर सीधा आक्रमण था और इसमें उन्होंने गरीब लोगों के लिए अपनी गहरी चिंता जाहिर की।
किसानों की मुक्ति का उद्घोष: पहला ऐतिहासिक भाषण
6 फरवरी 1916 को बीएचयू में दिया गया गांधीजी का यह पहला भाषण देश की आज़ादी के लिए उनका पहला आधिकारिक उद्घोष बन गया। उन्होंने अपने भाषण में साफ कहा कि भारत के धनवान और संभ्रांत वर्ग को अपनी विलासिता छोड़कर गरीबों की भलाई में लगना होगा। गांधीजी ने सीधे शब्दों में कहा "भारत के लिए मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक कि आप अपने को इन अलंकरणों से मुक्त न कर लें और इन्हें भारत के अपने हमवतनों की भलाई में न लगा दें।"
सबसे महत्वपूर्ण बात उन्होंने किसानों के बारे में कही। उन्होंने भारत के वकीलों डॉक्टरों और ज़मींदारों पर निशाना साधते हुए कहा: "हमारे लिए स्वशासन का तब तक कोई अभिप्राय नहीं है जब तक हम किसानों से उनके श्रम का लगभग सम्पूर्ण लाभ स्वयं अथवा अन्य लोगों को ले लेने की अनुमति देते रहेंगे। हमारी मुक्ति केवल किसानों के माध्यम से ही हो सकती है। न तो वकील न डॉक्टर न ही जमींदार इसे सुरक्षित रख सकते हैं।"
गांधीजी के इस भाषण ने सबको चौंका दिया। यह एक ऐसी शुरुआत थी जिसने साफ कर दिया कि अब भारत की आज़ादी की लड़ाई महलों या अदालतों से नहीं बल्कि गाँवों के गरीब किसानों और उनकी झोपड़ियों से लड़ी जाएगी। 22 साल बाद भारत लौटे इस 'मोहनदास' ने एक झटके में देश की राजनीति की दिशा बदल दी थी और यहीं से उनके 'महात्मा' बनने की यात्रा सही मायनों में शुरू हुई। गांधीजी के भारत लौटने के बाद की यह कहानी हमें बताती है कि कैसे एक अनुभवी वकील ने किसानों को भारत की आजादी की लड़ाई का केंद्र बना दिया। उनके 'सत्य और अहिंसा' के सिद्धांत ने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।
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