सुभाष चंद्र बोस पुण्यतिथि 2025: गांधीजी से मतभेद के बीच भी क्यों बोस ने दी थी महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि

Subhash Chandra Bose Death Anniversary 2025: नेता जी सुभाष चंद्र बोस एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जिनके विचार और कार्य आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं।

Akshita Pidiha
Published on: 18 Aug 2025 7:56 PM IST
Subhash Chandra Bose Death Anniversary 2025
X

Subhash Chandra Bose Death Anniversary 2025 (Image Credit-Social Media)

Subhash Chandra Bose Death Anniversary 2025: 18 अगस्त 2025 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 80वीं पुण्यतिथि मनाई जाएगी। यह दिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नायक को श्रद्धांजलि देने का एक मौका है, जिन्होंने अपने साहस, देशभक्ति और दृढ़ निश्चय से भारतीय इतिहास में अमिट छाप छोड़ी। सुभाष चंद्र बोस, जिन्हें देश नेताजी के नाम से जानता है, एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जिनके विचार और कार्य आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं। उनकी पुण्यतिथि के मौके पर, यह लेख उनके जीवन महात्मा गांधी के साथ उनके वैचारिक मतभेदों और उनके द्वारा गांधीजी को "राष्ट्रपिता" की उपाधि देने की ऐतिहासिक घटना पर बताता है।

सुभाष चंद्र बोस का प्रारंभिक जीवन:


सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक में एक समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ बोस एक फेमस वकील थे और माता प्रभावती दत्त बोस एक धार्मिक और संवेदनशील महिला थी। सुभाष बचपन से ही मेधावी और देशभक्ति से ओतप्रोत थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कटक के रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में हुई। बाद में, उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में एडमिशन लिया, लेकिन उग्र राष्ट्रवादी गतिविधियों के कारण उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। इसके बाद, उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री हासिल की और भारतीय सिविल सेवा (ICS) की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया। लेकिन अंग्रेजों की गुलामी की वजह से उन्हें सिविल सेवा छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

सुभाष चंद्र बोस का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान अतुलनीय है। 1921 में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। वे चित्तरंजन दास के नेतृत्व में स्वराज पार्टी से जुड़े और 'फॉरवर्ड' अखबार का संपादन किया। 1923 में उन्हें अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष और बंगाल राज्य कांग्रेस का सचिव चुना गया। 1938 और 1939 में, वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। इस दौरान, उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग की स्थापना की, जो स्वतंत्र भारत के आर्थिक विकास की नींव रखने में अहम थी।


बोस का सबसे अहम योगदान आजाद हिंद फौज (Indian National Army - INA) का गठन और नेतृत्व रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के समय, उन्होंने जापान और जर्मनी जैसे देशों से समर्थन ले कर भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त करने की रणनीति बनाई। 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार की स्थापना की गई, और बोस ने "दिल्ली चलो" का प्रसिद्ध नारा दिया। उनके नेतृत्व में INA ने इम्फाल और बर्मा में ब्रिटिश सेनाओं के खिलाफ युद्ध लड़ा। उनका नारा, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा," स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रेरणादायक संदेश बन गया, जिसने लाखों भारतीयों को प्रेरित किया।

आजाद हिंद फौज में विभिन्न धर्मों, जातियों और क्षेत्रों के लोग शामिल थे, जो भारत की एकता का प्रतीक था। बोस ने न केवल सैन्य रणनीति बनाई, बल्कि महिलाओं को भी युद्ध में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने झांसी की रानी रेजिमेंट का गठन किया, जिसका नेतृत्व कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने किया। यह रेजिमेंट महिलाओं की सशक्तिकरण और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भागीदारी का प्रतीक थी।

गांधीजी के साथ वैचारिक मतभेद

सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी दोनों ही भारत की आजादी के लिए समर्पित थे, लेकिन उनकी विचारधाराएँ और रणनीतियाँ एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थीं। गांधीजी अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों पर आधारित आंदोलन में विश्वास रखते थे, जबकि बोस का मानना था कि सशस्त्र क्रांति ही भारत को आजादी दिला सकती है। यह वैचारिक मतभेद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मंच पर कई बार स्पष्ट रूप से सामने आया।


कांग्रेस में टकराव

1938 में हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। इस दौरान, उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग की स्थापना की, जो औद्योगीकरण और आर्थिक विकास पर केंद्रित थी। यह नीति गांधीजी के ग्राम-केंद्रित स्वदेशी और आत्मनिर्भरता के विचारों से मेल नहीं खाती थी। गांधीजी का मानना था कि भारत की अर्थव्यवस्था को ग्रामीण उद्योगों और स्वदेशी के माध्यम से मजबूत करना चाहिए, जबकि बोस आधुनिक औद्योगीकरण और सैन्य शक्ति के पक्षधर थे।

1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में यह मतभेद और गहरा हो गया। बोस ने फिर से कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा और गांधीजी द्वारा समर्थित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हराया। लेकिन गांधीजी और उनके समर्थकों ने बोस के नेतृत्व को स्वीकार करने में असहजता दिखाई। गांधीजी ने कहा, "पट्टाभि की हार मेरी हार है।" इसके परिणामस्वरूप, बोस को कांग्रेस कार्यसमिति में सहयोग की कमी का सामना करना पड़ा, और अंततः उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद, उन्होंने ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, जो वामपंथी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था।

रणनीति में अंतर

गांधीजी का अहिंसक आंदोलन जनता को संगठित करने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ नैतिक दबाव बनाने में प्रभावी था, लेकिन बोस का मानना था कि यह धीमा और अपर्याप्त था। वे पूर्ण स्वतंत्रता (पूर्ण स्वराज) के लिए तत्काल और सशस्त्र कार्रवाई चाहते थे। बोस ने द्वितीय विश्व युद्ध को भारत के लिए एक अवसर के रूप में देखा, जहाँ ब्रिटिश साम्राज्य कमजोर था। उन्होंने जर्मनी और जापान जैसे देशों से समर्थन मांगा, जो गांधीजी के सिद्धांतों के विपरीत था। गांधीजी का मानना था कि फासीवादी शक्तियों से गठजोड़ अनैतिक है।

हालाँकि, व्यक्तिगत स्तर पर बोस और गांधीजी के बीच कोई कटुता नहीं थी। दोनों एक-दूसरे के प्रति सम्मान रखते थे, और उनके मतभेद केवल रणनीति और विचारधारा तक सीमित थे। बोस ने गांधीजी की देश के प्रति निष्ठा और उनके नेतृत्व की सराहना की और इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने गांधीजी को "राष्ट्रपिता" की उपाधि दी।

गांधीजी को "राष्ट्रपिता" की उपाधि


6 जुलाई 1944 को, सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर में आजाद हिंद रेडियो पर अपने एक प्रसारण में महात्मा गांधी को "राष्ट्रपिता" के रूप में संबोधित किया। यह वह समय था जब बोस आजाद हिंद फौज का नेतृत्व कर रहे थे। इस प्रसारण में, उन्होंने गांधीजी के योगदान को स्वीकार करते हुए कहा कि उनके प्रयासों ने देश को एक साथ जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह पहली बार था जब किसी ने गांधीजी को इस उपाधि से संबोधित किया था।

बोस ने अपने संबोधन में कहा, "राष्ट्रपिता, हमारी स्वतंत्रता की इस अंतिम लड़ाई में, हम आपके आशीर्वाद और समर्थन की अपेक्षा करते हैं।" यह संदेश उनके सम्मान और एकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। यह उपाधि बाद में गांधीजी के साथ स्थायी रूप से जुड़ गई और आज भी उन्हें इसी रूप में याद किया जाता है।

नेताजी की मृत्यु का रहस्य

आधिकारिक तौर पर, यह माना जाता है कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में एक विमान दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो गई। लेकिन इस दावे पर कई सवाल उठे हैं। शाहनवाज खान समिति, जस्टिस खोसला आयोगऔर मुखर्जी आयोग जैसे कई जांच आयोगों ने इस मामले की जांच की, लेकिन कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला। मुखर्जी आयोग ने 2006 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी और टोक्यो के रेनकोजी मंदिर में रखी गई अस्थियां नेताजी की नहीं थीं। कुछ लोगों का मानना है कि नेताजी गुमनामी बाबा के रूप में गुमनाम जीवन जीते रहे, लेकिन इन दावों की पुष्टि नहीं हो सकी।


सुभाष चंद्र बोस की पुण्यतिथि उनके बलिदान और देशभक्ति की याद दिलाती है। उनके विचार, जैसे "स्वतंत्रता दी नहीं जाती, इसे छीनना पड़ता है," आज भी प्रेरणादायक हैं। उनकी विरासत कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे और नई दिल्ली में इंडिया गेट के सामने उनकी भव्य प्रतिमा में जीवित है।

सुभाष चंद्र बोस की पुण्यतिथि 2025 हमें उनके साहस और बलिदान को याद करने का अवसर देती है। गांधीजी के साथ उनके मतभेद रणनीति के थे, लेकिन "राष्ट्रपिता" की उपाधि देकर उन्होंने एकता का संदेश दिया। उनकी पुण्यतिथि पर, हमें उनके विचारों को अपनाकर एक मजबूत भारत के निर्माण के लिए प्रेरित होना चाहिए।

1 / 4
Your Score0/ 4
Shweta Srivastava

Shweta Srivastava

Content Writer

मैं श्वेता श्रीवास्तव 15 साल का मीडिया इंडस्ट्री में अनुभव रखतीं हूँ। मैंने अपने करियर की शुरुआत एक रिपोर्टर के तौर पर की थी। पिछले 9 सालों से डिजिटल कंटेंट इंडस्ट्री में कार्यरत हूँ। इस दौरान मैंने मनोरंजन, टूरिज्म और लाइफस्टाइल डेस्क के लिए काम किया है। इसके पहले मैंने aajkikhabar.com और thenewbond.com के लिए भी काम किया है। साथ ही दूरदर्शन लखनऊ में बतौर एंकर भी काम किया है। मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एंड फिल्म प्रोडक्शन में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। न्यूज़ट्रैक में मैं लाइफस्टाइल और टूरिज्म सेक्शेन देख रहीं हूँ।

Next Story

AI Assistant

Online

👋 Welcome!

I'm your AI assistant. Feel free to ask me anything!